Thursday, August 20, 2020

आत्मालोचन का कवि त्रिलोचन



आत्मालोचन एक ऐसा इलाका है जहाँ कवि का अंदर-बाहर लगभग एकाकार हो जाता है | ऐसे क्षणों में कवि को उसकी गढ़ी गई छवियों से मुक्ति मिलती है | उसके व्यक्तित्व के नए आयाम भी यहीं से खुलते हुए दिखाई देने लगते हैं | त्रिलोचन एक ऐसे कवि के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं जिसके यहाँ आत्मविश्लेषणपरक कविताओं का बाहुल्य है | पता नहीं त्रिलोचन की ऐसी कविताओं पर अलग से कहीं चर्चा हुई है या नहीं किन्तु यहाँ ऐसा ही एक प्रयास हम अवश्य करने जा रहे हैं | 

1.

सबसे पहले जो कविता ध्यान खींचती है वह त्रिलोचन की बहुचर्चित कविता है – ‘प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट नकली है’ | ऊपर-ऊपर कविता का लहजा भले ही शिकायती दिखाई देता हो लेकिन वास्तव में इसमें एक गहन आत्मालोचन भी साथ-साथ देखा जा सकता है | इसी कविता में वे अपने आलोचकों को लगभग चुनौती की भंगिमा में कहते हैं – ‘तुम्हीं एक हो क्या अन्यत्र विवेक नहीं है’ ! यह जो विवेक का प्रश्न है वह कवि की आत्मसजगता से जुड़ा हुआ विषय है | 

प्रगतिशीलता एक मूल्य है | वह विचारधारा से पहले एक मूल्य है | दुर्भाग्य से हिंदी के साहित्यिक परिसर में प्रगतिशीलता का एक संकुचित अर्थ भी लिया जाता रहा है और वह है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लेखक संगठन अर्थात प्रगतिशील लेखक संघ के प्रति निष्ठावान होना अथवा माना जाना | एक समय में यह एक साहित्यिक आन्दोलन के रूप में भी देखा और जाना गया | त्रिलोचन जिस समय की बात कविता में उठा रहे हैं वह एक ऐसा समय है की जहाँ प्रगतिशील धारा की कविता के प्रतिनिधि कवियों के नामों की सूची बन रही है | प्रगतिशील कवियों की यह ‘नई लिस्ट’ है | इससे ध्वनित यह भी होता है कि यह लिस्ट समयानुसार अपडेट भी की जाती रही होगी | कुछ नाम इस लिस्ट में जोड़े जाते रहे होंगे तो कुछ अन्य काटे भी जाते रहे होंगे |

लिस्ट से बाहर किया गया कवि सहज ही इस लिस्ट पर यकीन नहीं कर पाता | वह ‘आँखें फाड़-फाड़ कर’ लिस्ट को देखता है और इस बात को लेकर आश्वस्त भी है कि ‘दोष नहीं था पर आँखों का’ | वह शंका निवारण हेतु शुद्धिपत्र को भी देख लेता है और अंततः पाता है कि उसका इस लिस्ट में कहीं भी उल्लेख नहीं है | यह कवि का अपने ऊपर विश्वास ही है जो उससे कहलवा ले जाता है कि प्रगतिशील कवियों की वह लिस्ट झूठी है जिसमें त्रिलोचन का नाम नहीं है | दो बातें यहाँ ध्यान देने की हैं – एक यह कि ‘सुन सुन कर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे’ और दूसरी बात यह कि ‘पहले से देख रहा हूँ किसी जगह उल्लेख नहीं है’ ! त्रिलोचन यहाँ सांगठनिक राजनीति की छुद्रताओं को भी खोल कर रख देते हैं | 

2.

त्रिलोचन की एक अल्प-चर्चित कविता है –‘जीवन का एक लघु प्रसंग’ | इस कविता को देखा जाना इसलिए जरुरी है कि इसके माध्यम से ही हम यह जान पाते हैं कि इस कवि का तो जीवन ही ‘विद्या को दान कर दिया’ गया है ! जीवन का यह लघु प्रसंग कवि के बालपन से जुड़ा है | बहुत कम आयु है कवि की | उसे अभी अक्षर ज्ञान ही हुआ है | यह उसके स्कूल जाने के दिन हैं | दर्जे में सबने नई किताबें ले ली हैं | इस बच्चे को पैसे नहीं मिले हैं किताबें खरीदने के लिए | वह अपनी बुआ से पैसे की माँग कर रहा है | ऐसे में माँ का प्रवेश होता है | माँ लड़के को पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं | कोमल मन का यह शिशु बुआ और माँ की आपस की बात छुप कर सुन रहा है | माँ किसी संस्कारजन्य धारणावश यह मानती है कि ‘पढ़ना हमारे नहीं सहता’ | इस मान्यता के पीछे कुछ कुसंस्कार ही हैं दरअसल | माँ के अपने अनुभव में जो बात है वह यह कि ‘पढ़ लिख कर ही आखिर फलाने विक्षिप्त हुए’ और ‘पढ़ते लिखते ही तीन-चार जने मर गए’ | तो ऐसे में बुआ किसी तारणहार की तरह दिखाई देती है | वह माँ के तर्क से ही माँ को परास्त करती है | अर्थात संस्कार के ही काँटे से कुसंस्कार का प्रतिकार | बुआ माँ को यह कह कर निरुत्तर कर देती है कि इस बच्चे को तो ‘श्रद्धा से, प्रेम से, निष्ठा से विद्या को दान कर दिया है’ और यह कि ‘विद्या माता ही अब इसको निरखें-परखें, रक्षा और पालन-पोषण करें’ ! 

तो यहाँ जो बात उभर कर सामने आती है वह कवि के जीवन का एक नितांत निजी और गोपन क्षेत्र है लेकिन यह भी कविता में दर्ज है | ‘विद्या को दान’ किया हुआ वह शिशु ही कालांतर में हिंदी का बड़ा कवि त्रिलोचन बनता है |  

3.

त्रिलोचन एक ऐसे कवि के रूप में सामने आते हैं जिसे ‘सुख दुःख एक भी अकेले सहा नहीं जाता’ | अपनी एक कविता, ‘आज मैं अकेला हूँ’ में त्रिलोचन स्पष्ट कहते हैं कि जीवन जैसा भी मिला है ‘मोल तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता’ | यह कवि का जीवन-बोध है जो अकेलेपन के खिलाफ मुखर है | यह कविता विशेष रूप से मनुष्य के अकेले होते जाने के दौर में एक नई प्रासंगिकता अर्जित करती है | इस दुनिया में जहाँ सबकुछ ग्लोबल होता जा रहा है वहाँ निशाने पर सबसे पहले मनुष्य की सामाजिकता ही है | यह कवि सुख दुःख दोनों स्थितियों में ही साझेपन की बात करता है | सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस साझेपन के लिए किस स्तर की उदारता मनुष्य में वांछित हुआ करती है | 

4.

त्रिलोचन ने कुछ ग़ज़लें भी लिखी हैं | ये ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल के पाट को और चौड़ा करती हैं | इनमें कहन का वही परिचित त्रिलोचनी-अंदाज़ देखा जा सकता है | विदग्धता और गहन जीवनानुभव त्रिलोचन की कविता की अपनी खासियत है जो उनके ग़ज़लों में भी अपनी छाप के साथ मौजूद है | ऐसी ही अपनी एक ग़ज़ल , ‘कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था’ में त्रिलोचन उस्तादों पर तंज कसते हुए कहते हैं ‘मारे मारे फिरते हैं उस्ताद अब तो देख लो’ ! यहाँ प्रकारांतर से उस्तादों की पात्रता पर ही प्रश्न उठाते हैं त्रिलोचन | किनको उस्ताद होना चाहिए और कौन उस्ताद बना बैठा है ! 

एक उस्ताद अगर मारा मारा फिरता है तो इसका एक प्रकट कारण यह हो सकता है कि उस्ताद का उसका दर्जा उसपर आरोपित कर दिया गया है और शागिर्दों के बीच इस आरोपित उस्ताद की वैसी पूछ नहीं रह गई है | हम अपने अनुभव से इस मौजूदा दौर में भी देख ही रहे हैं कि किस तरह सत्ता के साथ सटने वाले और जोड़-तोड़ कर अकादमियों और संस्थानों पर काबिज लोग आये दिन नये नये उस्ताद अदब की दुनिया में पैराशूट से उतारते रहते हैं | लेकिन सच पूछा जाए तो ऐसे उस्तादों की नियति है मारे मारे फिरना क्योंकि इल्म उनमें अपने दौर के शागिर्दों से भी कमतर हुआ करता है या फिर उनसे कहीं बेहतर उस्ताद चुपचाप अपना काम कर रहे होते हैं | ऐसा लगता है कि ऐसे उस्तादों का होना कम से कम हिंदी में एक सार्वकालिक सत्य ही रहा आया है | 

त्रिलोचन आगे कहते हैं कि ‘मर्म जो समझे कहे पहले वही उस्ताद था’ ! तो एक तरह से उस्ताद के अन्दर जिस एक बात का होना त्रिलोचन आवश्यक मानते हैं वह यह कि वह मर्म को समझे और मर्म को ही कहे | मर्म जो दिल में उतर जाए | मर्म को कहने सुनने वाला अगर वह नहीं है तो वह उस्ताद होकर भी मारा मारा ही फिरेगा इसमें कोई दो राय नहीं | 

त्रिलोचन मर्म को कहने और सुनने वाले कवि हैं | तभी तो अपनी इसी ग़ज़ल में वे कहते हैं – अपनी चर्चा से शुरू करते हैं अब तो बात सब , और पहले यह विषय आया तो सबसे बाद था’ ! अर्थात कवि वह जो जग की बात कहे | उसका स्वान्तःसुखाय जबतक बहुजनहिताय नहीं बन जाता तब तक वह सार्थक नहीं है | स्व का विसर्जन और बहुजन के साथ स्व का विलय ही कविता का अभीष्ट है या होना चाहिए | 

5.

जीवन की शराब पीने की बात त्रिलोचन अपनी एक कविता में उठाते हैं | यह जीवन की शराब क्या है इसे जानने समझने के लिए कवि के दर्शन को समझना होगा | शराब के बनने की प्रक्रिया को जानना समझना होगा | जीवन की शराब ! 

हम जानते हैं कि शराब बनाने के लिए प्रकृति प्रदत्त कुछ चीज़ों को सड़ना होता है, नष्ट होना होता है | वैज्ञानिक शब्दावली में यह प्रक्रिया ‘फरमेंटेशन’ कहलाती है जिसके बाद एक जटिल विधि के द्वारा शराब छानी जाती है | इस छाने जाने की विधि को ‘डिस्टिलेशन’ कहते हैं | तात्पर्य यह कि जीवन को भी फरमेंटेशन और डिस्टिलेशन की प्रक्रियाओं से गुजारने के बाद ही तो जीवन की शराब छानी जा सकती है | 

जीवन रूपी द्रव्य की शराब, स्वाभाविक है कि जीवन के ही उपादानों के शोधन से निकाली जाएगी | बहुत बड़ी कीमत है यह जीवन के शराब को छककर पीने वाले के लिए | वह इतना सांसारिक है कि जीवन में ही धँसा हुआ है | वह इतना निर्लिप्त है कि जीवन से ही निस्पृह भी है | त्रिलोचन जीवन की शराब पीने की बात क्यों करते हैं ? क्या पाना चाहते हैं वे ? इसका जवाब देते हुए कवि कहता है –‘मैं इस जीवन की शराब को पीते पीते वर्षों का पथ क्षण की छोटी सी सीमा में तय करता चुपचाप आ रहा हूँ’ ! 

यह ‘वर्षों का पथ’ जो है वह ज्ञानार्जन की आनुष्ठानिक प्रक्रिया का पथ है | इसमें मनुष्य की स्कूलिंग शामिल है | तमाम पोथीजन्य ज्ञान संचय की विधियाँ समाहित हैं इसमें | यह वह पथ है जिसपर कि कबीर के शब्दों में ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय’ | यह ज्ञान क्षण भर की सीमा में अर्जित कर लेना संभव है यदि जीवनानुभव के आँच में तपने का कठिन मार्ग साध लिया जाए | इस पथ पर कवि को ‘अनजाने और अपरिचित चेहरे अपने जैसे जीते जीर्ण-शीर्ण मिलते हैं’ वह उनका हाथ थामे इसी पथ पर आगे बढ़ता है | वह उन्हें ‘जीवन के मधुमय गाने’ देता है | जीवन की इस शराब के लिए कवि के मन और प्राण में एक ‘संचित सोद्वेग चाह’ है | 

6.

अपने आप पर जो हँस सकता है वही सच्चा साधक है जीवन का | त्रिलोचन का कवि जो है वह व्यक्ति त्रिलोचन पर हँसना भी जानता है | त्रिलोचन की एक सुपरिचित ग़ज़ल है –‘बिस्तरा है न चारपाई है’ | इस ग़ज़ल का पहला ही शेर है –‘ बिस्तरा है न चारपाई है , ज़िन्दगी ख़ूब हमने पाई है’ ! यह शिकवा नहीं है अपनी ज़िन्दगी से | यह उस मस्ती का स्वर है जो ‘जीवन की शराब’ पीने से हासिल होता है | यह वही कबीराना फक्कड़पन है जो काशी-इलाहबाद की अपनी गमक वाले त्रिलोचन की कविताओं का अपना खास चेहरा निर्मित करता है | 

यह फक्कड़पन जीवन में यूँ ही नहीं आ जाता | इसे कमाना होता है | कठिन पथ है यह जीवन का जिसपर चलने के बाद जीने की यह अदा आ पाती है | यह विदग्धता अनायास ही नहीं चली आई है त्रिलोचन के काव्य में | त्रिलोचन का कहा यह शेर इस सन्दर्भ में ध्य्नाकर्षण की माँग रखता है –‘ठोकरें दर-ब-दर की थीं हम थे, कम नहीं हमने मुँह की खाई है’ ! 

7.

त्रिलोचन की जिन कविताओं में आत्मालोचन को रेखांकित किया जा सकता है उनमें विशिष्ट स्थान रखती हुई कविता है –‘भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ | यह एक अद्भुत रचना है त्रिलोचन की मेरी दृष्टि में जो यह समझ देती है कि खुद की निर्मम आलोचना क्या होती है और अपनी अंतरात्मा से जिरह कैसे की जाती है | 

सॉनेट के फॉर्म में लिखी इस कविता में एक दिन त्रिलोचन (कवि) देखते हैं की जो त्रिलोचन (व्यक्ति) इतना फौलादी चरित्र वाला है वह भीख माँग कर जीवन गुजार रहा है | कवि को ठेस लगती है यह देखकर | प्रश्न है कि भिक्षा से क्या मिलता है | प्रश्न है कि क्या इसको आप अच्छा समझते हैं | इस प्रश्न के उत्तर में त्रिलोचन बताते हैं कि इससे जीवन मिलता है | वे बताते हैं जीवन में कितना कुछ तो हम ऐसा करते ही हैं जो हम अच्छा नहीं समझते | और खाली पेट कोई काम भी तो नहीं हो सकता | यह उत्तर कवि को निराश करता है | उसे त्रिलोचन से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी | लेकिन तब यह बात सामने आती है कि चुपचाप मरने से बेहतर है खाली पेट को भर किसी काम में लगा जाए | त्रिलोचन लिखते हैं कि तब ‘स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह मनुष्य था इतने पर भी नहीं मरा था’ ! 

कवि की उक्ति को हम भीख माँगने के पक्ष में लेने की भूल न करें | यहाँ हम उस ‘काम’ के प्रति कवि की निष्ठा और उसके समर्पण को देखेंगे जिसके लिए जरूरत पड़ने पर भीख माँग कर भी उसे पूरा करने में उसे किसी किस्म की हिचक नहीं है | 

8.

त्रिलोचन की विख्यात रचना है – ‘उस जनपद का कवि हूँ’ | कवि का यह जनपद ‘भूखा दूखा है, अनजान है, कला नहीं जानता कैसी होती है क्या है, वह नहीं जानता कविता कुछ भी दे सकती है’ ! अपने जन के बारे में इतनी स्पष्ट समझ हिंदी के कम कवियों में नज़र आती है | वे तो जनता को सीधे क्रान्ति की गोली की तरह कविता का प्रेस्क्रिप्शन लिख देते हैं | लेकिन त्रिलोचन अपने जन को लेकर किसी भी किस्म के मुगालते में नहीं हैं | वे खूब जानते हैं कि यह जनपद तो ‘दुनिया को सपने से अलग नहीं मानता’ है | वह तो इतना भी नहीं जनता कि जिन विचारों को वह ढोता आ रहा है अब अब समाज में रह ही नहीं गए हैं | ऐसे में कवि कर्म एक चुनौती भरा मामला साबित होता है और त्रिलोचन इस चुनौती को बखूबी जानते समझते हैं | 

‘चीर भरा पाजामा’ कविता में त्रिलोचन की यह काव्य-पंक्ति उनके आत्म-वक्तव्य की तरह देखी जानी चाहिए जिसमें वे कहते हैं –‘दीनता देह से लिपटी है, मन तो अदीन है’ ! बार बार अपनी कविता में वे स्वयं को संबोधित करते हुए भी अपने युग को संबोधित कर रहे होते हैं | इसी कविता में एक जगह त्रिलोचन कहते हैं –‘यही त्रिलोचन है, सब में, अलगाया भी, प्रिय है आलोचन’ ! यह त्रिलोचन का अपना अंदाज़ है कि वे एक साथ सब में भी रहते हैं और सबमें रहते हुए भी अलगाये रहते हैं | ‘प्रिय है आलोचन’ महज एक कथन नहीं बल्कि एक जीवन-व्यवहार है त्रिलोचन के काव्य में | 

त्रिलोचन की एक कविता का शीर्षक ही है –‘वही त्रिलोचन है’ | इस कविता में एक पंक्ति आती है –‘कौन बताए, क्या हलचल है इस के रुँधे रुँधाए जी में, कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे’ | जी रुँधा हुआ है लेकिन चाल वही है | तात्पर्य यह कि भीतर कहीं न कहीं ऐसा कुछ घटित हो रहा है जो कवि के लिए पीड़ादायक है तथापि कवि का स्वाभाविक कर्म इससे अप्रभावित ही रहता है | त्रिलोचन खुद को राह चलते हुए इस तरह देखते हैं कि जैसे कोई कैमरा किसी ऑब्जेक्ट का पीछा कर रहा हो –‘चलना तो देखो इसका, उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें, सधे कदम, तेज़ी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें मनो डर से सिकुड़ रही हैं’ ! और कवि का यह तेवर तब है जबकि ‘कपड़े भी कैसे, फटे लटे हैं, यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं, कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे पर अवलम्बित है’ | त्रिलोचन अपने कवि को एक सिनेमैटोग्राफर की नजर से भी देखते हैं | और एक तटस्थ आलोचक की तरह भी | 

9.

‘आत्मालोचन’ शीर्षक अपनी एक कविता में त्रिलोचन एक नए तरह की संज्ञा से हमें मिलवाते हैं –‘मेरे अंतरनिवासी’ ! सम्भवतः यह कवि का आत्मविवेक है जो उसे प्रेरित और परिचालित करता है | त्रिलोचन इस कविता में एक बुनियादी सवाल से टकराते हैं | सवाल यह कि आखिर क्यों लिखा जाए ? बहुत बड़ा सवाल है यह जिससे हर कवि को टकराना ही पड़ता है | लेकिन त्रिलोचन का यह अंतरनिवासी जो बात कहता है उसके पीछे एक ठोस विचार-पद्धति काम कर रही है | वे लिखते हैं –‘मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा – लिखा कर, तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाय’ | तो एक बात यहाँ अवश्य कही जा सकती है कि कवि त्रिलोचन का अभीष्ट सत्य शिव सुन्दर को एक साथ साधना है | यह एक कठिन साधना है | और इस साधना के निमित्त कवि का जो अपना प्रयास है वह बेहद ईमानदार उक्ति के साथ कविता में भी दर्ज होता है –‘अब मैं लिखा करता हूँ, अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने, कागज़ पर बस उतार देता हूँ’ ! 

अन्तर की अनुभूति को ‘बिना रँगे चुने’ कागज पर उतारने का मतलब क्या होता है और कितनी गहरी ईमानदारी की माँग करता है इसे अलग से कहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती जब आप त्रिलोचन को पढ़ते हैं | 

त्रिलोचन के यहाँ शब्द ध्वनि में रूपांतरित होते हुए एक जादुई प्रभाव पैदा करते हैं | अगर आप ‘भाषा की लहरें’ कविता को देखें तो आप पायेंगे कि –‘सबकुछ पाया शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनिरूप हो गया’ ! भाषा इस कवि के लिए वह टूल है कि जिससे वह मानव-हृदय को छू पाता है | यहाँ एक ठेठ अवधी पद आता है ‘टो गया’ –‘ सबकुछ सबकुछ सबकुछ सबकुछ सबकुछ भाषा, भाषा की अंगुलि से मानव ह्रदय टो गया, कवि मानव का, जगा गया नूतन अभिलाषा’ | भाषा के प्रति बेहद सजग कुछ कवियों में हम त्रिलोचन को गिन सकते हैं | एक छोटी काव्य-पंक्ति में चार बार ‘सबकुछ’ की यह आवृत्ति निष्प्रयोजन तो नहीं हो सकती | भाषा कवि के यहाँ कविता का प्रधान उपकरण है | मुद्राएँ, चेष्टाएँ, भाव, वेग ये सारे उपादान यहाँ उतने महत्व के नहीं रह जाते | 

10.

त्रिलोचन की कविता का जादू यही है कि यहाँ शब्द ध्वनियों में रूपांतरित होते हैं | कैसे होता है यह सब इसे समझने के लिए हमें त्रिलोचन की ‘ध्वनिग्राहक’ कविता को देखना होगा | कविता का यह जादूगर अपने जादू को जादू भी कहाँ रहने देता है , वह तो इस जादू को भी सबके लिए सूत्र रूप में कविता के भीतर ही छोड़ जाता है | त्रिलोचन कहते हैं –‘ध्वनिग्राहक हूँ मैं, समाज में उठने वाली ध्वनियाँ पकड़ लिया करता हूँ’ ! 

समाज में उठने वाली ध्वनियाँ ! एक चौकन्ना कवि ही ऐसी बातें लिख और बोल सकता है | त्रिलोचन की काव्य साधना की एक सिद्धि यह भी है जो उन्हें विशिष्ट कवियों में स्थान दिलाती है | त्रिलोचन जैसा कवि अगर प्रगतिशील कवियों की किसी नई लिस्ट से कभी बाहर रहा तो यह उस प्रगतिशीलता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है | अपने आप से जिरह करता हुआ समाज से मुखातिब इस अंदाज़ का कवि कभी-कभी ही आता है और भाषा को नई रवानी देता है और कहता है –‘लड़ता हुआ समाज, नई आशा अभिलाषा, नये चित्र के साथ नई देता हूँ भाषा’ |

("गद्य वद्य कुछ" पुस्तक में संकलित)

  • नील कमल 

Saturday, June 6, 2020

आर्थिक स्वनिर्भरता का विकल्प: समवाय

कोविड19 के बाद लॉकडाउन के परिणामस्वरूप भारत जैसे जटिल आर्थिक-सामाजिक संरचना वाले देश में किसान-मजदूर-स्त्री-युवा के सामने रोजगार का संकट है । विकल्प क्या है ? काम का विकल्प तो काम ही हो सकता है, चाहे वह काम पहले से उन्नीस हो या बीस । कम से कम जी सकने लायक आय तो होनी चाहिये । समवाय का मॉडल ऐसे में एक राह दिखाता है:


।।एक।।

एकला चलो का मंत्र देने वाले कवि रवींद्रनाथ ठाकुर सामाजिक जीवन में समवाय के सबसे बड़े हिमायती थे । समवाय वही जिसे हम बोलचाल की जुबान में सहकारिता के नाम से जानते हैं । आप ध्यान दें तो रवींद्रनाथ ठाकुर एकला चलो कहने से पूर्व डाक देने की बात कहते हैं । डाक यानी पुकार । पुकारना है उनको जो आपके आसपास हैं, आपके समाज के लोग हैं, आपके परिचित हैं । पुकार पर कोई पलट कर आपके पास आये यह मुमकिन है । कोई पास आये तो वह आपको सुनेगा । वह आपको सुनेगा तो मुमकिन है कि आपके साथ आये । किसी की पुकार सुनकर साथ आना ही समवाय है । पुकार सुनकर भी कोई न आये तब एकला चलो । अकेले सफर बहुत कठिन होता है । 
लॉक डाउन ने मनुष्य को अकेला कर दिया है । गरीब और मजदूर इसके सबसे बड़े शिकार रहे । काम छिन गये या छीन लिये गये । पूँजीवाद और उसके भूमंडलीकृत विश्व में और खासकर भारतीय संदर्भ में हैव-नॉट्स के सामने जीने का संकट आ गया है । विकल्प क्या है ? विकल्प है समवाय । यह अपने जैसे लोगों को डाक देने का समय है, पुकारने का सही समय यही है । समवाय एक विकल्प अर्थनीति है । आज समवाय ही विकल्प है ।
 
।।दो।।

समवाय समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी के लिये आर्थिक स्वनिर्भरता के क्षेत्र में संभावनाओं के द्वार खोलता है । लेकिन यह आसान नहीं है । इसकी कुछ बुनियादी शर्तें हैं । यह कबीर के शब्दों में प्रेम की गली में समाने के लिये शीश उतार कर जाने की तरह है । यानी समर्पण । समवाय के लिये जातिगत और राजनैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त हो जाना प्राथमिक रूप से अनिवार्य है । समूह में सोचने की शुरुआत यहाँ से होती है । 
अभी के हालात ऐसे हैं कि बड़ी संख्या में लोग बेकार हो गये हैं । वे क्या करें ? शून्य से कैसे शुरू करें । उदाहरण के लिये श्रमिक श्रेणी को ही लें । उनमें श्रम को उत्पादन में बदल देने की क्षमता तो है लेकिन वे अलग थलग हैंं । उन्हें अपनी सामूहिक शक्ति का आविष्कार करना है । उन्हें संगठित होना है । पहले ग्राम स्तर पर, फिर ब्लॉक स्तर पर, फिर जिला स्तर पर । शहर में हैंं तो उस स्तर पर भी । श्रमिकों का समवाय बनायें । हर राज्य में ऐसे समवाय के पंजीकरण और क्रेडिट लिंकेज के लिये सरकारी दफ्तर हैंं ब्लॉक से लेकर जिला और राज्य स्तर पर । और यह पंजीकरण नि:शुल्क है । इससे श्रमिक के पास बार्गेनिंग पावर आयेगा । बिचौलिया कोई ठेकेदार नहीं होगा । काम मिलेगा क्योंकि श्रम का कोई विकल्प नहीं । टेंडर प्रक्रिया में भी भागीदारी सुनिश्चित होती है समवाय के माध्यम से ।
श्रमिकों का समवाय श्रम के शोषण से मुक्ति का मंत्र है । 

।।तीन।।

साहित्यिकों में समवाय को लेकर व्यापक दृष्टि कवि रवींद्रनाथ ठाकुर की रही । रवींद्रनाथ ने पतिसर में इसी आदर्श पर एक बैंक की नींव डाली । नोबेल पुरस्कार के पैसों को कवि ने इसी बैंक को दे दिया । गरीब किसान को इस बैंक से न्यूनतम व्याजदर पर ऋण दिया जाता था । पतिसर में महाजनी व्यवस्था इस एकल प्रयास के आगे कमजोर पड़ गई थी । एक व्यक्तिगत प्रयास के रूप में यह घटना विरल और दृष्टांतमूलक है । 
कृषि क्षेत्र में समवाय एक विशाल संभावना है जिसके सफल मॉडल केरल, महाराष्ट्र, हरियाणा सहित पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में देखे जा सकते हैं । इस समवाय में छोटे और भूमिहीन किसान शामिल हो सकते हैं । अर्थनीति के क्षेत्र के बड़े बड़े शॉक को एबज़ॉर्ब करने की क्षमता है समवाय में । इसका जाल ग्राम पंचायत स्तर पर है । यह माइक्रो फाइनेंस का ऐसा सेक्टर है जहाँ से किसान को बीज, खाद, कीटनाशक के साथ फसल के लिये महज 4% व्याजदर पर (ऋण की दर 7% जिसमें से 3% समय पर ऋण परिशोध करने पर वापस लौटा दिया जाता है) ऋण मिल जाता है और जहाँ वह अपनी फसल को बेच भी लेता है । संस्था का मालिक भी किसान ही होता है । ग्लोबल इकोनॉमी की कठिन चुनौतियों के सामने कृषि क्षेत्र में समवाय व्यवस्था अनंत संभावनाओं से भरी है ।

।।चार।।

स्त्रियों का, स्त्रियों के लिये, स्त्रियों के द्वारा परिचालित आर्थिक संस्थान समवाय क्षेत्र में ही संभव है । इसके मोटे तौर पर दो स्वरूप हैं । एक तो छोटा समूह जिसमें दस की संख्या में शुरुआत हो सकती है । वे समूह में काम करती हैं, समूह में संचय करती हैं और प्रयोजन के अनुसार समूह के संचित धन से अपने ही सदस्य की सहायता करती हैं । यह सेल्फ हेल्प ग्रुप मॉडल है । इसके लिये क्रेडिट लिंकेज की सुविधा उपलब्ध होती है । बांग्लादेश के मुहम्मद यूनुस साहब को इसी मॉडल के सफल प्रयोग के लिये नोबेल से नवाजा गया । बड़े स्तर पर हजारों स्त्रियों के सामूहिक प्रयास से क्रेडिट बैंक की स्थापना की जा सकती है जिसकी सदस्यता सिर्फ स्त्रियों के लिये होती है । यह वीमेंस क्रेडिट बैंक है । इस बैंक की डाइरेक्टर्स स्त्रियाँ ही होती हैं । 
आर्थिक स्वनिर्भरता की दिशा में महानगरों में स्त्रियों के लिये अवसर फिर भी होते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों के लिये कहीं कोई अवसर सुलभ नहीं होते या होते भी हैं तो शोषण का शिकार उन्हें होना पड़ता है । यदि वे सेल्फ हैल्प ग्रुप के मॉडल पर काम करें तो इससे बेहतर कुछ नहीं । उदाहरण के लिये एक ग्रुप यदि कुछ महीनों (इसकी कोई समय सीमा नहीं है) के संचय से पाँच हजार रुपए जमा कर पाता है तो इसकी चारगुनी रकम यानी बीस हजार रुपए उन्हें बैंक देगा । इसके लिये कोई गारंटी नहीं देनी होती । यह मॉडल ट्रस्ट यानी भरोसे पर काम करता है । इस रकम से ग्रुप का कोई एक सदस्य छोटे स्तर पर व्यवसायिक काम कर सकता है । अदायगी की जिम्मेदारी ग्रुप के दसों सदस्यों पर होती है । सुचारु रूप से काम करें तो बारी बारी से ग्रुप का हर सदस्य स्वनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा सकता है । 
समवाय ईमानदार लोगों के लिये है । गुजरात का अमूल समवाय का ही एक परिचित नाम है । 

रचना और आलोचना की भिड़ंत

रचनाकार लिखकर अपने काम से मुक्त हो चुका है | लेकिन वह यह भी चाहता है कि उसके लिखे को लोग पढ़ें | वह रचना के प्रकाशन को लेकर चिंतित होता है और उसके लिए सचेष्ट भी होता है | रचना प्रकाशित हो गई | मान लेते हैं कि प्रकाशित होने के बाद रचना को पढ़ भी लिया गया | रचनाकार का लक्ष्य यहीं पूरा हो जाना चाहिए था | लेकिन नहीं, उसे अभी कुछ और चाहिए | उसे मान्यता चाहिए अपने लिखे की | यह मान्यता उसे कौन देगा ? अव्वल तो रचनाकार को अंतिम मान्यता उसका पाठक ही देगा लेकिन पाठक की मान्यता से रचनाकार को संतोष नहीं है | ऐसे में एक रचनाकार आलोचक का मुखापेक्षी होता है | इस प्रकार रचनाकार और उसके पाठक के बीच एक तीसरी शक्ति आलोचना के रूप में अपनी जगह बनाती है | 

रचनाकार को रचना के मूल्य-निर्णय हेतु आलोचना की अनुशंसा क्यों चाहिए ? एक (महत्वाकांक्षी)रचनाकार अपने इर्द-गिर्द एक वर्ण-व्यवस्था कायम करना चाहता है | इस चतुष्वर्णी व्यवस्था में रचनाकार स्वयं को केंद्र में ब्राह्मण के रूप में स्थापित करने का आकांक्षी है | प्रकाशक रचना का व्यवसाय करता ही है सो वह इस व्यवस्था में वैश्य है | पाठक के कंधे पर चूँकि रचनाकार का पूरा ठाट बाट होता है इसलिए वह महत्वपूर्ण होते हुए भी शूद्र है जो प्रजा से अधिक महत्व तो नहीं पाता लेकिन उसे साहित्य में निर्णायक कहने-बताने की चतुर रणनीतिक कवायदें भी चलती रहती हैं | अब रचनाकार को कुछ पराक्रमी रक्षकों की आवश्यकता होती है जो तमाम रचनाकारों के बीच आपसी होड़ में उसे श्रेष्ठ के रूप में स्थापित करा सकें | इसप्रकार रचनाकार के आश्रम में आलोचक की जगह क्षत्रिय वाली हो जाती है | साधु प्रकृति के रचनाकार को इन बातों से कोई मतलब नहीं होता और उसे रचना के मूल्य-निर्णय की कोई प्रत्याशा भी नहीं होती है | 

आलोचक साहित्य में एक पावर सेंटर है यह मानते हुए इस पर विचार करना दिलचस्प होगा कि क्या उसका होना साहित्य की जरूरत है अथवा वह रचनाकार की निजी जरूरत है | यदि आलोचना रचनाकार की निजी जरूरत है तो आलोचक गिरोहबंद लश्कर या भाड़े का लठैत ही होगा | ऐसा आलोचक रचनाकार के हित में काम करेगा अथवा रचनाकारों के किसी साझा संगठन के हित में लाठी भाँजेगा | लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि रचनाकार की कमजोर नस हाथ में आते ही ऐसी आलोचना स्वतः एक पावर सेंटर बनकर उभरे | ऐसी स्थिति में रचनाकार को उठाने गिराने वाला गिरोह आलोचना के नाम पर खड़ा होता है | दोनों ही उदाहरण साहित्य में मौजूद हैं | इसके अपवाद स्वरूप साहित्य में सत्ता निरपेक्ष आलोचना भी अवश्य ही काम करती है जो अक्सर हाशिये पर होती है लेकिन जिसका एक नैतिक दबाव साहित्य के पावर डिसकोर्स पर रहता ही है | 

इस भूमिका के साथ ही इस बात पर विचार करना जरूरी है कि क्यों रचना और आलोचना जिनको एक दूसरे का पूरक होना चाहिये था एक दूसरे को कमतर साबित करने में अपनी ऊर्जा का क्षय करते पाये जाते हैं | रचनाकार प्रायः आलोचना को गिरोहबंद कहता है और आलोचक पर कई प्रकार के आरोप भी लगाता है | गिरोहबंदी अकादमिक दुनिया में अर्थात विश्वविद्यालय कैम्पस की दुनिया में आम बात है क्योंकि वहाँ प्रोफेसर-आलोचक अपने छात्र-रचनाकार का बहुत कुछ बनाने बिगाड़ने की ताकत रखता है | अपवाद छोड़ दें तो यह लगभग किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का विकट सत्य है | लेकिन ऐसा नहीं है कि हर-हमेश कैम्पस का छात्र-रचनाकार दूध का धुला ही होता है | यह एक गिव-ऐंड-टेक रिलेशनशिप की अपनी संरचना है जिसमें लेन-देन की आपसी जरूरतें अपनी भूमिका निभाती हैं | इस प्रसंग में बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | लेकिन कैम्पस के बाहर का रचनाकार भी कई बार अकेले या संगठित रूप से आलोचना से देना-पावना का संबंध बनाता है इसके उदाहरण भी कम नहीं | यह दोतरफा खेल है इसलिए विक्टिम प्ले करने वाले भी हैं और विलेन बनाए जाने वाले भी | साहित्य में दाखिल-खारिज का नेपथ्य यहाँ से खुलता है | जो इसमें दाखिल में आ गया वह अलग सरक लेता है | खारिज को लेकर हाहाकार उठता रहता है | 

आज परिदृश्य में बड़ी संख्या में रचनाकार मौजूद हैं | रचना विस्फोट जैसी परिस्थिति है | ठहर कर लिखने का धैर्य कम है | तुरंत मूल्य-निर्णय चाहिए | त्वरित मूल्यांकन चाहिए | इसके लिए क्या-क्या खेल नहीं खेले जाते | एक तरफ तो आलोचना के न होने का स्यापा है तो दूसरी ओर शिकायत भी आलोचना ही से है (जो है नहीं उससे शिकायत !) | कौन सही है कौन गलत, इसकी मीमांसा कौन करे, यहाँ तो एक दूसरे की गर्दन पर चढ़े हैं लोग कि हम जो कह रहे हैं उसे ही अंतिम मानो | रचनाकार अवसाद में जा रहे हैं या आत्महत्या कर ले रहे हैं | महत्वाकांक्षा के सामने जीवन छोटा साबित हो जाता है, ऐसी स्थितियाँ बन रही हैं | और आप कहते हैं कि आलोचना तो रचना की अनन्यता का सम्मान नहीं करती, कि उसकी साधारणता का उद्घाटन नहीं करती, कि वह कृति के साथ अपना संबंध न बना कर अपनी वैचारिकी का रकबा बढ़ाती है, कि उसे तो सृजनात्मक अनुभव के समक्ष विनम्रता से प्रस्तुत होना चाहिए अन्यथा वह आलोचना छिछली, सतही और यांत्रिक है, कि रचना के अबूझ-असपष्ट-दुर्बोध आदि होने की बातें उसका दुराग्रह हैं, कि विशिष्ट की मौलिकता की उपेक्षा हो गई, कि आलोचना की सारी कसौटियाँ रूढ़ हो चुकी हैं आदि आदि | मतलब आप रचनाकार हैं तो ब्राह्मण हैं, पूज्य हैं ? अरे भाई, ब्राह्मण हैं तो अपनी बभनौटी बनाइये और रहिये जाकर | 

एक और बात, साहित्य में संपादक और आयोजक नये पावर-ब्रोकर के रूप में उभरे हैं और इनमें रचनाकार ही प्रमुख रूप से अपने समूचे विद्रूप के साथ सामने आ रहे हैं | अकाल आलोचना का नहीं, उस नैतिक साहस का है जिसके बिना रचना भले बन जाए, रचनाकार नहीं बना जा सकता | रचनाकार का आलोचना से युद्ध दरअसल अपनी छाया से युद्ध है और इस छाया युद्ध में भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद और पटना में कोई फर्क नहीं है |