Thursday, August 20, 2020

आत्मालोचन का कवि त्रिलोचन



आत्मालोचन एक ऐसा इलाका है जहाँ कवि का अंदर-बाहर लगभग एकाकार हो जाता है | ऐसे क्षणों में कवि को उसकी गढ़ी गई छवियों से मुक्ति मिलती है | उसके व्यक्तित्व के नए आयाम भी यहीं से खुलते हुए दिखाई देने लगते हैं | त्रिलोचन एक ऐसे कवि के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं जिसके यहाँ आत्मविश्लेषणपरक कविताओं का बाहुल्य है | पता नहीं त्रिलोचन की ऐसी कविताओं पर अलग से कहीं चर्चा हुई है या नहीं किन्तु यहाँ ऐसा ही एक प्रयास हम अवश्य करने जा रहे हैं | 

1.

सबसे पहले जो कविता ध्यान खींचती है वह त्रिलोचन की बहुचर्चित कविता है – ‘प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट नकली है’ | ऊपर-ऊपर कविता का लहजा भले ही शिकायती दिखाई देता हो लेकिन वास्तव में इसमें एक गहन आत्मालोचन भी साथ-साथ देखा जा सकता है | इसी कविता में वे अपने आलोचकों को लगभग चुनौती की भंगिमा में कहते हैं – ‘तुम्हीं एक हो क्या अन्यत्र विवेक नहीं है’ ! यह जो विवेक का प्रश्न है वह कवि की आत्मसजगता से जुड़ा हुआ विषय है | 

प्रगतिशीलता एक मूल्य है | वह विचारधारा से पहले एक मूल्य है | दुर्भाग्य से हिंदी के साहित्यिक परिसर में प्रगतिशीलता का एक संकुचित अर्थ भी लिया जाता रहा है और वह है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लेखक संगठन अर्थात प्रगतिशील लेखक संघ के प्रति निष्ठावान होना अथवा माना जाना | एक समय में यह एक साहित्यिक आन्दोलन के रूप में भी देखा और जाना गया | त्रिलोचन जिस समय की बात कविता में उठा रहे हैं वह एक ऐसा समय है की जहाँ प्रगतिशील धारा की कविता के प्रतिनिधि कवियों के नामों की सूची बन रही है | प्रगतिशील कवियों की यह ‘नई लिस्ट’ है | इससे ध्वनित यह भी होता है कि यह लिस्ट समयानुसार अपडेट भी की जाती रही होगी | कुछ नाम इस लिस्ट में जोड़े जाते रहे होंगे तो कुछ अन्य काटे भी जाते रहे होंगे |

लिस्ट से बाहर किया गया कवि सहज ही इस लिस्ट पर यकीन नहीं कर पाता | वह ‘आँखें फाड़-फाड़ कर’ लिस्ट को देखता है और इस बात को लेकर आश्वस्त भी है कि ‘दोष नहीं था पर आँखों का’ | वह शंका निवारण हेतु शुद्धिपत्र को भी देख लेता है और अंततः पाता है कि उसका इस लिस्ट में कहीं भी उल्लेख नहीं है | यह कवि का अपने ऊपर विश्वास ही है जो उससे कहलवा ले जाता है कि प्रगतिशील कवियों की वह लिस्ट झूठी है जिसमें त्रिलोचन का नाम नहीं है | दो बातें यहाँ ध्यान देने की हैं – एक यह कि ‘सुन सुन कर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे’ और दूसरी बात यह कि ‘पहले से देख रहा हूँ किसी जगह उल्लेख नहीं है’ ! त्रिलोचन यहाँ सांगठनिक राजनीति की छुद्रताओं को भी खोल कर रख देते हैं | 

2.

त्रिलोचन की एक अल्प-चर्चित कविता है –‘जीवन का एक लघु प्रसंग’ | इस कविता को देखा जाना इसलिए जरुरी है कि इसके माध्यम से ही हम यह जान पाते हैं कि इस कवि का तो जीवन ही ‘विद्या को दान कर दिया’ गया है ! जीवन का यह लघु प्रसंग कवि के बालपन से जुड़ा है | बहुत कम आयु है कवि की | उसे अभी अक्षर ज्ञान ही हुआ है | यह उसके स्कूल जाने के दिन हैं | दर्जे में सबने नई किताबें ले ली हैं | इस बच्चे को पैसे नहीं मिले हैं किताबें खरीदने के लिए | वह अपनी बुआ से पैसे की माँग कर रहा है | ऐसे में माँ का प्रवेश होता है | माँ लड़के को पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं | कोमल मन का यह शिशु बुआ और माँ की आपस की बात छुप कर सुन रहा है | माँ किसी संस्कारजन्य धारणावश यह मानती है कि ‘पढ़ना हमारे नहीं सहता’ | इस मान्यता के पीछे कुछ कुसंस्कार ही हैं दरअसल | माँ के अपने अनुभव में जो बात है वह यह कि ‘पढ़ लिख कर ही आखिर फलाने विक्षिप्त हुए’ और ‘पढ़ते लिखते ही तीन-चार जने मर गए’ | तो ऐसे में बुआ किसी तारणहार की तरह दिखाई देती है | वह माँ के तर्क से ही माँ को परास्त करती है | अर्थात संस्कार के ही काँटे से कुसंस्कार का प्रतिकार | बुआ माँ को यह कह कर निरुत्तर कर देती है कि इस बच्चे को तो ‘श्रद्धा से, प्रेम से, निष्ठा से विद्या को दान कर दिया है’ और यह कि ‘विद्या माता ही अब इसको निरखें-परखें, रक्षा और पालन-पोषण करें’ ! 

तो यहाँ जो बात उभर कर सामने आती है वह कवि के जीवन का एक नितांत निजी और गोपन क्षेत्र है लेकिन यह भी कविता में दर्ज है | ‘विद्या को दान’ किया हुआ वह शिशु ही कालांतर में हिंदी का बड़ा कवि त्रिलोचन बनता है |  

3.

त्रिलोचन एक ऐसे कवि के रूप में सामने आते हैं जिसे ‘सुख दुःख एक भी अकेले सहा नहीं जाता’ | अपनी एक कविता, ‘आज मैं अकेला हूँ’ में त्रिलोचन स्पष्ट कहते हैं कि जीवन जैसा भी मिला है ‘मोल तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता’ | यह कवि का जीवन-बोध है जो अकेलेपन के खिलाफ मुखर है | यह कविता विशेष रूप से मनुष्य के अकेले होते जाने के दौर में एक नई प्रासंगिकता अर्जित करती है | इस दुनिया में जहाँ सबकुछ ग्लोबल होता जा रहा है वहाँ निशाने पर सबसे पहले मनुष्य की सामाजिकता ही है | यह कवि सुख दुःख दोनों स्थितियों में ही साझेपन की बात करता है | सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस साझेपन के लिए किस स्तर की उदारता मनुष्य में वांछित हुआ करती है | 

4.

त्रिलोचन ने कुछ ग़ज़लें भी लिखी हैं | ये ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल के पाट को और चौड़ा करती हैं | इनमें कहन का वही परिचित त्रिलोचनी-अंदाज़ देखा जा सकता है | विदग्धता और गहन जीवनानुभव त्रिलोचन की कविता की अपनी खासियत है जो उनके ग़ज़लों में भी अपनी छाप के साथ मौजूद है | ऐसी ही अपनी एक ग़ज़ल , ‘कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था’ में त्रिलोचन उस्तादों पर तंज कसते हुए कहते हैं ‘मारे मारे फिरते हैं उस्ताद अब तो देख लो’ ! यहाँ प्रकारांतर से उस्तादों की पात्रता पर ही प्रश्न उठाते हैं त्रिलोचन | किनको उस्ताद होना चाहिए और कौन उस्ताद बना बैठा है ! 

एक उस्ताद अगर मारा मारा फिरता है तो इसका एक प्रकट कारण यह हो सकता है कि उस्ताद का उसका दर्जा उसपर आरोपित कर दिया गया है और शागिर्दों के बीच इस आरोपित उस्ताद की वैसी पूछ नहीं रह गई है | हम अपने अनुभव से इस मौजूदा दौर में भी देख ही रहे हैं कि किस तरह सत्ता के साथ सटने वाले और जोड़-तोड़ कर अकादमियों और संस्थानों पर काबिज लोग आये दिन नये नये उस्ताद अदब की दुनिया में पैराशूट से उतारते रहते हैं | लेकिन सच पूछा जाए तो ऐसे उस्तादों की नियति है मारे मारे फिरना क्योंकि इल्म उनमें अपने दौर के शागिर्दों से भी कमतर हुआ करता है या फिर उनसे कहीं बेहतर उस्ताद चुपचाप अपना काम कर रहे होते हैं | ऐसा लगता है कि ऐसे उस्तादों का होना कम से कम हिंदी में एक सार्वकालिक सत्य ही रहा आया है | 

त्रिलोचन आगे कहते हैं कि ‘मर्म जो समझे कहे पहले वही उस्ताद था’ ! तो एक तरह से उस्ताद के अन्दर जिस एक बात का होना त्रिलोचन आवश्यक मानते हैं वह यह कि वह मर्म को समझे और मर्म को ही कहे | मर्म जो दिल में उतर जाए | मर्म को कहने सुनने वाला अगर वह नहीं है तो वह उस्ताद होकर भी मारा मारा ही फिरेगा इसमें कोई दो राय नहीं | 

त्रिलोचन मर्म को कहने और सुनने वाले कवि हैं | तभी तो अपनी इसी ग़ज़ल में वे कहते हैं – अपनी चर्चा से शुरू करते हैं अब तो बात सब , और पहले यह विषय आया तो सबसे बाद था’ ! अर्थात कवि वह जो जग की बात कहे | उसका स्वान्तःसुखाय जबतक बहुजनहिताय नहीं बन जाता तब तक वह सार्थक नहीं है | स्व का विसर्जन और बहुजन के साथ स्व का विलय ही कविता का अभीष्ट है या होना चाहिए | 

5.

जीवन की शराब पीने की बात त्रिलोचन अपनी एक कविता में उठाते हैं | यह जीवन की शराब क्या है इसे जानने समझने के लिए कवि के दर्शन को समझना होगा | शराब के बनने की प्रक्रिया को जानना समझना होगा | जीवन की शराब ! 

हम जानते हैं कि शराब बनाने के लिए प्रकृति प्रदत्त कुछ चीज़ों को सड़ना होता है, नष्ट होना होता है | वैज्ञानिक शब्दावली में यह प्रक्रिया ‘फरमेंटेशन’ कहलाती है जिसके बाद एक जटिल विधि के द्वारा शराब छानी जाती है | इस छाने जाने की विधि को ‘डिस्टिलेशन’ कहते हैं | तात्पर्य यह कि जीवन को भी फरमेंटेशन और डिस्टिलेशन की प्रक्रियाओं से गुजारने के बाद ही तो जीवन की शराब छानी जा सकती है | 

जीवन रूपी द्रव्य की शराब, स्वाभाविक है कि जीवन के ही उपादानों के शोधन से निकाली जाएगी | बहुत बड़ी कीमत है यह जीवन के शराब को छककर पीने वाले के लिए | वह इतना सांसारिक है कि जीवन में ही धँसा हुआ है | वह इतना निर्लिप्त है कि जीवन से ही निस्पृह भी है | त्रिलोचन जीवन की शराब पीने की बात क्यों करते हैं ? क्या पाना चाहते हैं वे ? इसका जवाब देते हुए कवि कहता है –‘मैं इस जीवन की शराब को पीते पीते वर्षों का पथ क्षण की छोटी सी सीमा में तय करता चुपचाप आ रहा हूँ’ ! 

यह ‘वर्षों का पथ’ जो है वह ज्ञानार्जन की आनुष्ठानिक प्रक्रिया का पथ है | इसमें मनुष्य की स्कूलिंग शामिल है | तमाम पोथीजन्य ज्ञान संचय की विधियाँ समाहित हैं इसमें | यह वह पथ है जिसपर कि कबीर के शब्दों में ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय’ | यह ज्ञान क्षण भर की सीमा में अर्जित कर लेना संभव है यदि जीवनानुभव के आँच में तपने का कठिन मार्ग साध लिया जाए | इस पथ पर कवि को ‘अनजाने और अपरिचित चेहरे अपने जैसे जीते जीर्ण-शीर्ण मिलते हैं’ वह उनका हाथ थामे इसी पथ पर आगे बढ़ता है | वह उन्हें ‘जीवन के मधुमय गाने’ देता है | जीवन की इस शराब के लिए कवि के मन और प्राण में एक ‘संचित सोद्वेग चाह’ है | 

6.

अपने आप पर जो हँस सकता है वही सच्चा साधक है जीवन का | त्रिलोचन का कवि जो है वह व्यक्ति त्रिलोचन पर हँसना भी जानता है | त्रिलोचन की एक सुपरिचित ग़ज़ल है –‘बिस्तरा है न चारपाई है’ | इस ग़ज़ल का पहला ही शेर है –‘ बिस्तरा है न चारपाई है , ज़िन्दगी ख़ूब हमने पाई है’ ! यह शिकवा नहीं है अपनी ज़िन्दगी से | यह उस मस्ती का स्वर है जो ‘जीवन की शराब’ पीने से हासिल होता है | यह वही कबीराना फक्कड़पन है जो काशी-इलाहबाद की अपनी गमक वाले त्रिलोचन की कविताओं का अपना खास चेहरा निर्मित करता है | 

यह फक्कड़पन जीवन में यूँ ही नहीं आ जाता | इसे कमाना होता है | कठिन पथ है यह जीवन का जिसपर चलने के बाद जीने की यह अदा आ पाती है | यह विदग्धता अनायास ही नहीं चली आई है त्रिलोचन के काव्य में | त्रिलोचन का कहा यह शेर इस सन्दर्भ में ध्य्नाकर्षण की माँग रखता है –‘ठोकरें दर-ब-दर की थीं हम थे, कम नहीं हमने मुँह की खाई है’ ! 

7.

त्रिलोचन की जिन कविताओं में आत्मालोचन को रेखांकित किया जा सकता है उनमें विशिष्ट स्थान रखती हुई कविता है –‘भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ | यह एक अद्भुत रचना है त्रिलोचन की मेरी दृष्टि में जो यह समझ देती है कि खुद की निर्मम आलोचना क्या होती है और अपनी अंतरात्मा से जिरह कैसे की जाती है | 

सॉनेट के फॉर्म में लिखी इस कविता में एक दिन त्रिलोचन (कवि) देखते हैं की जो त्रिलोचन (व्यक्ति) इतना फौलादी चरित्र वाला है वह भीख माँग कर जीवन गुजार रहा है | कवि को ठेस लगती है यह देखकर | प्रश्न है कि भिक्षा से क्या मिलता है | प्रश्न है कि क्या इसको आप अच्छा समझते हैं | इस प्रश्न के उत्तर में त्रिलोचन बताते हैं कि इससे जीवन मिलता है | वे बताते हैं जीवन में कितना कुछ तो हम ऐसा करते ही हैं जो हम अच्छा नहीं समझते | और खाली पेट कोई काम भी तो नहीं हो सकता | यह उत्तर कवि को निराश करता है | उसे त्रिलोचन से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी | लेकिन तब यह बात सामने आती है कि चुपचाप मरने से बेहतर है खाली पेट को भर किसी काम में लगा जाए | त्रिलोचन लिखते हैं कि तब ‘स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह मनुष्य था इतने पर भी नहीं मरा था’ ! 

कवि की उक्ति को हम भीख माँगने के पक्ष में लेने की भूल न करें | यहाँ हम उस ‘काम’ के प्रति कवि की निष्ठा और उसके समर्पण को देखेंगे जिसके लिए जरूरत पड़ने पर भीख माँग कर भी उसे पूरा करने में उसे किसी किस्म की हिचक नहीं है | 

8.

त्रिलोचन की विख्यात रचना है – ‘उस जनपद का कवि हूँ’ | कवि का यह जनपद ‘भूखा दूखा है, अनजान है, कला नहीं जानता कैसी होती है क्या है, वह नहीं जानता कविता कुछ भी दे सकती है’ ! अपने जन के बारे में इतनी स्पष्ट समझ हिंदी के कम कवियों में नज़र आती है | वे तो जनता को सीधे क्रान्ति की गोली की तरह कविता का प्रेस्क्रिप्शन लिख देते हैं | लेकिन त्रिलोचन अपने जन को लेकर किसी भी किस्म के मुगालते में नहीं हैं | वे खूब जानते हैं कि यह जनपद तो ‘दुनिया को सपने से अलग नहीं मानता’ है | वह तो इतना भी नहीं जनता कि जिन विचारों को वह ढोता आ रहा है अब अब समाज में रह ही नहीं गए हैं | ऐसे में कवि कर्म एक चुनौती भरा मामला साबित होता है और त्रिलोचन इस चुनौती को बखूबी जानते समझते हैं | 

‘चीर भरा पाजामा’ कविता में त्रिलोचन की यह काव्य-पंक्ति उनके आत्म-वक्तव्य की तरह देखी जानी चाहिए जिसमें वे कहते हैं –‘दीनता देह से लिपटी है, मन तो अदीन है’ ! बार बार अपनी कविता में वे स्वयं को संबोधित करते हुए भी अपने युग को संबोधित कर रहे होते हैं | इसी कविता में एक जगह त्रिलोचन कहते हैं –‘यही त्रिलोचन है, सब में, अलगाया भी, प्रिय है आलोचन’ ! यह त्रिलोचन का अपना अंदाज़ है कि वे एक साथ सब में भी रहते हैं और सबमें रहते हुए भी अलगाये रहते हैं | ‘प्रिय है आलोचन’ महज एक कथन नहीं बल्कि एक जीवन-व्यवहार है त्रिलोचन के काव्य में | 

त्रिलोचन की एक कविता का शीर्षक ही है –‘वही त्रिलोचन है’ | इस कविता में एक पंक्ति आती है –‘कौन बताए, क्या हलचल है इस के रुँधे रुँधाए जी में, कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे’ | जी रुँधा हुआ है लेकिन चाल वही है | तात्पर्य यह कि भीतर कहीं न कहीं ऐसा कुछ घटित हो रहा है जो कवि के लिए पीड़ादायक है तथापि कवि का स्वाभाविक कर्म इससे अप्रभावित ही रहता है | त्रिलोचन खुद को राह चलते हुए इस तरह देखते हैं कि जैसे कोई कैमरा किसी ऑब्जेक्ट का पीछा कर रहा हो –‘चलना तो देखो इसका, उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें, सधे कदम, तेज़ी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें मनो डर से सिकुड़ रही हैं’ ! और कवि का यह तेवर तब है जबकि ‘कपड़े भी कैसे, फटे लटे हैं, यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं, कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे पर अवलम्बित है’ | त्रिलोचन अपने कवि को एक सिनेमैटोग्राफर की नजर से भी देखते हैं | और एक तटस्थ आलोचक की तरह भी | 

9.

‘आत्मालोचन’ शीर्षक अपनी एक कविता में त्रिलोचन एक नए तरह की संज्ञा से हमें मिलवाते हैं –‘मेरे अंतरनिवासी’ ! सम्भवतः यह कवि का आत्मविवेक है जो उसे प्रेरित और परिचालित करता है | त्रिलोचन इस कविता में एक बुनियादी सवाल से टकराते हैं | सवाल यह कि आखिर क्यों लिखा जाए ? बहुत बड़ा सवाल है यह जिससे हर कवि को टकराना ही पड़ता है | लेकिन त्रिलोचन का यह अंतरनिवासी जो बात कहता है उसके पीछे एक ठोस विचार-पद्धति काम कर रही है | वे लिखते हैं –‘मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा – लिखा कर, तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाय’ | तो एक बात यहाँ अवश्य कही जा सकती है कि कवि त्रिलोचन का अभीष्ट सत्य शिव सुन्दर को एक साथ साधना है | यह एक कठिन साधना है | और इस साधना के निमित्त कवि का जो अपना प्रयास है वह बेहद ईमानदार उक्ति के साथ कविता में भी दर्ज होता है –‘अब मैं लिखा करता हूँ, अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने, कागज़ पर बस उतार देता हूँ’ ! 

अन्तर की अनुभूति को ‘बिना रँगे चुने’ कागज पर उतारने का मतलब क्या होता है और कितनी गहरी ईमानदारी की माँग करता है इसे अलग से कहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती जब आप त्रिलोचन को पढ़ते हैं | 

त्रिलोचन के यहाँ शब्द ध्वनि में रूपांतरित होते हुए एक जादुई प्रभाव पैदा करते हैं | अगर आप ‘भाषा की लहरें’ कविता को देखें तो आप पायेंगे कि –‘सबकुछ पाया शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनिरूप हो गया’ ! भाषा इस कवि के लिए वह टूल है कि जिससे वह मानव-हृदय को छू पाता है | यहाँ एक ठेठ अवधी पद आता है ‘टो गया’ –‘ सबकुछ सबकुछ सबकुछ सबकुछ सबकुछ भाषा, भाषा की अंगुलि से मानव ह्रदय टो गया, कवि मानव का, जगा गया नूतन अभिलाषा’ | भाषा के प्रति बेहद सजग कुछ कवियों में हम त्रिलोचन को गिन सकते हैं | एक छोटी काव्य-पंक्ति में चार बार ‘सबकुछ’ की यह आवृत्ति निष्प्रयोजन तो नहीं हो सकती | भाषा कवि के यहाँ कविता का प्रधान उपकरण है | मुद्राएँ, चेष्टाएँ, भाव, वेग ये सारे उपादान यहाँ उतने महत्व के नहीं रह जाते | 

10.

त्रिलोचन की कविता का जादू यही है कि यहाँ शब्द ध्वनियों में रूपांतरित होते हैं | कैसे होता है यह सब इसे समझने के लिए हमें त्रिलोचन की ‘ध्वनिग्राहक’ कविता को देखना होगा | कविता का यह जादूगर अपने जादू को जादू भी कहाँ रहने देता है , वह तो इस जादू को भी सबके लिए सूत्र रूप में कविता के भीतर ही छोड़ जाता है | त्रिलोचन कहते हैं –‘ध्वनिग्राहक हूँ मैं, समाज में उठने वाली ध्वनियाँ पकड़ लिया करता हूँ’ ! 

समाज में उठने वाली ध्वनियाँ ! एक चौकन्ना कवि ही ऐसी बातें लिख और बोल सकता है | त्रिलोचन की काव्य साधना की एक सिद्धि यह भी है जो उन्हें विशिष्ट कवियों में स्थान दिलाती है | त्रिलोचन जैसा कवि अगर प्रगतिशील कवियों की किसी नई लिस्ट से कभी बाहर रहा तो यह उस प्रगतिशीलता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है | अपने आप से जिरह करता हुआ समाज से मुखातिब इस अंदाज़ का कवि कभी-कभी ही आता है और भाषा को नई रवानी देता है और कहता है –‘लड़ता हुआ समाज, नई आशा अभिलाषा, नये चित्र के साथ नई देता हूँ भाषा’ |

("गद्य वद्य कुछ" पुस्तक में संकलित)

  • नील कमल 

Saturday, June 6, 2020

आर्थिक स्वनिर्भरता का विकल्प: समवाय

कोविड19 के बाद लॉकडाउन के परिणामस्वरूप भारत जैसे जटिल आर्थिक-सामाजिक संरचना वाले देश में किसान-मजदूर-स्त्री-युवा के सामने रोजगार का संकट है । विकल्प क्या है ? काम का विकल्प तो काम ही हो सकता है, चाहे वह काम पहले से उन्नीस हो या बीस । कम से कम जी सकने लायक आय तो होनी चाहिये । समवाय का मॉडल ऐसे में एक राह दिखाता है:


।।एक।।

एकला चलो का मंत्र देने वाले कवि रवींद्रनाथ ठाकुर सामाजिक जीवन में समवाय के सबसे बड़े हिमायती थे । समवाय वही जिसे हम बोलचाल की जुबान में सहकारिता के नाम से जानते हैं । आप ध्यान दें तो रवींद्रनाथ ठाकुर एकला चलो कहने से पूर्व डाक देने की बात कहते हैं । डाक यानी पुकार । पुकारना है उनको जो आपके आसपास हैं, आपके समाज के लोग हैं, आपके परिचित हैं । पुकार पर कोई पलट कर आपके पास आये यह मुमकिन है । कोई पास आये तो वह आपको सुनेगा । वह आपको सुनेगा तो मुमकिन है कि आपके साथ आये । किसी की पुकार सुनकर साथ आना ही समवाय है । पुकार सुनकर भी कोई न आये तब एकला चलो । अकेले सफर बहुत कठिन होता है । 
लॉक डाउन ने मनुष्य को अकेला कर दिया है । गरीब और मजदूर इसके सबसे बड़े शिकार रहे । काम छिन गये या छीन लिये गये । पूँजीवाद और उसके भूमंडलीकृत विश्व में और खासकर भारतीय संदर्भ में हैव-नॉट्स के सामने जीने का संकट आ गया है । विकल्प क्या है ? विकल्प है समवाय । यह अपने जैसे लोगों को डाक देने का समय है, पुकारने का सही समय यही है । समवाय एक विकल्प अर्थनीति है । आज समवाय ही विकल्प है ।
 
।।दो।।

समवाय समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी के लिये आर्थिक स्वनिर्भरता के क्षेत्र में संभावनाओं के द्वार खोलता है । लेकिन यह आसान नहीं है । इसकी कुछ बुनियादी शर्तें हैं । यह कबीर के शब्दों में प्रेम की गली में समाने के लिये शीश उतार कर जाने की तरह है । यानी समर्पण । समवाय के लिये जातिगत और राजनैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त हो जाना प्राथमिक रूप से अनिवार्य है । समूह में सोचने की शुरुआत यहाँ से होती है । 
अभी के हालात ऐसे हैं कि बड़ी संख्या में लोग बेकार हो गये हैं । वे क्या करें ? शून्य से कैसे शुरू करें । उदाहरण के लिये श्रमिक श्रेणी को ही लें । उनमें श्रम को उत्पादन में बदल देने की क्षमता तो है लेकिन वे अलग थलग हैंं । उन्हें अपनी सामूहिक शक्ति का आविष्कार करना है । उन्हें संगठित होना है । पहले ग्राम स्तर पर, फिर ब्लॉक स्तर पर, फिर जिला स्तर पर । शहर में हैंं तो उस स्तर पर भी । श्रमिकों का समवाय बनायें । हर राज्य में ऐसे समवाय के पंजीकरण और क्रेडिट लिंकेज के लिये सरकारी दफ्तर हैंं ब्लॉक से लेकर जिला और राज्य स्तर पर । और यह पंजीकरण नि:शुल्क है । इससे श्रमिक के पास बार्गेनिंग पावर आयेगा । बिचौलिया कोई ठेकेदार नहीं होगा । काम मिलेगा क्योंकि श्रम का कोई विकल्प नहीं । टेंडर प्रक्रिया में भी भागीदारी सुनिश्चित होती है समवाय के माध्यम से ।
श्रमिकों का समवाय श्रम के शोषण से मुक्ति का मंत्र है । 

।।तीन।।

साहित्यिकों में समवाय को लेकर व्यापक दृष्टि कवि रवींद्रनाथ ठाकुर की रही । रवींद्रनाथ ने पतिसर में इसी आदर्श पर एक बैंक की नींव डाली । नोबेल पुरस्कार के पैसों को कवि ने इसी बैंक को दे दिया । गरीब किसान को इस बैंक से न्यूनतम व्याजदर पर ऋण दिया जाता था । पतिसर में महाजनी व्यवस्था इस एकल प्रयास के आगे कमजोर पड़ गई थी । एक व्यक्तिगत प्रयास के रूप में यह घटना विरल और दृष्टांतमूलक है । 
कृषि क्षेत्र में समवाय एक विशाल संभावना है जिसके सफल मॉडल केरल, महाराष्ट्र, हरियाणा सहित पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में देखे जा सकते हैं । इस समवाय में छोटे और भूमिहीन किसान शामिल हो सकते हैं । अर्थनीति के क्षेत्र के बड़े बड़े शॉक को एबज़ॉर्ब करने की क्षमता है समवाय में । इसका जाल ग्राम पंचायत स्तर पर है । यह माइक्रो फाइनेंस का ऐसा सेक्टर है जहाँ से किसान को बीज, खाद, कीटनाशक के साथ फसल के लिये महज 4% व्याजदर पर (ऋण की दर 7% जिसमें से 3% समय पर ऋण परिशोध करने पर वापस लौटा दिया जाता है) ऋण मिल जाता है और जहाँ वह अपनी फसल को बेच भी लेता है । संस्था का मालिक भी किसान ही होता है । ग्लोबल इकोनॉमी की कठिन चुनौतियों के सामने कृषि क्षेत्र में समवाय व्यवस्था अनंत संभावनाओं से भरी है ।

।।चार।।

स्त्रियों का, स्त्रियों के लिये, स्त्रियों के द्वारा परिचालित आर्थिक संस्थान समवाय क्षेत्र में ही संभव है । इसके मोटे तौर पर दो स्वरूप हैं । एक तो छोटा समूह जिसमें दस की संख्या में शुरुआत हो सकती है । वे समूह में काम करती हैं, समूह में संचय करती हैं और प्रयोजन के अनुसार समूह के संचित धन से अपने ही सदस्य की सहायता करती हैं । यह सेल्फ हेल्प ग्रुप मॉडल है । इसके लिये क्रेडिट लिंकेज की सुविधा उपलब्ध होती है । बांग्लादेश के मुहम्मद यूनुस साहब को इसी मॉडल के सफल प्रयोग के लिये नोबेल से नवाजा गया । बड़े स्तर पर हजारों स्त्रियों के सामूहिक प्रयास से क्रेडिट बैंक की स्थापना की जा सकती है जिसकी सदस्यता सिर्फ स्त्रियों के लिये होती है । यह वीमेंस क्रेडिट बैंक है । इस बैंक की डाइरेक्टर्स स्त्रियाँ ही होती हैं । 
आर्थिक स्वनिर्भरता की दिशा में महानगरों में स्त्रियों के लिये अवसर फिर भी होते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों के लिये कहीं कोई अवसर सुलभ नहीं होते या होते भी हैं तो शोषण का शिकार उन्हें होना पड़ता है । यदि वे सेल्फ हैल्प ग्रुप के मॉडल पर काम करें तो इससे बेहतर कुछ नहीं । उदाहरण के लिये एक ग्रुप यदि कुछ महीनों (इसकी कोई समय सीमा नहीं है) के संचय से पाँच हजार रुपए जमा कर पाता है तो इसकी चारगुनी रकम यानी बीस हजार रुपए उन्हें बैंक देगा । इसके लिये कोई गारंटी नहीं देनी होती । यह मॉडल ट्रस्ट यानी भरोसे पर काम करता है । इस रकम से ग्रुप का कोई एक सदस्य छोटे स्तर पर व्यवसायिक काम कर सकता है । अदायगी की जिम्मेदारी ग्रुप के दसों सदस्यों पर होती है । सुचारु रूप से काम करें तो बारी बारी से ग्रुप का हर सदस्य स्वनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा सकता है । 
समवाय ईमानदार लोगों के लिये है । गुजरात का अमूल समवाय का ही एक परिचित नाम है । 

रचना और आलोचना की भिड़ंत

रचनाकार लिखकर अपने काम से मुक्त हो चुका है | लेकिन वह यह भी चाहता है कि उसके लिखे को लोग पढ़ें | वह रचना के प्रकाशन को लेकर चिंतित होता है और उसके लिए सचेष्ट भी होता है | रचना प्रकाशित हो गई | मान लेते हैं कि प्रकाशित होने के बाद रचना को पढ़ भी लिया गया | रचनाकार का लक्ष्य यहीं पूरा हो जाना चाहिए था | लेकिन नहीं, उसे अभी कुछ और चाहिए | उसे मान्यता चाहिए अपने लिखे की | यह मान्यता उसे कौन देगा ? अव्वल तो रचनाकार को अंतिम मान्यता उसका पाठक ही देगा लेकिन पाठक की मान्यता से रचनाकार को संतोष नहीं है | ऐसे में एक रचनाकार आलोचक का मुखापेक्षी होता है | इस प्रकार रचनाकार और उसके पाठक के बीच एक तीसरी शक्ति आलोचना के रूप में अपनी जगह बनाती है | 

रचनाकार को रचना के मूल्य-निर्णय हेतु आलोचना की अनुशंसा क्यों चाहिए ? एक (महत्वाकांक्षी)रचनाकार अपने इर्द-गिर्द एक वर्ण-व्यवस्था कायम करना चाहता है | इस चतुष्वर्णी व्यवस्था में रचनाकार स्वयं को केंद्र में ब्राह्मण के रूप में स्थापित करने का आकांक्षी है | प्रकाशक रचना का व्यवसाय करता ही है सो वह इस व्यवस्था में वैश्य है | पाठक के कंधे पर चूँकि रचनाकार का पूरा ठाट बाट होता है इसलिए वह महत्वपूर्ण होते हुए भी शूद्र है जो प्रजा से अधिक महत्व तो नहीं पाता लेकिन उसे साहित्य में निर्णायक कहने-बताने की चतुर रणनीतिक कवायदें भी चलती रहती हैं | अब रचनाकार को कुछ पराक्रमी रक्षकों की आवश्यकता होती है जो तमाम रचनाकारों के बीच आपसी होड़ में उसे श्रेष्ठ के रूप में स्थापित करा सकें | इसप्रकार रचनाकार के आश्रम में आलोचक की जगह क्षत्रिय वाली हो जाती है | साधु प्रकृति के रचनाकार को इन बातों से कोई मतलब नहीं होता और उसे रचना के मूल्य-निर्णय की कोई प्रत्याशा भी नहीं होती है | 

आलोचक साहित्य में एक पावर सेंटर है यह मानते हुए इस पर विचार करना दिलचस्प होगा कि क्या उसका होना साहित्य की जरूरत है अथवा वह रचनाकार की निजी जरूरत है | यदि आलोचना रचनाकार की निजी जरूरत है तो आलोचक गिरोहबंद लश्कर या भाड़े का लठैत ही होगा | ऐसा आलोचक रचनाकार के हित में काम करेगा अथवा रचनाकारों के किसी साझा संगठन के हित में लाठी भाँजेगा | लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि रचनाकार की कमजोर नस हाथ में आते ही ऐसी आलोचना स्वतः एक पावर सेंटर बनकर उभरे | ऐसी स्थिति में रचनाकार को उठाने गिराने वाला गिरोह आलोचना के नाम पर खड़ा होता है | दोनों ही उदाहरण साहित्य में मौजूद हैं | इसके अपवाद स्वरूप साहित्य में सत्ता निरपेक्ष आलोचना भी अवश्य ही काम करती है जो अक्सर हाशिये पर होती है लेकिन जिसका एक नैतिक दबाव साहित्य के पावर डिसकोर्स पर रहता ही है | 

इस भूमिका के साथ ही इस बात पर विचार करना जरूरी है कि क्यों रचना और आलोचना जिनको एक दूसरे का पूरक होना चाहिये था एक दूसरे को कमतर साबित करने में अपनी ऊर्जा का क्षय करते पाये जाते हैं | रचनाकार प्रायः आलोचना को गिरोहबंद कहता है और आलोचक पर कई प्रकार के आरोप भी लगाता है | गिरोहबंदी अकादमिक दुनिया में अर्थात विश्वविद्यालय कैम्पस की दुनिया में आम बात है क्योंकि वहाँ प्रोफेसर-आलोचक अपने छात्र-रचनाकार का बहुत कुछ बनाने बिगाड़ने की ताकत रखता है | अपवाद छोड़ दें तो यह लगभग किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का विकट सत्य है | लेकिन ऐसा नहीं है कि हर-हमेश कैम्पस का छात्र-रचनाकार दूध का धुला ही होता है | यह एक गिव-ऐंड-टेक रिलेशनशिप की अपनी संरचना है जिसमें लेन-देन की आपसी जरूरतें अपनी भूमिका निभाती हैं | इस प्रसंग में बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | लेकिन कैम्पस के बाहर का रचनाकार भी कई बार अकेले या संगठित रूप से आलोचना से देना-पावना का संबंध बनाता है इसके उदाहरण भी कम नहीं | यह दोतरफा खेल है इसलिए विक्टिम प्ले करने वाले भी हैं और विलेन बनाए जाने वाले भी | साहित्य में दाखिल-खारिज का नेपथ्य यहाँ से खुलता है | जो इसमें दाखिल में आ गया वह अलग सरक लेता है | खारिज को लेकर हाहाकार उठता रहता है | 

आज परिदृश्य में बड़ी संख्या में रचनाकार मौजूद हैं | रचना विस्फोट जैसी परिस्थिति है | ठहर कर लिखने का धैर्य कम है | तुरंत मूल्य-निर्णय चाहिए | त्वरित मूल्यांकन चाहिए | इसके लिए क्या-क्या खेल नहीं खेले जाते | एक तरफ तो आलोचना के न होने का स्यापा है तो दूसरी ओर शिकायत भी आलोचना ही से है (जो है नहीं उससे शिकायत !) | कौन सही है कौन गलत, इसकी मीमांसा कौन करे, यहाँ तो एक दूसरे की गर्दन पर चढ़े हैं लोग कि हम जो कह रहे हैं उसे ही अंतिम मानो | रचनाकार अवसाद में जा रहे हैं या आत्महत्या कर ले रहे हैं | महत्वाकांक्षा के सामने जीवन छोटा साबित हो जाता है, ऐसी स्थितियाँ बन रही हैं | और आप कहते हैं कि आलोचना तो रचना की अनन्यता का सम्मान नहीं करती, कि उसकी साधारणता का उद्घाटन नहीं करती, कि वह कृति के साथ अपना संबंध न बना कर अपनी वैचारिकी का रकबा बढ़ाती है, कि उसे तो सृजनात्मक अनुभव के समक्ष विनम्रता से प्रस्तुत होना चाहिए अन्यथा वह आलोचना छिछली, सतही और यांत्रिक है, कि रचना के अबूझ-असपष्ट-दुर्बोध आदि होने की बातें उसका दुराग्रह हैं, कि विशिष्ट की मौलिकता की उपेक्षा हो गई, कि आलोचना की सारी कसौटियाँ रूढ़ हो चुकी हैं आदि आदि | मतलब आप रचनाकार हैं तो ब्राह्मण हैं, पूज्य हैं ? अरे भाई, ब्राह्मण हैं तो अपनी बभनौटी बनाइये और रहिये जाकर | 

एक और बात, साहित्य में संपादक और आयोजक नये पावर-ब्रोकर के रूप में उभरे हैं और इनमें रचनाकार ही प्रमुख रूप से अपने समूचे विद्रूप के साथ सामने आ रहे हैं | अकाल आलोचना का नहीं, उस नैतिक साहस का है जिसके बिना रचना भले बन जाए, रचनाकार नहीं बना जा सकता | रचनाकार का आलोचना से युद्ध दरअसल अपनी छाया से युद्ध है और इस छाया युद्ध में भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद और पटना में कोई फर्क नहीं है |

Sunday, December 25, 2016

कविता में पत्थरबाजी बनाम कविता में विस्फोट

'पथराव' (कविता) का कवि यह विश्वास करता है कि पत्थर उछालना दरअसल अपने होने को प्रमाणित करना है । उसे खूब मालूम है कि पत्थर फेंकने से कुछ भी होने-जाने वाला नहीं है । इस कवि के यहाँ शब्दों के पत्थर में बदलने की एक प्रक्रिया है । उसके यहाँ शब्द पाषाणवत हो चुके हैं । ये शब्द कलम की नोक पर ठहरे हुए हैं । वह इन पाषाणवत शब्दों को उनकी ओर फेंकता है या फेंकना चाहता है जो हमारी विवशता का मज़ाक उड़ाते हैं । इस कवि के लिए यह पत्थरबाज़ी एक तरह का प्रतिवाद है ! यह कवि जानता है कि कविता आग बनकर उसकी रगों में दौड़ती तो है मगर शब्दों में ढल नहीं पाती । आग को शब्दों में ढालना कवि की आकांक्षा है ।

'मुक्ति' ( कविता) के कवि को भी ज्ञात है कि पत्थर फेंकने से कुछ नहीं होने वाला । इसलिए वह पत्थर फेंकने की जगह शब्द फेंकने की बात करता है । वह जानता है कि इससे आदमी का कुछ नहीं होगा । लेकिन वह शब्द और आदमी की टकराहट से धमाके की संभावना का संकेत देता है । कहा जा सकता है कि कवि शब्दों से विस्फोटक का काम भी लेना चाहता है । वह भरी सड़क पर शब्द और आदमी के टक्कर से पैदा होने वाले धमाके को सुनने की इच्छा भी धारण किए हुए है । कवि का अनुभव कहता है कि शब्द फेंकने से कुछ नहीं होगा । कवि की आकांक्षा है कि इससे एक धमाका होना चाहिए । एक तरह का कनफ्लिक्ट कवि के भीतर काम कर रहा होता है । वह शब्दों के माध्यम से मुक्ति का पथ भी अनुसंधान करना चाहता है और शब्दों से कुछ भी कर पाने के नकार-बोध से भरा भी है ।

स्पष्ट है कि जहाँ सर्वेश्वर की कविता, पथराव (जिसका रचनाकाल 1972 है), अपने गठन में एक तार्किक परिणति तक जाती है, वहीं केदार की कविता, मुक्ति (जिसका रचनाकाल1978 है), विश्रृंखल भावों का एक वितान खड़ा करती है । इन कविताओं में बुनियादी फर्क यह कि सर्वेश्वर के यहाँ पत्थर फेंकना एक निर्णायक हस्तक्षेप की तरह आता है तो केदार के यहाँ शब्द फेंकना एक चमत्कारपूर्ण उक्ति की तरह आता है ।

1.
पथराव / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कविता नहीं है  कोई नारा
जिसे चुपचाप इस शहर की
सड़कों पर लिख कर घोषित कर दूँ
कि क्रांति हो गई ,
न ही बचपना
कि चिड़िया पर रंग फेंक कर
चिल्लाने लगूँ
अब यह मेरी है ।

जबान कटी औरत की तरह
वह मुझे अंक में भरती है
और रोने लगती है,
एक स्पर्श से अधिक
मुझे कुछ नहीं रहने देती
मेरे हर शब्द को
अपमानजनक बना देती है ।
जितना ही मैं कहना चाहता हूँ
स्पर्श उतना ही कोमल होता जाता है
शब्द उतने ही पाषाणवत ।

आग मेरी धमनियों में जलती है
पर शब्दों में नहीं ढल पाती ।
मुझे एक चाकू दो
मैं अपनी रगें काटकर  दिखा सकता हूँ
कि कविता कहाँ है ।

शेष सब पत्थर हैं
मेरी कलम की नोक पर ठहरे हुए
लो मैं उन्हें तुम सब पर फेंकता हूँ
तुम्हारे साथ मिलकर
हर उस चीज़ पर फेंकता हूँ
जो हमारी तुम्हारी
विवशता का मज़ाक उड़ाती है ।

मैं जानता हूँ पथराव से कुछ नहीं होगा
न कविता से ही ।
कुछ हो या न हो
हमें अपना होना प्रमाणित करना है ।
(रचनाकाल 1972)

2.
मुक्ति / केदारनाथ सिंह

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ पेड़
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ पानी

आदमी आदमी मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा

मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्दों और आदमी की टक्कर से पैदा होता है

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ ।
(रचनाकाल 1978)

Saturday, November 26, 2016

भा. भू. कविताएँ (2007 - 2016)

युवा हिन्दी कविता के दस साल 
[2007 से 2016 के बीच भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार प्राप्त कविताओं पर एक जिरह]

किसी व्यक्ति या वस्तु के चर्चा में आने का सहज उपाय है उसे पुरस्कृत किया जाना | साहित्य भी इस प्रसंग से अछूता कैसे रह सकता है | लेकिन हिन्दी कविता का मामला कुछ ऐसा रहा है कि शायद ही ऐसे किसी प्रसंग में कोई विवाद न हुआ हो | 35 साल तक की आयुसीमा में हिन्दी के किसी कवि को हर साल उसकी किसी एक प्रकाशित कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार दिया जाता रहा है | स्वाभाविक रूप से इसको लेकर विवाद भी कम नहीं हुए | दुर्भाग्य से इन विवादों में चर्चा के केंद्र में या तो चयनकर्ता होता है या फिर स्वयं कवि | कविता पर उस तरह बात नहीं हो पाती, बहस की तो खैर कौन कहे  |
पुरस्कृत कविताओं पर लिखना कभी मेरी प्राथमिकता में नहीं रहा लेकिन इधर पोएट्री मैनेजमेंट को लेकर जिस तरह का हो-हल्ला हुआ उससे यह विचार मन में आया कि पिछले दस वर्षों के दौरान भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार पाने वाली कविताओं को सामने रख कर वस्तुनिष्ठ बात होनी चाहिए | स्वस्थ बहस होनी चाहिए | इस लिहाज से 2007 से 2016 तक की कविताओं को इस आलेख का विवेच्य विषय बनाया गया | सायास रूप से न तो किसी कवि के नाम को बीच में लाया गया है और न ही किसी निर्णायक या चयनकर्ता के नाम को ही यहाँ उद्धृत किया जा रहा है | ऐसा इसलिए कि चर्चा के लिए कोई भी नाम यहाँ प्रासंगिक नहीं माना गया है |

मदर इंडिया [2007]
मदर इंडिया कविता मूलतः दो औरतों के बारे में लिखी गई कविता है जो निर्वस्त्र होकर शहर की सड़कों पर घूमती हैं | ये औरतें वस्त्र मांगती हैं पर वस्त्र दिए जाने पर उनका त्याग कर देती हैं | इन औरतों को कविता अलग अलग दृष्टिकोण से देखने-दिखाने की कोशिश करती है | शहर में इन दो औरतों का इस तरह चलना शहर के सभ्य समाज के लिए शर्म और परेशानी का कारण है | कविता में एक जगह इन्हें रोकने की इच्छा का जिक्र आता है | चिंता है कि क्यों न इन्हें चौक पर खड़ा कर दाग दिया जाए, क्यों न इन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जाए, या चकले में दे दिया जाए | सभ्य शहरी को अपनी सड़कें साफ चाहिए | कविता इन औरतों की बात करते हुए कुछ अच्छे बिंबों को खड़ा तो करती है पर इन औरतों की पहचान को लेकर कविता किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाती | मदर इंडिया शीर्षक से कुछ सूत्र कविता के पाठक के हाथ जरूर लगते हैं लेकिन पाठक के हाथ अंततः संशय और प्रश्न ही आते हैं | पूरी कविता में इन औरतों को लेकर कुछ सांकेतिक वक्तव्य हैं :
*कौन हैं ये दो औरतें
*ये कौन सी महिलाएं हैं
*ये स्त्रियाँ हैं हमारे अंदर की
*ये मदर इंडिया हैं
*कौन हैं ये, पता किया जाए
कविता में मदर इंडिया को लेकर कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं मिलती | यह उसी तरह है कि गाय पर एक पूरा निबंध लिखने के बाद आखिर में कोई विद्यार्थी लिखे कि गाय क्या है, पता किया जाए | मदर इंडिया कविता अपनी भाषा भंगिमा में पहले पाठ में लुभाने वाली कविता तो है लेकिन जैसे जैसे आप इसके कई पाठ से गुजर चुके होते हैं यह एक खंडित चित्र में बिखर जाती है | कविता अपने शीर्षक के साथ नत्थी किए नोट में एक संकेत यह भी देती है कि यह उन दो औरतों के लिए है जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था | एक प्रचलित मुहावरे की मदद लें तो शहर में दो औरतों के निर्वस्त्र विचरने पर शहरी सभ्यजन शर्म से पानी-पानी हो सकते हैं | कविता इस पानी को दिखाने में तो सफल है लेकिन इसके साथ पाठक का जुड़ाव तब तक संभव नहीं जब तक वह संदर्भों को ठीक-ठीक पकड़ न ले | चूंकि कविता में न तो किसी शहर का हवाला दिया गया है और न ही किसी विशेष घटना का संकेत मिलता है इसलिए यह पाठक के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण करेगा | ऐसी कविताओं के साथ एक दिक्कत यह पेश आती है कि इन्हें अभिधा में ग्रहण किया जाए या इसकी व्यंजना को ग्रहण किया जाए | बहरहाल मदर इंडिया इन दोनों ही संदर्भों में बहुत मार्के की कविता नहीं कही जा सकती | कुछ सवाल कविता में अनुत्तरित ही रहते हैं :
*क्या ये औरतें विक्षिप्त हैं ?
*क्या ये सामान्य औरतें हैं ?
*क्या यह इन औरतों का प्रोटेस्ट का कोई तरीका है (मणिपुर की घटना की तरह) ?
बहुत सारी जिज्ञासाओं के साथ पाठक अंततः अपने अनुभव जगत से ही इस कविता का कोई पाठ तैयार कर सकता है | प्रश्न यह भी है कि कविता का आम शहरी इन औरतों के लिए क्या करता है | क्या इन औरतों पर रोक लगा देने से, इन्हें चौक पर दाग देने से, पुलिस या चकले में दे देने के अलावा भी कोई विकल्प है इस शहरी के पास ? एक आम शहरी का इन औरतों के साथ कैसा संवाद है कविता में ? क्या शर्म करने से आगे भी यह शहरी कभी बढ़ेगा ? तमाम दृश्यों और बिंबों के बावजूद मदर इंडिया अमूर्तन की कविता भी है | अधिक से अधिक यह एक विडम्बना की तरफ इशारा करने से आगे नहीं बढ़ पाती | चर्चित कविता की इन दो औरतों के जीवन को जानने समझने का कोई सूत्र पाठक के हाथ नहीं लगता |

अट्ठाइस साल की उम्र में [2008]
अट्ठाइस साल की उम्र में, मूलतः प्रेम और यौनिकता (सेक्स) के अंतर्द्वंद्व से गुजरते युवा मन की  कविता है |  यह युवा प्रेम की परिणति को दो रानों के बीच केन्द्रित करता है और उसे जस्टिफ़ाई करने के लिए तर्क भी जुटाता हुआ दिखता है | कविता में बोलडनेस के प्रति जबरदस्त पूर्वग्रह दिखाई पड़ता है | अट्ठाइस साल की उम्र वाले कविता के इस नायक को एक सोलह-सत्रह साल के टीन-एजर की तरह देह की मांसलता में डूबते उतराते देखना चकित करता है | कविता का तर्क यह है कि प्रेम करने की सही उम्र अट्ठाइस साल है |  यहाँ पाठक की सहज जिज्ञासा हो सकती है कि प्रेम करने की भी भला कोई खास उम्र होती है ? कौन सा ऐसा प्रेम का पंचांग है कविता लिखने वाले के पास ? वह सही उम्र अठारह क्यों नहीं हो सकती ? या फिर चौबीस क्यों नहीं ? ऐसा क्या है अट्ठाइस की उम्र में ? इस उम्र में तो हिंदुस्तान का युवा बेरोजगारी से जूझता हुआ एक अदद नौकरी की तलाश में अपने जूतों के तल्ले घिस रहा होता है | लेकिन कविता का तर्क है कि अट्ठाइस की उम्र में वह अनुभवी(?) प्रेमी बन चुका होता है ! यह  कविता प्रेम के लिए देह को अपरिहार्य बताती दिखती है और उसे पूरी तरह एक एक यौनिक कार्य-व्यापार साबित करती दिखती है |
कविता में प्रेम की पवित्रता का एक बिम्ब सुर्ख गुलाब के रूप में खड़ा किया जाता है लेकिन यह तथाकथित पवित्रता के बरक्स जानवर भी खड़ा किया जाता है जिसे कविता में अंदर का जानवर कहा गया है | यह  अंदर का जानवर गुलाब की पवित्रता से डरता है | वह प्रेम और पवित्रता जैसे शब्दों से क्षमा याचना करता दिखाई देता है कविता में | यह जानवर रात में बिस्तर पर हिंसक हो उठता है | दिलचस्प यह भी है कि यह अट्ठाइस का युवा अपनी उम्र छुपाते हुए खुद को चौबीस का बता रहा होता है और यौनिकता को अपनी जरूरत के रूप में चिन्हित करता है |
जिस तरह की मनोवैज्ञानिक जमीन इस कविता में तैयार की गई है उसके आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने यौन संबंधी पूर्वाग्रहों की मामले में यह एक एडोलेशेंट (किशोर) मन के अधिक निकट है न कि अट्ठाइस साल के युवा मन के करीब | कविता में प्रेम अपनी सहजता में नहीं उपस्थित है | निस्संदेह यह कविता एक डेलिङ्क्वेंट माइंड (delinquent mind) की कविता है |

स्थगन [2009]
स्थगन कविता एक गर्भवती स्त्री और जेठ की दुपहरी में उसके अधखाए आम को लेकर रची गहन भावबोध की कविता है | कुछ सहज बिंबों को लेकर यह कविता अपनी बात कहती है | जो बात कविता कहती है वह ऐसी कोई बात नहीं है जिसे पहले कहा-सुना न गया हो लेकिन कहने का अंदाज़ कविता को खास बनाता है | जेठ की दुपहरी है, एक गर्भवती स्त्री है और है एक गाछ-पका आम | यह आम किसी सुग्गे ने पहले ही चख रखा है | इस अधखाए आम की मिठास असंदिग्ध है |
स्त्री जब इस आम को अपने दांतों से काटती है तब उसकी जिह्वा से होता हुआ एक आदिम रस गर्भ में स्पंदित शिशु की कोशिकाओं तक उतरता है | यहाँ कविता में एक दृश्य-भंग भी उपस्थित होता है एक वायुयान के रूप में जो स्त्री के माथे के ऊपर से गुजरता है | लेकिन तत्काल उसकी चेतना अधखाए आम पर वापस लौट आती है | जो दृश्य-विधान कविता रचती है उसमें गर्भस्थ शिशु और अधखाए आम का चित्र शिशु चंद्र के मुंह खोलने और तरल चाँदनी के चूने और इनके बीच सुग्गे की चोंच में कंपायमान सृष्टि के रूप में बेहद सुगठित और सुंदर है |

बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं [2010]

कविता भाषा में जगलरी की एक मिसाल भी बन सकती है | कुछ नया कह देने का दबाव यहाँ इतना जबरदस्त है कि कही गई बात का सिरा मुश्किल से पकड़ में आता है | कविता अपनी आरंभिक उठान में ही विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-भाषा से बुरी तरह आक्रांत दिखती है | प्रणय कृष्ण को समर्पित यह कविता किसी जगह के बयान को लेकर है जगह के भीतर और बाहर के रहस्यों पर प्रवचननुमा एक वक्तव्य प्रस्तुत करती है |
बयाननुमा इस कविता में यह समझाने की चेष्टा की गई है कि किसी भी तय परिस्थिति को देखने का नजरिया उस परिस्थिति के भीतर और बाहर रह रहे व्यक्तियों के लिए एक सा नहीं होता | कविता में इसे स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण भी सामने रखे गए हैं | एक जानवर के हवाले से कविता बताती है कि वह किस्से कहानियों में जितना खतरनाक बताया जाता है उतना वास्तव में होता नहीं है | इसी तरह के उदाहरण साँप और हिजड़ों के हवाले से बताई जाती है कविता में | कविता अपने निष्कर्ष में यह भी बताती चलती है कि ,’न होना होता है , न न होना होता है’ | तात्पर्य यह कि चीज़ें वैसी नहीं होती हैं जैसी वे अक्सर दिखती हैं | तो प्रकारांतर से यह वही बात है जिसे दर्शनशास्त्र में माया कहा गया है | यानि असल में दृष्टि ही वस्तु को लेकर पैदा होने वाले भावों को निर्धारित करती है |
कहना चाहिए कि इस कविता में कवित्व जैसी कोई बात ढूँढना दूर की कौड़ी तलाशने जैसा है | अधिक से अधिक इसे उक्ति-वैचित्र्य के रूप में पढ़ा जा सकता है |

अघोषित उलगुलान [2011]
अघोषित उलगुलान आदिवासी जीवन-प्रसंगों की कविता है जिसमें मूल चिंता जंगल के घटते जाने और शहरों के विस्तार को लेकर है | एक नए शब्द (उलगुलान) के अतिरिक्त कविता में नया और मौलिक कुछ विशेष नहीं | यदि है तो दिन-मजूर के रूप में शहर में इमारतों के निर्माण कार्य में लगे आदिवासियों के दुख की बात है | क्या है यह दुख ? दुख है कि जो शिकार करते थे वे खुद शिकार बन जाते हैं | एक काफिला है जो सुबह शहर कि ओर रुख करता है और शाम को वापस लौट आता है | वे जो जहर बुझे तीर से शिकार खेलते थे अब जीवन बचाने के खेल में शामिल होते हैं |
कविता में जंगल के घटते घनत्व के साथ साथ आदिवासियों की घटती संख्या और उनकी टूटती जिजीविषा के भी संदर्भ आते हैं | इनके बीच अभावग्रस्त लोग हैं तो लूट में शामिल लोग भी | कविता की चिंता है कि आरक्षण और धर्मांतरण पर तो फिर भी चर्चा होती है लेकिन आदिवासी की जीवन-स्थितियों पर, जंगलों के कटने पर, पहाड़ों के टूटने पर और नदियों के सूखने पर चर्चा नहीं होती | माफिया कि कुल्हाड़ी से कटते जंगल के बीच कविता बताती है कि आदिवासी लड़ रहे हैं | कविता बताती है कि आदिवासी के पास विकल्प दो ही हैं – एक तरफ कटते जंगल हैं तो दूसरी ओर बढ़ते जंगल हैं |
प्रश्न है कि यदि दो में से किसी एक विकल्प के साथ ही जीने की मजबूरी है तो फिर लड़ाई कहाँ है ? किसी तरह जीते रहना ही क्या लड़ाई कहलाता है ? कविता आदिवासी जीवन की किस लड़ाई के सवाल को उठा रही है | कहना चाहिए कि कविता में आदिवासी जीवन की स्मृतियाँ तो हैं पर उस जीवन का ताप इसमें नहीं है | यह कविता आदिवासी जीवन-संघर्षों का स्वांग अधिक करती है |

कुछ न समझे खुदा करे कोई [2012]
कविता का शीर्षक ग़ालिब के एक मशहूर शेर का टुकड़ा है | शायद यह शीर्षक इस मंशा के साथ चुना गया हो कि जुनून में कुछ भी बक डालने को शायराना अंदाज़ में डिफ़ेंड किया जा सके | यह कविता अगर कुछ है तो यह डायरी में दर्ज बेतरतीब ख़यालों का एक समुच्चय है जो कि दो-चार टुकड़ों के अलावा अपठनीय है | चालीस से कुछ अधिक टुकड़ों में यह जो साहित्यिक प्रयास है वह मूलतः साहित्यिक ध्यानाकर्षण का प्रयास अधिक है | कहता हुआ कि देखो क्या कमाल की चीज़ बनाई है | यह एक ऐसी रेसिपी है जिसमें रसोई के सारे मसाले एक साथ उड़ेल दिए गए हों | हाँ इतना जरूर है कि कुछ टुकड़े दिलचस्प हैं और उन्हें यदि आइसोलेसन में देखा पढ़ा जाए तो कविता कहा जा सकता है | लेकिन अपनी समग्रता में यह एक साहित्यिक कौतुक अधिक है |
कविता के कुल 29 स्वतंत्र भाग है और इनमें भी आखिरी भाग 13 स्वतंत्र उपभागों में विन्यस्त है | कविता के रूप में प्रकाशित इस सिरीज़ के आरंभ में ही सफाई पेश है कि ये अवांगार्द डायरी में दर्ज़ बेतरतीब सतरें हैं | इस तरह अलग अलग सतरों में यहाँ 42 स्वतंत्र कविताओं का एक बड़ा कोलाज खड़ा करने की कोशिश की गई है | ऐसा नहीं है कि दो-चार उल्लेखनीय सतरें यहाँ नहीं हैं | लेकिन एक सिरीज़ के रुप में यह एक फ्लॉप-शो ही कहा जा सकता है | इधर कुछ युवाओं में सबसे लंबी कविता लिख लेने का एक अपूर्व उत्साह हिन्दी में देखा जा सकता है | लंबाई का ऐसा आग्रह सार्थक तभी माना जा सकता है जब पूरी सिरीज़ के अलग अलग टुकड़े किसी एक केंद्रीय भाव अथवा विचार को लेकर चल रहे हों और उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई एक सामान्य तत्व भी कविता में हो |
इस सिरीज़ में कुछ चमत्कारपूर्ण बातें कहने की चेष्टा भी देखने लायक है | मसलन , ‘मेरी मृत्यु किसी और को न मिले, भले मिले मेरे हिस्से का जीवन’ | यह इस सिरीज़ की आरंभिक पंक्ति ही है जिसे अगली पंक्ति में ही कविता स्वयं निरस्त कर देती है जब उसमें आगे कहा जाता है, ‘मेरा जीवन किसी और को न मिले’ | तो यह महत्वाकांक्षी कविता एक बड़े कन्फ़्यूजन के साथ अपनी यात्रा शुरू करती है |
एक अत्यंत छोटी कविता इसी सिरीज़ की महज आठ शब्दों की है – ‘खेत में / पहाड़ हैं / पहाड़ पर / खेत हैं’ | यह जल में कुम्भ , कुम्भ में जल वाला रहस्यवाद नहीं है | इस बुझौवल को क्यों कविता माना जाना चाहिए इसके लिए तर्क जुटाना किसी पुरस्कार समिति के निर्णायक के ही बस की बात हो सकती है |
इसी सिरीज़ की एक कविता में कवि जब गाँव से दिल्ली लौटता है तब उसकी प्रेमिकाओं के पति उसे स्टेशन तक विदा करने आते हैं | ये प्रेमिकाएँ भी कवि के गिरते बालों पर देर तक हँसती दिखाई देती हैं | यह हिन्दी के किसी भी औसत कस्बे के हर दूसरे नौजवान के भीतर का कॉम्प्लेक्स है जिसमें उसकी दस-बीस प्रेमिकाओं का होना अनिवार्य है | और मजा यह कि कवि दिल्ली लौटते हुए अपनी प्रेमिकाओं के पतियों को ईमेल पर सीवी भेजने को कहते हुए उन्हें नौकरी दिलाने के लिए भी आश्वस्त करता दिखाता है | ध्यान दिया जाना चाहिए कि ये कवि के साथ पले बढ़े उसके साथी नहीं हैं बल्कि उसकी प्रेमिकाओं के पति हैं |
एक कविता में यह पंक्ति आती है –‘ घासफूल की तरह घासफूल खिला’ | यह विनोद कुमार शुक्ल की अपनी सील-मुहर वाली भाषा है यह हिन्दी कविता का सामान्य पाठक भी अब जानता है | आखिरी अर्थात 29वें टुकड़े की कविताओं में कुछ शेरो-शायरी भी की है कवि ने | इनमें कुछ टुकड़े ऐसे जरूर हैं जिनपर दाद दी जा सकती है | पर समग्रता में यह एक कमजोर कविता-सिरीज़ है |

कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं [2013]
यह कविता अपने समय की एक घिसी-पिटी कमेंटरी है जिसमें बार-बार एक ही बात समझाई जाती है कि कुछ भी मत पूछो, मत बोलो, वरना मारे जाओगे | कुछ भी पूछने बोलने के खतरे हैं | कविता का निष्कर्ष यह कि द्विअर्थी संवाद ही सुरक्षित संवाद है क्योंकि इससे भ्रांति और भ्रम रचे जा सकते हैं | जब कविता कहती है कि कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं तब उससे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह आसन्न खतरों की भी शिनाख्त करे | यह कविता इन खतरों को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं है | न्याय और स्वतन्त्रता पर छाए संकट की तरफ एक इशारा अवश्य है पर क्या यह वही खतरा है जिसके बारे में कविता सचेत करती दिखती है |
इन खतरों पर हिन्दी में बहुत सी उल्लेखनीय कविताएं हैं | दुष्यंत कुमार का वह मशहूर शेर किसे नहीं याद होगा कि , बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार | बहरहाल इस चर्चित कविता में हम पाते हैं कि देखने की हर दूसरी कोशिश आत्महत्या को सुनहरा आमंत्रण है | चर्चित कविता में आत्महत्या का आमंत्रण तो सुनहरा है पर आत्महत्या का प्रयास बहुत बड़ा पाप भी है (भारतीय दंड संहिता में भी आत्महत्या अपराध है) | कवि की अपनी उपलब्धि यह है कि आत्महत्या कितना बड़ा पाप है यह सबको नहीं पता | इसके आगे कवि का निष्कर्ष यह कि, ‘कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ टूटे-फूटे शब्दों में जरूर बता सकते हैं शायद’ – इस पंक्ति पर ध्यान दिया जाना चाहिए | 'जरूर बता सकते हैं' कहने के बाद भी कवि का संशय बना रहता है लिहाजा वह 'शायद' जोड़ देता है | यह संशय कविता को संदिग्ध बनाने के लिए काफी है | बुनकर और विदर्भ के प्रसंग कविता को प्रासंगिक बनाने के लिए जोड़े गए मालूम होते हैं | ऐसा इसलिए कि बुनकरों और किसानों की त्रासदी पूरी कविता में नदारद है |
कविता में जिक्र क्रिकेट में मैच फिक्सिंग और सटोरियों का भी है | एक चमत्कारपूर्ण उक्ति उछालते हुए कविता इस नतीजे पर पहुँचती है कि सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्विअर्थी हों और भ्रांतिमूलक हों | तो कविता दरअसल अपने शीर्षक में ही निचुड़ चुकी होती है इसलिए पाठक इसमें कोई नई और मौलिक बात नहीं पाता | खतरा-खतरा कहते हुए भी कविता खतरे को खोलने में व्यर्थ है उससे निबटने के उपाय तो बहुत दूर की बातें हैं |

विध्वंश की शताब्दी [2014]
एक वेल-क्राफ़्टेड कविता होने के बावजूद यह एक उपदेशात्मक आख्यान है जो अपने केंद्र में सभ्यता विमर्श को रखते हुए भी कोई विशिष्ट छाप नहीं छोड़ पाती | कविता कुछ मान्यताओं की धुरी पर टिकी हुई आगे बढ़ती है | पूरी की पूरी कविता इन सूत्र वाक्यों के इर्द-गिर्द बुनी गई है :
*शुरू में कुछ नहीं था फिर हिंसा आई
*हिंसा के बाद मशीन आई
*मशीन के बाद शक्ति आई
*शक्ति के बाद आती है क्रान्ति
*क्रान्ति के बाद आता है संदेह
*यह नया पागलपन है क्योंकि बाकी सारे पागलपन अब आदर्श हो गए हैं
*जो नहीं मिल सकता वह पाने योग्य नहीं है
इन दार्शनिक सूत्रों के बीच गूँथी गई यह कविता अपने को पढ़वा ले जाती है तो इसका श्रेय इसकी भाषा को दिया जाना चाहिए | सुगठित भाषा भी उलझे हुए कथ्य का निर्वाह नहीं कर पाती यह उपलब्धि भी कविता से गुजरने के बाद होती है | कम शब्दों में कहा जाए तो कविता में कोहेसिवनेस की कमी है अन्यथा यह कविता अच्छी बन सकती थी |

पोएट्री मैनेजमेंट [2016]
एक असंभव सी हाइपोथेसिस है यह कविता जिसमें पर्याप्त कॉमिक एलीमेंट्स मौजूद हैं | कविता इस स्टेटमेंट के साथ शुरू होती है कि यह एक फालतू-सा काम है | इसके बाद एक ट्विस्ट कि यदि कविता में भी मैनेजमेंट की डिग्री होती तो वह जिंदगी में कोई निर्णायक बदलाव ला पाती | तब क्या-क्या हो सकता था इस कल्पना में कविता आगे खुलती है | कविता ड्रीम सीक्वेंस की तरह खुलती है | इस ड्रीम सीक्वेंस में कविता वह सब करने में सक्षम है जो वह अमूमन नहीं कर पाती | वह जीवन के हर छोटे-बड़े पहलू को छूती है और उसे प्रभावित भी करती है | और जैसा कि होता है यह ड्रीम सीक्वेंस एक ऊंचाई पर जाकर टूटता है | जब यह ड्रीम सीक्वेंस टूटता है तब कविता का पाठक यह पाता है कि कवि एक थर्ड डिवीजन एमए से मुखातिब है जो कि प्रूफ रीडिंग का काम करता है | कविता अपने आदि-अंत में नहीं बल्कि मध्य भाग में इस प्रूफ रीडर को एक सहज उत्तेजना से भर देती है और वह यह सोच कर रोमांच से भर उठता है कि वह हठात एक महत्वपूर्ण आदमी बन गया है और लोग उसके ऑटोग्राफ ले रहे हैं | कविता एमबीए के तर्ज पर एमपीए की परिकल्पना लेकर आती है | गली मोहल्ले की चालू जुबान में यह कविता थोड़ी देर के लिए गुदगुदा तो सकती है लेकिन पाठक के मन मस्तिष्क पर इसका कोई स्थायी असर संदिग्ध है |
पोएट्री मैनेजमेंट कविता में एक मूलभूत अवधारणा यह है कि एमबीए की डिग्री में बड़ी ताक़त है | और कवि का पूर्वाग्रह यह भी है कि एमबीए टाइप का कोई जुगाड़ लग जाए तो एक कविता के लिखे जाने से सेंसेक्स भी गिर सकता है | अव्वल तो यह कि एमबीए अपने आप में इतनी कमाल की डिग्री है नहीं और अगर इसमें थोड़ी बहुत संभावना है तो यह कि डिग्रीधारक किसी ठीक-ठाक कंपनी में मोटी तनख्वाह पर एक नौकरी पा जाएगा | पर किसी भी जुगाड़ से एमबीए की डिग्री में सेंसेक्स को गिराने या उछालने की काबिलियत नहीं हुआ करती | बाजार और अर्थनीति के तमाम जटिल सिद्धांत फेल हो जाएंगे यदि एक अदद एमबीए से सेंसेक्स गिरने लग जाएगा | दूसरी बात यह कि एमबीए की तर्ज़ पर कविता में एक एमपीए की प्रस्तावना को पेश किया है कवि ने | हालांकि यह एमपीए ठीक-ठीक डिकोड नहीं किया गया है कविता में लिहाजा पाठक इसे अपने तरीके से डिकोड करने के लिए स्वतंत्र है | कविता बहुत कुछ आज़ाद ख़याल की तरह एमपीए के तमाम कारनामों को तफसील से बयान करती है | बहरहाल यहाँ जो एक लफ्ज चीजों को समझने की कुंजी बन सकता है वह है, मैनेजमेंट यानि प्रबंधन |
यहाँ एक बात साफ हो जानी चाहिए कि जो ताक़तें बाजार को और अर्थनीति को और इस तरह सेंसेक्स को नियंत्रित और परिचालित करती हैं वे आवश्यक रूप से एमबीए नहीं होतीं | शेयर बाजार का नया से नया खिलाड़ी भी यह मानेगा कि सेंसेक्स के उतार चढ़ाव में एमबीए टाइप डिग्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं बनती | एमबीए व्यवसाय प्रबंधन का मामला है और उसका मूल उद्योग अपने मालिक के लिए मुनाफा कमाना होता है | यहाँ शेयर बाजार के नियमों और व्यवसाय प्रबंधन के कायदों पर चर्चा का बहुत अवकाश नहीं है | तो पोएट्री मैनेजमेंट को समझने का जो अन्यतम टूल है वह भी कविता में ही मिल जाता है और वह टूल है, जुगाड़ या तिकड़म यानि जोड़-तोड़ | यह जुगाड़ किसी भी एमबीए से प्राचीन युक्ति है | कौन जानता है पोएट्री मैनेजमेंट कविता के हठात चर्चा में आने के पीछे कोई जुगाड़ है या नहीं | पोएट्री मैनेजमेंट एक बेहद औसत कविता है, अपनी भाषा में भी और अपने कथ्य में भी | इस कविता ने पोएट्री के कारण कम, मैनेजमेंट के कारण लोगों का ध्यान अधिक खींचा | इस कविता को लेकर शायद पहली बार मैनेजमेंट गुरुओं ने पाठक की समझ पर सवाल खड़े किए | पोएट्री मैनेजमेंट का अंग्रेजी और उर्दू तर्जुमा जारी हुआ और कहा गया कि हिन्दी कविता में व्यापक तोड़फोड़ करने वाली यह कविता जो पसंद नहीं कर सकता वह पाठक ही मूर्ख है | यहाँ तक कि पाठकों की नापसंदगी को मैनेजमेंट गुरुओं ने दादुर-कलरव कह कर उनका उपहास किया |
पुनश्च :
अब जबकि दस साल की कविताओं की चर्चा ऊपर की जा चुकी है तब सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कविताएँ अपने समय का प्रतिनिधि स्वर हैं ? क्या इन कविताओं में किसी भी परिप्रेक्ष्य में अपने युग की जटिलताओं और जलते हुए सवालों पर कोई महत्व की बात दर्ज़ मिलती है ? क्या ये कविताएँ अपने समय की श्रेष्ठ कविताएँ हैं ? क्या इनमें से कोई कविता हिन्दी कविता की लंबी परंपरा में भाषा या कथ्य के स्तर पर नया कुछ जोड़ने में कामयाब हुई दिखती है ? क्या ये कविताएँ अपने समय को संबोधित करती हैं ?
जिन दिनों बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाएँ घट रही हैं उन्हीं दिनों बंगाल की जमीन से अट्ठाईस की उम्र में देह और यौनिकता में भटकती हुई कविता लिखी जाती है और उसे पुरस्कार के लिए चुना जाता है | बीता एक दशक कई कारणों से उल्लेखनीय रहा है | तीन दशकों से भी अधिक समय तक बंगाल की सत्ता में रहने वाली वाम राजनीति का पराभव इसी दौर में होता है | राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथी राजनीति का उभार इसी दौर में होता है | किसानों की आत्महत्याएँ इसी दौर में होती हैं | आदिवासियों से उनकी जमीन इसी दौर में छीनी जाती है | संगठित क्षेत्र में मजदूरों और कर्मचारियों की छंटनी इसी दौर में होती है | भ्रष्टाचार जैस मुद्दे पर प्रभावी आंदोलन इसी दौर में खड़ा होता है | निजीकरण और बेसरकारीकरण के भयावह परिणाम इसी दौर में प्रकट होते हैं | स्त्री सुरक्षा के सवाल इसी दौर में प्रखर हो उठते हैं |
युवा कविता को रेखांकित करने का एक उद्देश्य अपने समय की रचनाशीलता की समस्त संभावनाओं को एक्सप्लोर करना भी होता है | हमें यह बात स्मरण रखनी होगी कि एक कविता को पुरस्कार के लिए चुनने के पीछे उसके चयनकर्ता की व्यक्तिगत रुचि, उसका बोध, उसकी प्राथमिकताएँ आदि कारक काम करते हैं | चूंकि उनका चयन ही अंतिम होता है इसलिए चयन-प्रक्रिया पर हम यहाँ कोई कमेन्ट नहीं करेंगे | लेकिन इन कविताओं पर सवाल करने का अधिकार एक पाठक के रूप में हमें जरूर है | हम यह जरूर पूछ सकते हैं कि इन कविताओं में कौन सी संभावनाएँ देखी गई थी और आगे जाकर उन संभावनाओं का क्या हुआ | एक स्थगन कविता को छोड़कर कोई भी कविता जो इन दस सालों में पुरस्कृत की गई वह हिन्दी के पाठक समाज में अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाने में व्यर्थ ही साबित होती है |

[पाठकों की सुविधा के लिए, इन दस वर्षों की कविताओं उनके कवियों की एक क्रमवार संदर्भ-सूची निम्न प्रकार है : मदर इंडिया - गीत चतुर्वेदी (2007), अट्ठाईस साल की उम्र में - निशांत (2008), स्थगन - मनोज झा (2009), बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं - व्योमेश शुक्ल (2010), अघोषित उलगुलान - अनुज लुगुन (2011), कुछ न समझे खुदा करे कोई - कुमार अनुपम (2012), कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं - प्रांजल धर (2013), विध्वंश की शताब्दी - आस्तिक वाजपेयी (2014), कोई कविता योग्य नहीं पाई गई - 2015, पोएट्री मैनेजमेंट - शुभम श्री (2016)]
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यात्रा-12 (संपादक : गणेश पाण्डेय) में प्रकाशित