Saturday, November 26, 2016

भा. भू. कविताएँ (2007 - 2016)

युवा हिन्दी कविता के दस साल 
[2007 से 2016 के बीच भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार प्राप्त कविताओं पर एक जिरह]

किसी व्यक्ति या वस्तु के चर्चा में आने का सहज उपाय है उसे पुरस्कृत किया जाना | साहित्य भी इस प्रसंग से अछूता कैसे रह सकता है | लेकिन हिन्दी कविता का मामला कुछ ऐसा रहा है कि शायद ही ऐसे किसी प्रसंग में कोई विवाद न हुआ हो | 35 साल तक की आयुसीमा में हिन्दी के किसी कवि को हर साल उसकी किसी एक प्रकाशित कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार दिया जाता रहा है | स्वाभाविक रूप से इसको लेकर विवाद भी कम नहीं हुए | दुर्भाग्य से इन विवादों में चर्चा के केंद्र में या तो चयनकर्ता होता है या फिर स्वयं कवि | कविता पर उस तरह बात नहीं हो पाती, बहस की तो खैर कौन कहे  |
पुरस्कृत कविताओं पर लिखना कभी मेरी प्राथमिकता में नहीं रहा लेकिन इधर पोएट्री मैनेजमेंट को लेकर जिस तरह का हो-हल्ला हुआ उससे यह विचार मन में आया कि पिछले दस वर्षों के दौरान भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार पाने वाली कविताओं को सामने रख कर वस्तुनिष्ठ बात होनी चाहिए | स्वस्थ बहस होनी चाहिए | इस लिहाज से 2007 से 2016 तक की कविताओं को इस आलेख का विवेच्य विषय बनाया गया | सायास रूप से न तो किसी कवि के नाम को बीच में लाया गया है और न ही किसी निर्णायक या चयनकर्ता के नाम को ही यहाँ उद्धृत किया जा रहा है | ऐसा इसलिए कि चर्चा के लिए कोई भी नाम यहाँ प्रासंगिक नहीं माना गया है |

मदर इंडिया [2007]
मदर इंडिया कविता मूलतः दो औरतों के बारे में लिखी गई कविता है जो निर्वस्त्र होकर शहर की सड़कों पर घूमती हैं | ये औरतें वस्त्र मांगती हैं पर वस्त्र दिए जाने पर उनका त्याग कर देती हैं | इन औरतों को कविता अलग अलग दृष्टिकोण से देखने-दिखाने की कोशिश करती है | शहर में इन दो औरतों का इस तरह चलना शहर के सभ्य समाज के लिए शर्म और परेशानी का कारण है | कविता में एक जगह इन्हें रोकने की इच्छा का जिक्र आता है | चिंता है कि क्यों न इन्हें चौक पर खड़ा कर दाग दिया जाए, क्यों न इन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जाए, या चकले में दे दिया जाए | सभ्य शहरी को अपनी सड़कें साफ चाहिए | कविता इन औरतों की बात करते हुए कुछ अच्छे बिंबों को खड़ा तो करती है पर इन औरतों की पहचान को लेकर कविता किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाती | मदर इंडिया शीर्षक से कुछ सूत्र कविता के पाठक के हाथ जरूर लगते हैं लेकिन पाठक के हाथ अंततः संशय और प्रश्न ही आते हैं | पूरी कविता में इन औरतों को लेकर कुछ सांकेतिक वक्तव्य हैं :
*कौन हैं ये दो औरतें
*ये कौन सी महिलाएं हैं
*ये स्त्रियाँ हैं हमारे अंदर की
*ये मदर इंडिया हैं
*कौन हैं ये, पता किया जाए
कविता में मदर इंडिया को लेकर कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं मिलती | यह उसी तरह है कि गाय पर एक पूरा निबंध लिखने के बाद आखिर में कोई विद्यार्थी लिखे कि गाय क्या है, पता किया जाए | मदर इंडिया कविता अपनी भाषा भंगिमा में पहले पाठ में लुभाने वाली कविता तो है लेकिन जैसे जैसे आप इसके कई पाठ से गुजर चुके होते हैं यह एक खंडित चित्र में बिखर जाती है | कविता अपने शीर्षक के साथ नत्थी किए नोट में एक संकेत यह भी देती है कि यह उन दो औरतों के लिए है जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था | एक प्रचलित मुहावरे की मदद लें तो शहर में दो औरतों के निर्वस्त्र विचरने पर शहरी सभ्यजन शर्म से पानी-पानी हो सकते हैं | कविता इस पानी को दिखाने में तो सफल है लेकिन इसके साथ पाठक का जुड़ाव तब तक संभव नहीं जब तक वह संदर्भों को ठीक-ठीक पकड़ न ले | चूंकि कविता में न तो किसी शहर का हवाला दिया गया है और न ही किसी विशेष घटना का संकेत मिलता है इसलिए यह पाठक के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण करेगा | ऐसी कविताओं के साथ एक दिक्कत यह पेश आती है कि इन्हें अभिधा में ग्रहण किया जाए या इसकी व्यंजना को ग्रहण किया जाए | बहरहाल मदर इंडिया इन दोनों ही संदर्भों में बहुत मार्के की कविता नहीं कही जा सकती | कुछ सवाल कविता में अनुत्तरित ही रहते हैं :
*क्या ये औरतें विक्षिप्त हैं ?
*क्या ये सामान्य औरतें हैं ?
*क्या यह इन औरतों का प्रोटेस्ट का कोई तरीका है (मणिपुर की घटना की तरह) ?
बहुत सारी जिज्ञासाओं के साथ पाठक अंततः अपने अनुभव जगत से ही इस कविता का कोई पाठ तैयार कर सकता है | प्रश्न यह भी है कि कविता का आम शहरी इन औरतों के लिए क्या करता है | क्या इन औरतों पर रोक लगा देने से, इन्हें चौक पर दाग देने से, पुलिस या चकले में दे देने के अलावा भी कोई विकल्प है इस शहरी के पास ? एक आम शहरी का इन औरतों के साथ कैसा संवाद है कविता में ? क्या शर्म करने से आगे भी यह शहरी कभी बढ़ेगा ? तमाम दृश्यों और बिंबों के बावजूद मदर इंडिया अमूर्तन की कविता भी है | अधिक से अधिक यह एक विडम्बना की तरफ इशारा करने से आगे नहीं बढ़ पाती | चर्चित कविता की इन दो औरतों के जीवन को जानने समझने का कोई सूत्र पाठक के हाथ नहीं लगता |

अट्ठाइस साल की उम्र में [2008]
अट्ठाइस साल की उम्र में, मूलतः प्रेम और यौनिकता (सेक्स) के अंतर्द्वंद्व से गुजरते युवा मन की  कविता है |  यह युवा प्रेम की परिणति को दो रानों के बीच केन्द्रित करता है और उसे जस्टिफ़ाई करने के लिए तर्क भी जुटाता हुआ दिखता है | कविता में बोलडनेस के प्रति जबरदस्त पूर्वग्रह दिखाई पड़ता है | अट्ठाइस साल की उम्र वाले कविता के इस नायक को एक सोलह-सत्रह साल के टीन-एजर की तरह देह की मांसलता में डूबते उतराते देखना चकित करता है | कविता का तर्क यह है कि प्रेम करने की सही उम्र अट्ठाइस साल है |  यहाँ पाठक की सहज जिज्ञासा हो सकती है कि प्रेम करने की भी भला कोई खास उम्र होती है ? कौन सा ऐसा प्रेम का पंचांग है कविता लिखने वाले के पास ? वह सही उम्र अठारह क्यों नहीं हो सकती ? या फिर चौबीस क्यों नहीं ? ऐसा क्या है अट्ठाइस की उम्र में ? इस उम्र में तो हिंदुस्तान का युवा बेरोजगारी से जूझता हुआ एक अदद नौकरी की तलाश में अपने जूतों के तल्ले घिस रहा होता है | लेकिन कविता का तर्क है कि अट्ठाइस की उम्र में वह अनुभवी(?) प्रेमी बन चुका होता है ! यह  कविता प्रेम के लिए देह को अपरिहार्य बताती दिखती है और उसे पूरी तरह एक एक यौनिक कार्य-व्यापार साबित करती दिखती है |
कविता में प्रेम की पवित्रता का एक बिम्ब सुर्ख गुलाब के रूप में खड़ा किया जाता है लेकिन यह तथाकथित पवित्रता के बरक्स जानवर भी खड़ा किया जाता है जिसे कविता में अंदर का जानवर कहा गया है | यह  अंदर का जानवर गुलाब की पवित्रता से डरता है | वह प्रेम और पवित्रता जैसे शब्दों से क्षमा याचना करता दिखाई देता है कविता में | यह जानवर रात में बिस्तर पर हिंसक हो उठता है | दिलचस्प यह भी है कि यह अट्ठाइस का युवा अपनी उम्र छुपाते हुए खुद को चौबीस का बता रहा होता है और यौनिकता को अपनी जरूरत के रूप में चिन्हित करता है |
जिस तरह की मनोवैज्ञानिक जमीन इस कविता में तैयार की गई है उसके आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने यौन संबंधी पूर्वाग्रहों की मामले में यह एक एडोलेशेंट (किशोर) मन के अधिक निकट है न कि अट्ठाइस साल के युवा मन के करीब | कविता में प्रेम अपनी सहजता में नहीं उपस्थित है | निस्संदेह यह कविता एक डेलिङ्क्वेंट माइंड (delinquent mind) की कविता है |

स्थगन [2009]
स्थगन कविता एक गर्भवती स्त्री और जेठ की दुपहरी में उसके अधखाए आम को लेकर रची गहन भावबोध की कविता है | कुछ सहज बिंबों को लेकर यह कविता अपनी बात कहती है | जो बात कविता कहती है वह ऐसी कोई बात नहीं है जिसे पहले कहा-सुना न गया हो लेकिन कहने का अंदाज़ कविता को खास बनाता है | जेठ की दुपहरी है, एक गर्भवती स्त्री है और है एक गाछ-पका आम | यह आम किसी सुग्गे ने पहले ही चख रखा है | इस अधखाए आम की मिठास असंदिग्ध है |
स्त्री जब इस आम को अपने दांतों से काटती है तब उसकी जिह्वा से होता हुआ एक आदिम रस गर्भ में स्पंदित शिशु की कोशिकाओं तक उतरता है | यहाँ कविता में एक दृश्य-भंग भी उपस्थित होता है एक वायुयान के रूप में जो स्त्री के माथे के ऊपर से गुजरता है | लेकिन तत्काल उसकी चेतना अधखाए आम पर वापस लौट आती है | जो दृश्य-विधान कविता रचती है उसमें गर्भस्थ शिशु और अधखाए आम का चित्र शिशु चंद्र के मुंह खोलने और तरल चाँदनी के चूने और इनके बीच सुग्गे की चोंच में कंपायमान सृष्टि के रूप में बेहद सुगठित और सुंदर है |

बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं [2010]

कविता भाषा में जगलरी की एक मिसाल भी बन सकती है | कुछ नया कह देने का दबाव यहाँ इतना जबरदस्त है कि कही गई बात का सिरा मुश्किल से पकड़ में आता है | कविता अपनी आरंभिक उठान में ही विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-भाषा से बुरी तरह आक्रांत दिखती है | प्रणय कृष्ण को समर्पित यह कविता किसी जगह के बयान को लेकर है जगह के भीतर और बाहर के रहस्यों पर प्रवचननुमा एक वक्तव्य प्रस्तुत करती है |
बयाननुमा इस कविता में यह समझाने की चेष्टा की गई है कि किसी भी तय परिस्थिति को देखने का नजरिया उस परिस्थिति के भीतर और बाहर रह रहे व्यक्तियों के लिए एक सा नहीं होता | कविता में इसे स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण भी सामने रखे गए हैं | एक जानवर के हवाले से कविता बताती है कि वह किस्से कहानियों में जितना खतरनाक बताया जाता है उतना वास्तव में होता नहीं है | इसी तरह के उदाहरण साँप और हिजड़ों के हवाले से बताई जाती है कविता में | कविता अपने निष्कर्ष में यह भी बताती चलती है कि ,’न होना होता है , न न होना होता है’ | तात्पर्य यह कि चीज़ें वैसी नहीं होती हैं जैसी वे अक्सर दिखती हैं | तो प्रकारांतर से यह वही बात है जिसे दर्शनशास्त्र में माया कहा गया है | यानि असल में दृष्टि ही वस्तु को लेकर पैदा होने वाले भावों को निर्धारित करती है |
कहना चाहिए कि इस कविता में कवित्व जैसी कोई बात ढूँढना दूर की कौड़ी तलाशने जैसा है | अधिक से अधिक इसे उक्ति-वैचित्र्य के रूप में पढ़ा जा सकता है |

अघोषित उलगुलान [2011]
अघोषित उलगुलान आदिवासी जीवन-प्रसंगों की कविता है जिसमें मूल चिंता जंगल के घटते जाने और शहरों के विस्तार को लेकर है | एक नए शब्द (उलगुलान) के अतिरिक्त कविता में नया और मौलिक कुछ विशेष नहीं | यदि है तो दिन-मजूर के रूप में शहर में इमारतों के निर्माण कार्य में लगे आदिवासियों के दुख की बात है | क्या है यह दुख ? दुख है कि जो शिकार करते थे वे खुद शिकार बन जाते हैं | एक काफिला है जो सुबह शहर कि ओर रुख करता है और शाम को वापस लौट आता है | वे जो जहर बुझे तीर से शिकार खेलते थे अब जीवन बचाने के खेल में शामिल होते हैं |
कविता में जंगल के घटते घनत्व के साथ साथ आदिवासियों की घटती संख्या और उनकी टूटती जिजीविषा के भी संदर्भ आते हैं | इनके बीच अभावग्रस्त लोग हैं तो लूट में शामिल लोग भी | कविता की चिंता है कि आरक्षण और धर्मांतरण पर तो फिर भी चर्चा होती है लेकिन आदिवासी की जीवन-स्थितियों पर, जंगलों के कटने पर, पहाड़ों के टूटने पर और नदियों के सूखने पर चर्चा नहीं होती | माफिया कि कुल्हाड़ी से कटते जंगल के बीच कविता बताती है कि आदिवासी लड़ रहे हैं | कविता बताती है कि आदिवासी के पास विकल्प दो ही हैं – एक तरफ कटते जंगल हैं तो दूसरी ओर बढ़ते जंगल हैं |
प्रश्न है कि यदि दो में से किसी एक विकल्प के साथ ही जीने की मजबूरी है तो फिर लड़ाई कहाँ है ? किसी तरह जीते रहना ही क्या लड़ाई कहलाता है ? कविता आदिवासी जीवन की किस लड़ाई के सवाल को उठा रही है | कहना चाहिए कि कविता में आदिवासी जीवन की स्मृतियाँ तो हैं पर उस जीवन का ताप इसमें नहीं है | यह कविता आदिवासी जीवन-संघर्षों का स्वांग अधिक करती है |

कुछ न समझे खुदा करे कोई [2012]
कविता का शीर्षक ग़ालिब के एक मशहूर शेर का टुकड़ा है | शायद यह शीर्षक इस मंशा के साथ चुना गया हो कि जुनून में कुछ भी बक डालने को शायराना अंदाज़ में डिफ़ेंड किया जा सके | यह कविता अगर कुछ है तो यह डायरी में दर्ज बेतरतीब ख़यालों का एक समुच्चय है जो कि दो-चार टुकड़ों के अलावा अपठनीय है | चालीस से कुछ अधिक टुकड़ों में यह जो साहित्यिक प्रयास है वह मूलतः साहित्यिक ध्यानाकर्षण का प्रयास अधिक है | कहता हुआ कि देखो क्या कमाल की चीज़ बनाई है | यह एक ऐसी रेसिपी है जिसमें रसोई के सारे मसाले एक साथ उड़ेल दिए गए हों | हाँ इतना जरूर है कि कुछ टुकड़े दिलचस्प हैं और उन्हें यदि आइसोलेसन में देखा पढ़ा जाए तो कविता कहा जा सकता है | लेकिन अपनी समग्रता में यह एक साहित्यिक कौतुक अधिक है |
कविता के कुल 29 स्वतंत्र भाग है और इनमें भी आखिरी भाग 13 स्वतंत्र उपभागों में विन्यस्त है | कविता के रूप में प्रकाशित इस सिरीज़ के आरंभ में ही सफाई पेश है कि ये अवांगार्द डायरी में दर्ज़ बेतरतीब सतरें हैं | इस तरह अलग अलग सतरों में यहाँ 42 स्वतंत्र कविताओं का एक बड़ा कोलाज खड़ा करने की कोशिश की गई है | ऐसा नहीं है कि दो-चार उल्लेखनीय सतरें यहाँ नहीं हैं | लेकिन एक सिरीज़ के रुप में यह एक फ्लॉप-शो ही कहा जा सकता है | इधर कुछ युवाओं में सबसे लंबी कविता लिख लेने का एक अपूर्व उत्साह हिन्दी में देखा जा सकता है | लंबाई का ऐसा आग्रह सार्थक तभी माना जा सकता है जब पूरी सिरीज़ के अलग अलग टुकड़े किसी एक केंद्रीय भाव अथवा विचार को लेकर चल रहे हों और उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई एक सामान्य तत्व भी कविता में हो |
इस सिरीज़ में कुछ चमत्कारपूर्ण बातें कहने की चेष्टा भी देखने लायक है | मसलन , ‘मेरी मृत्यु किसी और को न मिले, भले मिले मेरे हिस्से का जीवन’ | यह इस सिरीज़ की आरंभिक पंक्ति ही है जिसे अगली पंक्ति में ही कविता स्वयं निरस्त कर देती है जब उसमें आगे कहा जाता है, ‘मेरा जीवन किसी और को न मिले’ | तो यह महत्वाकांक्षी कविता एक बड़े कन्फ़्यूजन के साथ अपनी यात्रा शुरू करती है |
एक अत्यंत छोटी कविता इसी सिरीज़ की महज आठ शब्दों की है – ‘खेत में / पहाड़ हैं / पहाड़ पर / खेत हैं’ | यह जल में कुम्भ , कुम्भ में जल वाला रहस्यवाद नहीं है | इस बुझौवल को क्यों कविता माना जाना चाहिए इसके लिए तर्क जुटाना किसी पुरस्कार समिति के निर्णायक के ही बस की बात हो सकती है |
इसी सिरीज़ की एक कविता में कवि जब गाँव से दिल्ली लौटता है तब उसकी प्रेमिकाओं के पति उसे स्टेशन तक विदा करने आते हैं | ये प्रेमिकाएँ भी कवि के गिरते बालों पर देर तक हँसती दिखाई देती हैं | यह हिन्दी के किसी भी औसत कस्बे के हर दूसरे नौजवान के भीतर का कॉम्प्लेक्स है जिसमें उसकी दस-बीस प्रेमिकाओं का होना अनिवार्य है | और मजा यह कि कवि दिल्ली लौटते हुए अपनी प्रेमिकाओं के पतियों को ईमेल पर सीवी भेजने को कहते हुए उन्हें नौकरी दिलाने के लिए भी आश्वस्त करता दिखाता है | ध्यान दिया जाना चाहिए कि ये कवि के साथ पले बढ़े उसके साथी नहीं हैं बल्कि उसकी प्रेमिकाओं के पति हैं |
एक कविता में यह पंक्ति आती है –‘ घासफूल की तरह घासफूल खिला’ | यह विनोद कुमार शुक्ल की अपनी सील-मुहर वाली भाषा है यह हिन्दी कविता का सामान्य पाठक भी अब जानता है | आखिरी अर्थात 29वें टुकड़े की कविताओं में कुछ शेरो-शायरी भी की है कवि ने | इनमें कुछ टुकड़े ऐसे जरूर हैं जिनपर दाद दी जा सकती है | पर समग्रता में यह एक कमजोर कविता-सिरीज़ है |

कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं [2013]
यह कविता अपने समय की एक घिसी-पिटी कमेंटरी है जिसमें बार-बार एक ही बात समझाई जाती है कि कुछ भी मत पूछो, मत बोलो, वरना मारे जाओगे | कुछ भी पूछने बोलने के खतरे हैं | कविता का निष्कर्ष यह कि द्विअर्थी संवाद ही सुरक्षित संवाद है क्योंकि इससे भ्रांति और भ्रम रचे जा सकते हैं | जब कविता कहती है कि कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं तब उससे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह आसन्न खतरों की भी शिनाख्त करे | यह कविता इन खतरों को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं है | न्याय और स्वतन्त्रता पर छाए संकट की तरफ एक इशारा अवश्य है पर क्या यह वही खतरा है जिसके बारे में कविता सचेत करती दिखती है |
इन खतरों पर हिन्दी में बहुत सी उल्लेखनीय कविताएं हैं | दुष्यंत कुमार का वह मशहूर शेर किसे नहीं याद होगा कि , बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार | बहरहाल इस चर्चित कविता में हम पाते हैं कि देखने की हर दूसरी कोशिश आत्महत्या को सुनहरा आमंत्रण है | चर्चित कविता में आत्महत्या का आमंत्रण तो सुनहरा है पर आत्महत्या का प्रयास बहुत बड़ा पाप भी है (भारतीय दंड संहिता में भी आत्महत्या अपराध है) | कवि की अपनी उपलब्धि यह है कि आत्महत्या कितना बड़ा पाप है यह सबको नहीं पता | इसके आगे कवि का निष्कर्ष यह कि, ‘कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ टूटे-फूटे शब्दों में जरूर बता सकते हैं शायद’ – इस पंक्ति पर ध्यान दिया जाना चाहिए | 'जरूर बता सकते हैं' कहने के बाद भी कवि का संशय बना रहता है लिहाजा वह 'शायद' जोड़ देता है | यह संशय कविता को संदिग्ध बनाने के लिए काफी है | बुनकर और विदर्भ के प्रसंग कविता को प्रासंगिक बनाने के लिए जोड़े गए मालूम होते हैं | ऐसा इसलिए कि बुनकरों और किसानों की त्रासदी पूरी कविता में नदारद है |
कविता में जिक्र क्रिकेट में मैच फिक्सिंग और सटोरियों का भी है | एक चमत्कारपूर्ण उक्ति उछालते हुए कविता इस नतीजे पर पहुँचती है कि सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्विअर्थी हों और भ्रांतिमूलक हों | तो कविता दरअसल अपने शीर्षक में ही निचुड़ चुकी होती है इसलिए पाठक इसमें कोई नई और मौलिक बात नहीं पाता | खतरा-खतरा कहते हुए भी कविता खतरे को खोलने में व्यर्थ है उससे निबटने के उपाय तो बहुत दूर की बातें हैं |

विध्वंश की शताब्दी [2014]
एक वेल-क्राफ़्टेड कविता होने के बावजूद यह एक उपदेशात्मक आख्यान है जो अपने केंद्र में सभ्यता विमर्श को रखते हुए भी कोई विशिष्ट छाप नहीं छोड़ पाती | कविता कुछ मान्यताओं की धुरी पर टिकी हुई आगे बढ़ती है | पूरी की पूरी कविता इन सूत्र वाक्यों के इर्द-गिर्द बुनी गई है :
*शुरू में कुछ नहीं था फिर हिंसा आई
*हिंसा के बाद मशीन आई
*मशीन के बाद शक्ति आई
*शक्ति के बाद आती है क्रान्ति
*क्रान्ति के बाद आता है संदेह
*यह नया पागलपन है क्योंकि बाकी सारे पागलपन अब आदर्श हो गए हैं
*जो नहीं मिल सकता वह पाने योग्य नहीं है
इन दार्शनिक सूत्रों के बीच गूँथी गई यह कविता अपने को पढ़वा ले जाती है तो इसका श्रेय इसकी भाषा को दिया जाना चाहिए | सुगठित भाषा भी उलझे हुए कथ्य का निर्वाह नहीं कर पाती यह उपलब्धि भी कविता से गुजरने के बाद होती है | कम शब्दों में कहा जाए तो कविता में कोहेसिवनेस की कमी है अन्यथा यह कविता अच्छी बन सकती थी |

पोएट्री मैनेजमेंट [2016]
एक असंभव सी हाइपोथेसिस है यह कविता जिसमें पर्याप्त कॉमिक एलीमेंट्स मौजूद हैं | कविता इस स्टेटमेंट के साथ शुरू होती है कि यह एक फालतू-सा काम है | इसके बाद एक ट्विस्ट कि यदि कविता में भी मैनेजमेंट की डिग्री होती तो वह जिंदगी में कोई निर्णायक बदलाव ला पाती | तब क्या-क्या हो सकता था इस कल्पना में कविता आगे खुलती है | कविता ड्रीम सीक्वेंस की तरह खुलती है | इस ड्रीम सीक्वेंस में कविता वह सब करने में सक्षम है जो वह अमूमन नहीं कर पाती | वह जीवन के हर छोटे-बड़े पहलू को छूती है और उसे प्रभावित भी करती है | और जैसा कि होता है यह ड्रीम सीक्वेंस एक ऊंचाई पर जाकर टूटता है | जब यह ड्रीम सीक्वेंस टूटता है तब कविता का पाठक यह पाता है कि कवि एक थर्ड डिवीजन एमए से मुखातिब है जो कि प्रूफ रीडिंग का काम करता है | कविता अपने आदि-अंत में नहीं बल्कि मध्य भाग में इस प्रूफ रीडर को एक सहज उत्तेजना से भर देती है और वह यह सोच कर रोमांच से भर उठता है कि वह हठात एक महत्वपूर्ण आदमी बन गया है और लोग उसके ऑटोग्राफ ले रहे हैं | कविता एमबीए के तर्ज पर एमपीए की परिकल्पना लेकर आती है | गली मोहल्ले की चालू जुबान में यह कविता थोड़ी देर के लिए गुदगुदा तो सकती है लेकिन पाठक के मन मस्तिष्क पर इसका कोई स्थायी असर संदिग्ध है |
पोएट्री मैनेजमेंट कविता में एक मूलभूत अवधारणा यह है कि एमबीए की डिग्री में बड़ी ताक़त है | और कवि का पूर्वाग्रह यह भी है कि एमबीए टाइप का कोई जुगाड़ लग जाए तो एक कविता के लिखे जाने से सेंसेक्स भी गिर सकता है | अव्वल तो यह कि एमबीए अपने आप में इतनी कमाल की डिग्री है नहीं और अगर इसमें थोड़ी बहुत संभावना है तो यह कि डिग्रीधारक किसी ठीक-ठाक कंपनी में मोटी तनख्वाह पर एक नौकरी पा जाएगा | पर किसी भी जुगाड़ से एमबीए की डिग्री में सेंसेक्स को गिराने या उछालने की काबिलियत नहीं हुआ करती | बाजार और अर्थनीति के तमाम जटिल सिद्धांत फेल हो जाएंगे यदि एक अदद एमबीए से सेंसेक्स गिरने लग जाएगा | दूसरी बात यह कि एमबीए की तर्ज़ पर कविता में एक एमपीए की प्रस्तावना को पेश किया है कवि ने | हालांकि यह एमपीए ठीक-ठीक डिकोड नहीं किया गया है कविता में लिहाजा पाठक इसे अपने तरीके से डिकोड करने के लिए स्वतंत्र है | कविता बहुत कुछ आज़ाद ख़याल की तरह एमपीए के तमाम कारनामों को तफसील से बयान करती है | बहरहाल यहाँ जो एक लफ्ज चीजों को समझने की कुंजी बन सकता है वह है, मैनेजमेंट यानि प्रबंधन |
यहाँ एक बात साफ हो जानी चाहिए कि जो ताक़तें बाजार को और अर्थनीति को और इस तरह सेंसेक्स को नियंत्रित और परिचालित करती हैं वे आवश्यक रूप से एमबीए नहीं होतीं | शेयर बाजार का नया से नया खिलाड़ी भी यह मानेगा कि सेंसेक्स के उतार चढ़ाव में एमबीए टाइप डिग्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं बनती | एमबीए व्यवसाय प्रबंधन का मामला है और उसका मूल उद्योग अपने मालिक के लिए मुनाफा कमाना होता है | यहाँ शेयर बाजार के नियमों और व्यवसाय प्रबंधन के कायदों पर चर्चा का बहुत अवकाश नहीं है | तो पोएट्री मैनेजमेंट को समझने का जो अन्यतम टूल है वह भी कविता में ही मिल जाता है और वह टूल है, जुगाड़ या तिकड़म यानि जोड़-तोड़ | यह जुगाड़ किसी भी एमबीए से प्राचीन युक्ति है | कौन जानता है पोएट्री मैनेजमेंट कविता के हठात चर्चा में आने के पीछे कोई जुगाड़ है या नहीं | पोएट्री मैनेजमेंट एक बेहद औसत कविता है, अपनी भाषा में भी और अपने कथ्य में भी | इस कविता ने पोएट्री के कारण कम, मैनेजमेंट के कारण लोगों का ध्यान अधिक खींचा | इस कविता को लेकर शायद पहली बार मैनेजमेंट गुरुओं ने पाठक की समझ पर सवाल खड़े किए | पोएट्री मैनेजमेंट का अंग्रेजी और उर्दू तर्जुमा जारी हुआ और कहा गया कि हिन्दी कविता में व्यापक तोड़फोड़ करने वाली यह कविता जो पसंद नहीं कर सकता वह पाठक ही मूर्ख है | यहाँ तक कि पाठकों की नापसंदगी को मैनेजमेंट गुरुओं ने दादुर-कलरव कह कर उनका उपहास किया |
पुनश्च :
अब जबकि दस साल की कविताओं की चर्चा ऊपर की जा चुकी है तब सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कविताएँ अपने समय का प्रतिनिधि स्वर हैं ? क्या इन कविताओं में किसी भी परिप्रेक्ष्य में अपने युग की जटिलताओं और जलते हुए सवालों पर कोई महत्व की बात दर्ज़ मिलती है ? क्या ये कविताएँ अपने समय की श्रेष्ठ कविताएँ हैं ? क्या इनमें से कोई कविता हिन्दी कविता की लंबी परंपरा में भाषा या कथ्य के स्तर पर नया कुछ जोड़ने में कामयाब हुई दिखती है ? क्या ये कविताएँ अपने समय को संबोधित करती हैं ?
जिन दिनों बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाएँ घट रही हैं उन्हीं दिनों बंगाल की जमीन से अट्ठाईस की उम्र में देह और यौनिकता में भटकती हुई कविता लिखी जाती है और उसे पुरस्कार के लिए चुना जाता है | बीता एक दशक कई कारणों से उल्लेखनीय रहा है | तीन दशकों से भी अधिक समय तक बंगाल की सत्ता में रहने वाली वाम राजनीति का पराभव इसी दौर में होता है | राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथी राजनीति का उभार इसी दौर में होता है | किसानों की आत्महत्याएँ इसी दौर में होती हैं | आदिवासियों से उनकी जमीन इसी दौर में छीनी जाती है | संगठित क्षेत्र में मजदूरों और कर्मचारियों की छंटनी इसी दौर में होती है | भ्रष्टाचार जैस मुद्दे पर प्रभावी आंदोलन इसी दौर में खड़ा होता है | निजीकरण और बेसरकारीकरण के भयावह परिणाम इसी दौर में प्रकट होते हैं | स्त्री सुरक्षा के सवाल इसी दौर में प्रखर हो उठते हैं |
युवा कविता को रेखांकित करने का एक उद्देश्य अपने समय की रचनाशीलता की समस्त संभावनाओं को एक्सप्लोर करना भी होता है | हमें यह बात स्मरण रखनी होगी कि एक कविता को पुरस्कार के लिए चुनने के पीछे उसके चयनकर्ता की व्यक्तिगत रुचि, उसका बोध, उसकी प्राथमिकताएँ आदि कारक काम करते हैं | चूंकि उनका चयन ही अंतिम होता है इसलिए चयन-प्रक्रिया पर हम यहाँ कोई कमेन्ट नहीं करेंगे | लेकिन इन कविताओं पर सवाल करने का अधिकार एक पाठक के रूप में हमें जरूर है | हम यह जरूर पूछ सकते हैं कि इन कविताओं में कौन सी संभावनाएँ देखी गई थी और आगे जाकर उन संभावनाओं का क्या हुआ | एक स्थगन कविता को छोड़कर कोई भी कविता जो इन दस सालों में पुरस्कृत की गई वह हिन्दी के पाठक समाज में अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाने में व्यर्थ ही साबित होती है |

[पाठकों की सुविधा के लिए, इन दस वर्षों की कविताओं उनके कवियों की एक क्रमवार संदर्भ-सूची निम्न प्रकार है : मदर इंडिया - गीत चतुर्वेदी (2007), अट्ठाईस साल की उम्र में - निशांत (2008), स्थगन - मनोज झा (2009), बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं - व्योमेश शुक्ल (2010), अघोषित उलगुलान - अनुज लुगुन (2011), कुछ न समझे खुदा करे कोई - कुमार अनुपम (2012), कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं - प्रांजल धर (2013), विध्वंश की शताब्दी - आस्तिक वाजपेयी (2014), कोई कविता योग्य नहीं पाई गई - 2015, पोएट्री मैनेजमेंट - शुभम श्री (2016)]
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यात्रा-12 (संपादक : गणेश पाण्डेय) में प्रकाशित