ईश्वर को धर्म में
आस्था रखने वाले लोग परमपिता भी कहते हैं | इस
पृथ्वी पर उसी ईश्वर की एक मिनियेचर सत्ता पिता के रूप में प्रतिष्ठित है | पिता पर हिन्दी में कुछ अच्छी कविताओं की अगर आप को तलाश हो तो आपको मनोज
छाबड़ा का नया संग्रह देखना चाहिए | ‘तंग
दिनों की खातिर’ उनवान से छपी इस किताब की ‘पिता’ और ‘पुत्र’ शीर्षक दो कविताएँ खास तौर से देखी जानी चाहिए |
माता और पिता पर लिखते हुए ज़्यादातर कवि भावुकता के शिकार हो जाते हैं और ऐसा करते
हुए वे जरूरी तटस्थता नहीं बरत पाते | एक सीधी सी बात यहाँ
मुझे कहनी है और वो ये कि जिस सत्ता के सात पर्दों को भेदकर आप सत्य को उद्घाटित
करने का भ्रम पाले रहते हैं उस सत्ता के मिनियेचर फॉर्म से आपके निजी समीकरण किस
तरह सधते हैं यह जानना आपके पाठक के लिए बहुत मददगार साबित होता है | पुराणों से और जनश्रुतियों से आप चाहें तो खँगाल कर बहुत सी कहानियाँ ला
सकते हैं जिनसे यह साबित किया जा सकता है कि पिता की एक इच्छा पर अपना जीवन दाव पर
लगा देने वाले पुत्रों की परम्परा ही समाज में स्वीकृत और प्रसंशित होती रही है | समकालीन हिन्दी कविता में कई कवियों ने पिता को अपनी कविताओं में याद
किया है | तत्काल मुझे सुरेश सेन निशांत की कविता याद आ रही
है जिसमें कवि अपने पिता के गमछे को याद करता है | एकांत
श्रीवास्तव की एक कविता है जिसमें वे पिता की घड़ी को याद करते हैं | इन कविताओं की खासियत यह रही है कि इनमें पिता की ईश्वरीय छवि अपने
आभा-मण्डल के साथ मौजूद रहती है | इन कविताओं में पिता के उस
रूप से कवि कहीं नहीं टकराता है जो कि उस सार्वभौम सत्ता की एक इकाई के रूप में
अपने परिवार में गण्य होता है और अपवाद की बात अगर जाने दें तो निर्विवाद और
निरंकुश सत्ता का स्वामी होता है | मुझे बार बार यह कहने की
जरूरत महसूस होती है कि इस पहलू को सामने रखकर लिखी गई कविताओं पर बात की जानी
चाहिए | मैं यहाँ अपनी कविताओं का उदाहरण देना उचित नहीं
समझता क्योंकि ऐसा करना न सर्फ अशोभनीय होगा बल्कि गैर जरूरी भी | मनोज इस लिहाज से मुझे अपनी मनोभूमि के बहुत निकट खड़े मिलते हैं और
इसीलिए उनकी ये कविताएँ मुझे अधिक प्रभावी ढंग से अपील करती हैं |
मनोज समकालीन हिन्दी
कविता के उन जरूरी कवियों में से हैं जिनका नाम मैं किसी आलोचक या समीक्षक की सूची
में नहीं पाता | और ऐसे
तमाम कवि मेरे लिए खास महत्व के हैं जो प्रायोजित चर्चा के चकाचौंध से दूर अपनी
मद्धम लौ के साथ अपनी कविताओं में लिखते बोलते रहे हैं |
मनोज स्वभावतः सूक्ष्म संवेदनाओं के कवि हैं | नागरिक जीवन
के प्रामाणिक चित्र उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं | दृष्टि
की भिन्नता ही कवि की अपनी पहचान की निर्मिति में जरूरी भूमिका अदा करती है | आप देखें कि जो अनुभव एक पिता की पूँजी के रूप में देखा जाता रहा है उसे
मनोज अपनी कविता में किस दृष्टि से देखते हैं | वे कहते हैं –
‘अनुभव / एक टोटका है बाज़ार में/ जिसके उत्तर में/ कोई
प्रश्न नहीं उठ सकता/ सफ़ेद बालों की दुहाई देकर/ अगली पीढ़ी कि जुबान पर/ ताला
लगाया जा सकता है/ जवानी के गुब्बारे में/ अनुभव की सुई/ धमाकेदार अहसास कराती
होगी पिताओं को/ इस अमोघशस्त्र से/ पराजित किया जा सकता है/ तमाम पुत्रों को/ और
परिवार के मानचित्र से/ आखिरकार पुत्र को हो जाना पड़ता है निष्कासित’ | यहाँ मनोज पिता नाम की सत्ता के सबसे मजबूत दुर्ग
पर ही अपना मोर्चा खोल लेते हैं | और यह अकारण नहीं है | इसके पीछे कवि कवि की अपनी युक्ति है, उसके अपने
तर्क हैं | वह कहता है –‘पराजयों और
हताशा का दूसरा नाम/ अनुभव है/ निराशा और अपमानों की/ जमापूंजी का कुल जोड़ ही हैं/
पिता के अनुभव’ | और इसी तर्क-पद्धति
के जरिए मनोज कह पाते हैं –‘यह युग/ पिताओं की मनमानी का है/
उसे (पुत्र को) केवल संघर्ष करना है/ पिता की आक्टोपसी जिद से/ खींच निकालनी हैं/ इच्छाएँ
अपनी/ उनके हठ को पी जाना है चुपचाप/ उनके ढहते भरभराते खंडहर की नींव में/ झोंक
देनी हैं/ अपनी आकांक्षाओं की मीनारें’ |
हम जिस भारतीय
संस्कृति की दुहाई अक्सर दिया करते हैं उसमें राजा ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है
इसलिए उसे निरंकुश सत्ता हासिल है | इस
सत्ता की सार्वभौम स्वीकार्यता स्वयंसिद्ध है | पिता जो कि
एक परिवार में लगभग एक राजा जैसी हैसियत रखता है स्वाभाविक रूप से सत्ता की वही
निरंकुशता उसे भी हासिल होती है | हमारे यहाँ बंगाल में तो
परिवार के मुखिया को कर्ता कहने की परम्परा रही है जिसका भावार्थ स्वामी के निकट का
रहा है | तो कहने का अर्थ यह कि किसी भी कवि का सत्ता विमर्श
कितना टाइम-टेस्टेड है यह देखने और जानने का एक उपक्रम यह भी है कि पिता के
सत्ता-चरित्र के प्रति उसकी दृष्टि क्या और कैसी है | वह इस
मिनियेचर सत्ता से किस मात्रा में और किस तरह टकराता है | इस
द्वंद्वात्मकता में उसका पावर डिसकोर्स विकसित होता है | मनोज
की पिता शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इसी तनाव को संबोधित करती हैं –‘पिता/ इस समय/ पुत्र से/ एक दुनिया की दूरी पर खड़ा है/ एक सृष्टि का फासला
है/ दोनों में’ | इस तरह हम देखते हैं
कि एक कवि के सत्ता विमर्श को समझने की कुंजी हो सकती हैं पिता पर लिखी उसकी
कविताएँ | मनोज की पंक्तियाँ फिर एक बार दोहराऊँ तो कह देना
चाहिए कि -‘एक शाप मिला है/ सारे विश्व के पिताओं को/ कि वे
सदैव पिता ही रहेंगे/ दोस्त बनने के सभी ढकोसलों के बावजूद/ वे पुत्र/ जो पुत्र
रहे पिता की नजर में/ पिता बनते ही/ दृष्टि ले लेते हैं पिता की/ उन सभी अवसरों
पर/ तानाशाह बने रहते हैं/ जिन अवसरों पर/ अपने पिता से अप्रसन्न थे’ | यहाँ मनोज के उस इशारे को समझने की जरूरत है जहाँ
वे पिता की तुलना एक तानाशाह से करते हैं |