Friday, October 14, 2016

लिख चुकने के बाद इन शब्दों को पोंछ कर साफ कर देना..

◆एक कविता है जिसमें कुछ सूत्र एक किसान पिता अपने बेटे को देता है । यह किसान अपने बेटे को जो सूत्र देता है वह एक प्रकार से वर्जनाओं और  निषेधाज्ञाओं की एक सूची है । यह मत करना , वह मत करना । यहाँ मत  जाना, वहाँ मत जाना । ऐसे मत देखना, वैसे मत देखना । इस तरह की तमाम नसीहतें वह अपने बेटे के लिए करता है ।

◆कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए (कविता) : केदारनाथ सिंह 
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मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे ।

◆यह एक ग्रामीण पृष्ठभूमि का खेतिहर किसान है जो कविता में अपने पुत्र को संबोधित कर रहा है । किसान की उम्र क्या है या कि उसके पुत्र की उम्र क्या है इसका कोई संकेत कविता में नहीं है तथापि यह माना जा सकता है कि एक पिता का यह उपदेशात्मक रूप है जिसका उद्देश्य हर हाल में पुत्र के लिए सुख शांति की कामना और आसन्न संकटों के प्रति उसे सावधान कर देना है । हालांकि पटिया पर लिखने और उसे पोंछकर साफ रखने की नसीहत से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसान पिता के इस बेटे के अभी पटिया पर लिखने के दिन हैं । अन्यथा यहाँ कागज़ और कलम की बात होती । कागज़ कलम दावात और किताबें या तो इस किसान परिवार तक अभी पहुँची नहीं हैं या फिर वह इन्हें अफोर्ड कर पाने की स्थिति में नहीं है, यह सहज अनुमान का विषय है ।

◆किसान पिता कहता है कि कुँए में कभी मत झाँकना । यहाँ विचारणीय यह है कि इसके पीछे उसकी मंशा क्या हो सकती है । कुँए से रिश्ता प्यास का है । प्यास और पानी का रिश्ता है यह । ग्रामीण कुँओं की बनावट पर ध्यान दें तो हम पाएँगे कि जगत वाले बँधे कुँए अमूमन कम घरों में होते हैं । ज्यादातर बिना जगत के सामान्य खुले मुँह वाले कुँए होते हैं । उनमें भी निजी कुँए संख्या में कम होते हैं । ज्यादातर सार्वजनिक अथवा साझा उपयोग के लिए होते हैं । आमतौर पर बच्चों को कुँए के पास जाने से मना किया जाता है जिसके पीछे भावना उसके कुँए में गिर जाने के खतरे से बचाने की ही होती है । लेकिन बात इतनी ही नहीं है । बहुत सारे अन्धविश्वास भी कुँए से जुड़े होते हैं और यह ग्रामीण जीवन का यथार्थ है । गाहे बगाहे कोई कुँए में कूद कर आत्महत्या कर चुका होता है और लोग मानने लगते हैं कि उसका भूत कुँए में रहता है । कुँए में झाँकना एक स्वाभाविक क्रिया है । प्राथमिक रूप से यह कौतूहल है । जिज्ञासा है कि कुँए में क्या है, यह दिखता कैसा है । ग्रामीण जीवन की रोजमर्रा की जिंदगी में कुँए और तालाब अपना खास महत्व रखते आए हैं । ये ऐसी जगहें हैं जो अपरिहार्य हैं । यह किसान पिता बेटे को कुँए पर जाने से नहीं बरज रहा है बल्कि कुँए में झाँकने से मना कर रहा है ।

◆यह पिता बेटे को उस दिशा में जाने से मना करता है जिधर काले कौए उड़े जा रहे हों । कौओं के लिए काले-काले विशेषण का प्रयोग है । स्वाभाविक रूप से कौए तो काले ही होते हैं । कुछ अधिक काले भी होते हैं । और कौओं को तो घरों में वह सम्मान हासिल है जो पितरों को हासिल होता आया है । कौए की चोंच सोने से मढ़वाने के किस्से कौन नहीं जानता होगा । ये कौए आगत के आने की सूचनाएँ देते हैं, ऐसी मान्यताएँ भी रही आई हैं । और अव्वल बात यह कि ये कौए ही हैं जो परिवेश की गंदगी को कम करने में सहायक भूमिका निभाते हैं । यह पिता बेटे को कौओं की दिशा में जाने से मना कर रहा है । क्यों ? क्या इसलिए कि उस ओर गंदगी के होने की संभावना है ?

◆यह पिता कहता है कि हरा पत्ता कभी मत तोड़ना, और तोड़ना तो ऐसे कि पेड़ को ज़रा सी भी पीड़ा न हो । विचारणीय है कि भारतीय किसान की मूल संवेदनाएँ क्या हैं । स्मरण रहे कि एक साधारण किसान (केदारनाथ सिंह के ज़माने के किसान को ध्यान में रखें)  रोज़ सुबह उठकर ईश्वर को याद करने के बाद सबसे पहले दुआर-आँगन पर लगे नीम के पेड़ की टहनी से एक दातून तोड़ता है । हाथ न पहुँचे तो लाठी से मार गिराता है किसी एक नाज़ुक टहनी को । और इसके लिए वह नीम के पेड़ को धन्यवाद भी नहीं कहता । यह उसकी रूटीन का हिस्सा है । वह यह नहीं सोचता है कि नीम के पेड़ को इस हरकत से पीड़ा भी पहुँच सकती है । लेकिन केदार जी का  किसान अपने बेटे से कह सकता है कि हरा पत्ता कभी मत तोड़ना ! किसान की मूल संवेदना धरती से जुड़ी होती है । माटी से जुड़ी होती है । पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी उसके लिए धरती का ही विस्तार हैं । उसका कृतज्ञता-बोध मूल रूप से धरती के प्रति है, माटी के प्रति है । वह धरती को माँ कहता और मानता है । स्मरण रहे कि यह किसान जितना सरल अपने आचार में दिखाई देता है उतना सरल उसका व्यवहार नहीं हुआ करता । कई बार तो वह इतना स्वार्थी और चालाक होकर पेश आता है कि आप हैरत में पड़ जायेंगे । मैं आपको इसका प्रमाण एक उदाहरण से देता हूँ । यह किसान सिर्फ रोपनी ही नहीं करता है, वह खेतों में उतर कर सोहनी भी करता है । समझने के लिए गेहूँ का ही उदाहरण ले लीजिए । बुवाई के बाद जब खेतों में गेहूँ के पौधे तैयार होने लगते हैं तब इन पौधों के बीच कुछ ऐसे पौधे भी उग आया करते हैं जो किसान के लिए सर्वथा अवांछित और अप्रयोजनीय होते हैं । परंपरागत किसान खेतों में जाकर इन्हें उखाड़ फेंकता है । ये अवांछित पौधे आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में वीड्स कहलाते हैं । आधुनिक किसान इनके नाश के लिए वीडिसाइड रासायनिक का प्रयोग करता है । स्मरण रहे कि अवांछित पौधे के साथ किसान की कोई संवेदना नहीं जुड़ती है, भले ही वह कितना भी हरा भरा क्यों न हो । वह उसे नष्ट कर देता है । किस तर्क से यह किसान पिता अपने बेटे से कह सकता है कि हरा पत्ता देखो तो उसे तोड़ो मत और तोड़ो तो ऐसे कि पेड़ को पीड़ा न हो । कृतज्ञता यदि है तो वह सभी पेड़ पौधों के प्रति सामान रूप से होगी । ऐसा तो नहीं हो सकता कि तुलसी के प्रति वह कृतज्ञ है और नीम की टहनी को रोज ध्वस्त करता है । यह किसान शाक-सब्ज़ी भी बोता ही है । तो किस तर्क से वह उन हरे पत्तों को तोड़ कर खा जाता है ? कहाँ जाती है तब उसकी कृतज्ञता ? स्मरण रहे कि पूरी की पूरी कृषि व्यवस्था एक तरह से प्रकृति का दोहन है । और किसी भी पेड़ के पुष्पित पल्लवित होने की प्रक्रिया में विकास के किसी भी चरण में मानवीय हस्तक्षेप उसे पीड़ा पहुँचाए बग़ैर मुमकिन नहीं है ।

◆इस पिता की हिदायत है कि रोटी तोड़ने से पहले गेहूँ के पौधे को सिर झुका कर याद करना जरुरी है । यह एक रोमांटिक किस्म की हिदायत है । और न सिर्फ रोमांटिक है बल्कि अव्यवहारिक भी है । एक साधारण किसान परिवार में भोजन की थाली में रोटी के साथ भात, दाल, तरकारी आदि भी होते हैं । चोखा चटनी भी । तो बच्चा खाने से पहले बारी-बारी से गेहूँ, धान, अरहर, आलू, नेनुआ, लौकी, धनिया, मिर्च सभी पौधों को सिर झुका कर याद करे फिर तो !  वास्तव में जो परंपरा में है वह है कि खाने से पहले धरती के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती है । धरती का कौर चौके में थाली से बाहर रख दिया जाता है । बाद में यह पशु पक्षियों के काम आ जाता है या घर के मवेशियों को डाल दिया जाता है । ये बातें व्यवहार में रही आई हैं । 

◆किसान पिता की एक सीख यह है कि लाल चींटियों को देखना तो समझना आँधी आने वाली है । किसान जीवन की खासियत यह भी है कि ऋतुओं को समझने के उसके अपने कुछ नुस्खे रहे हैं । इसके पीछे वैज्ञानिक निरीक्षण परीक्षण की वैसी भूमिका नहीं हुआ करती बल्कि दीर्घ अनुभव और अवलोकन को ही आधार बनाया जाता है । कई दफ़ा अनुभव अवलोकन से अर्जित और विकसित ये मान्यताएँ धीरे धीरे रूढ़ियों में बदल जाती हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी वैज्ञानिक समझ के आभाव में इन रूढ़ियों को मान्यता प्राप्त होती जाती है । लाल चींटियों का आँधी के साथ इस तरह एक समीकरण बैठा लिया जाता है । यूँ भी परंपराओं में सब कुछ वैज्ञानिक कहाँ होता है । इसी प्रकार किसान पिता आगे यह भी बताता है कि बहुत दिन अगर सियारों की आवाज़ न आए तो समझना चाहिए कि बुरे दिनआने वाले हैं । इसे उलट कर पढ़ा जाए तो सियारों की आवाज़ का आते रहना अच्छे दिन के लक्षण हैं ? क्या वास्तव में ऐसा है ? एक ग्रामीण जैविकी में सियारों की भूमिका पर विचार किया जा सकता है । ये पालतू नहीं होते और दिन के उजाले में गाँव की आबादी में नज़र भी नहीं आते । सिवान में छुप छुपा कर रहने वाले ये प्राणी इस जैविकी में स्थानीय पारिस्थितिकी यानि इकोसिस्टम में एक रोल जरूर प्ले करते हैं । सियारों की हुआँ हुआँ का दीर्घ  अवधि तक न सुना जाना अधिक से अधिक यह संकेत दे सकता है कि पारिस्थितिकी के संतुलन में कहीं कोई गड़बड़ी आ गई है । बहरहाल, अच्छे दिन और बुरे दिन के इन संकेतों के पीछे कोई वैज्ञानिक समझ नहीं काम कर रही है किसान पिता के मन में । वह सुनी सुनाई बात को अपने बेटे तक कम्युनिकेट भर कर रहा होता है । 

◆यह किसान पिता अपने बेटे से कहता है कि बिजली की तरह कभी मत गिरना । वह अनुभव से जानता है कि बिजली का गिरना विध्वंश का परिणाम लेकर आता है । वह आगे कहता है कि बिजली की तरह अगर कभी गिरना तो दूब की तरह उठ खड़े होने के लिए तैयार रहना । कविता में यह एक ऐसा बिंदु है जहाँ जीवनानुभव काव्य में ढलता हुआ दिखता है । एक ओर चरम विनाश और दूसरी ओर अदम्य जिजीविषा । कविता में यह अकेली जगह है जहाँ परम्परावाद के बर-अक्स जीवनानुभव बोलता हुआ दिखता है । थोड़ी फिलॉसफी, थोड़ा पोएटिक एस्सेन्स और एक किस्म का द्वंद्व यहाँ उभरते हुए दिखते हैं । यह कविता का हाई प्वाइंट है । कविता का ग्राफ़ तलहटी से उठ कर थोड़ा ऊपर जाता हुआ प्रतीत होता है । किंतु अगली ही पंक्ति में यह ग्राफ़ पुनः अपनी तलहटी को छूता हुआ नज़र आता है जब किसान पिता बेटे के लिए अगली नसीहत पेश करता है । 

◆यह पिता कहता है कि अँधेरे में अगर रास्ता भूल जाओ तो ध्रुव तारे पर भरोसा मत करना । वह आगे कहता है कि दूर से आती कुत्तों के भौंकने की आवाज़ पर भरोसा करना । यह कविता का सबसे लो-प्वाइंट है । ध्रुव तारा, जिसपर दुनिया को भरोसा है, जो अटल है, उस पर अँधेरे में भटकने पर दिशा निर्धारण के लिए भरोसा करने का ही निषेध है यहाँ । दूर से आती कुत्ते की आवाज़ इस पिता को अधिक भरोसे के काबिल लगती है । यह दिशा ज्ञान का कौन सा शास्त्र है ? जिस ग्रामीण समाज में रात के अँधेरे में बिना घड़ी की सहायता के किसान तारों का अवस्थान देख कर समय का आकलन कर लेता है उसी व्यवस्था में यह किसान पिता भटक जाने की स्थिति में बेटे से कह रहा है कि दूर से आती कुत्ते की आवाज़ सुनो । और अगर अलग अलग दिशाओं से एक साथ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनाई दे तब बेटा क्या करेगा ? कुत्ते के भौंकने की आवाज़ का निहितार्थ क्या है ? यही न कि उस तरफ आबादी है । बेटा किसी बस्ती में आवाज़ का सूत्र पकड़ कर पहुँच तो जाएगा । लेकिन उसी बस्ती में उसका घर होगा इसकी कोई गारंटी नहीं । 

◆किसान पिता की समझ तब और प्रकट होती है जब वह बेटे को सतर्क करता है कि बुधवार को उत्तर दिशा में मत जाना और इतवार को पश्चिम दिशा में मत जाना । यह पिता भयंकर रूप से कुसंस्कारी, अंधविश्वासी और दकियानूसी ख्यालात वाला है इस बात में  कोई संदेह नहीं रह जाता है । इस किसान पिता का ज्ञान विज्ञान से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है । वह अपने जाने भोगे को ही अंतिम सत्य मानता है । 

◆कविता का ग्राफ एक उभार वाले बिंदु को छोड़ कर शुरू से आखिर तक सपाट है । और कविता की फिनिशिंग अतिरिक्त चेष्टा की तरह अलग से कविता में टाँक दी गई पंक्ति के साथ होती है । यहाँ कविता एक नाटकीय मोड़ लेती है । किसान पिता अब बेटे से कहता है कि लिख चुकने के बाद  इन शब्दों को पोंछ कर साफ कर देना । और रेखांकित करने लायक बात यह है कि पिता इस हिदायत को सबसे बड़ी बात कहता है । इसकी वजह भी खुद किसान पिता ही स्पष्ट कर देता है । वह कहता है कि लिख चुकने के बाद इन शब्दों को इसलिए पोंछ कर साफ कर दो ताकि अगली सुबह पटिया रोज की तरह धुली हुई, स्वच्छ चमकती रहे । यहाँ दो बातें हैं गौर करने लायक । एक यह कि पिता की यह उपदेशात्मकता बेटे के लिए रोज रोज घटित होने वाली बात है । इन उपदेशों को उसे पटिया पर रोज ही लिखना भी है लेकिन फिर इस लिखे को पोंछ भी देना है । इस लिखने और पोंछने के दरम्यान जो कार्यवाही है उसमें निश्चित रूप से लिखे तो स्मृति में सुरक्षित कर लेने जैसी बात है या कहें कि कंठस्थ कर लेना है उसे । अगली सुबह पाटिया साफ सुथरी चाहिए । अगली सुबह उसे नए शब्द लिखने होंगे शायद । दूसरी बात यह कि आग्रह पाटिया के धुले स्वच्छ और चमकदार होने पर भी है । यहाँ विचार किया जाए तो पटिया का सौंदय, उसकी उपयोगिता उसके स्वच्छ धुले और चमकीले होने में नहीं है । बहरहाल ये जो सूत्र इस किसान पिता ने पुत्र को दिए हैं उनमें भारी कवित्व जैसा तो कुछ नहीं ही है, कविता होने का अहसास ये सूत्र भले ही देते हों । 

◆और अंत में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि इन पंक्तियों के लेखक ने इस कविता के अधिकांश को अभिधा में ग्रहण किया है । इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि एक पिता का पुत्र से उपदेशात्मक शैली में संवाद अभिधा में ही संभव है । इन पंक्तियों के लेखक का यह भी मानना है कि यह पिता जब बेटे से कहता है कि हरा पत्ता कभी मत तोड़ना तो यहाँ हरा मतलब हरा ही होता है , पत्ता मतलब पत्ता ही होता है और तोड़ना मतलब तोड़ना ही होता है । यूँ तो बीज के अंकुरण से लेकर पेड़ के बड़े होने के बीच पत्तों के उगने और गिरने की जैविक व्यवस्था  पेड़ स्वतः ही करता है और इसके वैज्ञानिक कारण हैं ।  पिता पुत्र के संवाद में काव्य-कौशल की गुंजाइश कम ही हुआ करती । किसान पिता की भाषिक उपलब्धि उसके द्वारा प्रयुक्त मुहावरों और लोकोक्तियों में झलकती है । पुत्र से संवाद करते हुए  रूपकों बिम्बों और अलंकारों की दरकार उसे नहीं होती । वह यथासंभव साफ़ साफ़ और दो टूक बातें कहता है ।

◆सन्दर्भ ::
यह लंबी टिप्पणी क्यों ? यह कविता इतनी दुर्बोध तो नहीं थी कि इसपर अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता पड़ती । इससे पूर्व कविता के एकांश (हरा पत्ता कभी मत तोड़ना..) पर एक छोटी टीप लिखी गई थी, (जिसे नीचे अक्षरशः उद्धृत किया जा रहा है) जिसपर कई आपत्तियों के साथ एक प्रधान आपत्ति थी कि इसे सन्दर्भ से काट कर प्रस्तुत किया गया । इसलिए पूरी कविता पर इस टिप्पणी का प्रयोजन बना । अन्य आपत्तियाँ इसके पाठ को लेकर थीं जिसका फैसला कविता के सचेत पाठक स्वयं करें तो बेहतर ।

◆मूल टिप्पणी ::
हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे 
कि पेड़ को ज़रा भी
न हो पीड़ा...

-केदारनाथ सिंह

इस प्रारूप की कविताएँ हिन्दी कविता की क्रॉनिक बीमारी हैं । कल इसे राजकमल प्रकाशन के फेसबुक वॉल पर पढ़ा तो लगा कि बात होनी चाहिए ऐसी कविताओं पर । और किसी नए कवि की कविता को सामने रखने से बेहतर होगा एक भारी कवि की कविता को सामने रख कर बात करना ।

कविता में दो बातें हैं । पहली बात, कि हरा पत्ता कभी मत तोड़ना । क्यों ? कारण नहीं बताया गया है । पूरी की पूरी कृषि सभ्यता पर सवाल है यह एक पंक्ति । हरा पत्ता मनुष्य सहित बहुतेरे जीवों का आहार है, जो शाकाहारी हैं । दूसरी बात, कि तोड़ना तो ऐसे कि पेड़ को ज़रा भी पीड़ा न हो । वह कैसे ? यह एक प्रमाणित सत्य है कि पेड़ भी सजीव है । तो पीड़ा तो होगी , यह अवधारित है । अपने आप कोई पत्ता झड़ जाए तो बात अलग है । यह तो हुई अभिधा की बात ! यहाँ क्या कोई व्यंजना है ? अधिक से अधिक एक ऐडवाइस खोज निकाली जा सकती है कि प्रकृति में हस्तक्षेप करते वक़्त ध्यान रखना होगा कि पर्यावरण को क्षति न पहुँचे, हालांकि कविता ऐसा कुछ कहना चाहती है इसको लेकर यथेष्ट संदेह है । तो क्या है इस कविता में ?

इस कविता में अदायगी है ! जैसे देवानंद का लहरा कर चलना, जैसे राजेश खन्ना का सिर को झटकना, जैसे शाहरुख़ खान का बाहें फैलाना । और इस अदा की तो कई पीढ़ियाँ दीवानी पाई गई हैं । अगर मैं लिखूँ - उसे कभी मत मारना, और मारना तो ऐसे कि उस आदमी को न हो पीड़ा ; तो कौन इसे कविता मानेगा ? लोग मारने के लिए दौड़ा लेंगे । लेकिन बात हरे पत्ते की है, पेड़ की है । इसलिए एक छुपी हुई रुमानियत पढ़ने वाले को भरमा ले जाती है ।

खूब कविताएँ लिखी गई हैं हिन्दी में इस अदा वाली । खूब लिखी जा रही हैं । और लुभा भी रही हैं । यह लहू बहाए बिना ही क़त्ल करने की अदा है ।

प्लीज़ करेक्ट मी इफ़ आइ ऐम मिसटेकेन ।

◆ नील कमल 
neel.kamal1710@gmail.com