Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -66

ईश्वर को धर्म में आस्था रखने वाले लोग परमपिता भी कहते हैं | इस पृथ्वी पर उसी ईश्वर की एक मिनियेचर सत्ता पिता के रूप में प्रतिष्ठित है | पिता पर हिन्दी में कुछ अच्छी कविताओं की अगर आप को तलाश हो तो आपको मनोज छाबड़ा का नया संग्रह देखना चाहिए | तंग दिनों की खातिर उनवान से छपी इस किताब की पिता और पुत्र शीर्षक दो कविताएँ खास तौर से देखी जानी चाहिए | माता और पिता पर लिखते हुए ज़्यादातर कवि भावुकता के शिकार हो जाते हैं और ऐसा करते हुए वे जरूरी तटस्थता नहीं बरत पाते | एक सीधी सी बात यहाँ मुझे कहनी है और वो ये कि जिस सत्ता के सात पर्दों को भेदकर आप सत्य को उद्घाटित करने का भ्रम पाले रहते हैं उस सत्ता के मिनियेचर फॉर्म से आपके निजी समीकरण किस तरह सधते हैं यह जानना आपके पाठक के लिए बहुत मददगार साबित होता है | पुराणों से और जनश्रुतियों से आप चाहें तो खँगाल कर बहुत सी कहानियाँ ला सकते हैं जिनसे यह साबित किया जा सकता है कि पिता की एक इच्छा पर अपना जीवन दाव पर लगा देने वाले पुत्रों की परम्परा ही समाज में स्वीकृत और प्रसंशित होती रही है | समकालीन हिन्दी कविता में कई कवियों ने पिता को अपनी कविताओं में याद किया है | तत्काल मुझे सुरेश सेन निशांत की कविता याद आ रही है जिसमें कवि अपने पिता के गमछे को याद करता है | एकांत श्रीवास्तव की एक कविता है जिसमें वे पिता की घड़ी को याद करते हैं | इन कविताओं की खासियत यह रही है कि इनमें पिता की ईश्वरीय छवि अपने आभा-मण्डल के साथ मौजूद रहती है | इन कविताओं में पिता के उस रूप से कवि कहीं नहीं टकराता है जो कि उस सार्वभौम सत्ता की एक इकाई के रूप में अपने परिवार में गण्य होता है और अपवाद की बात अगर जाने दें तो निर्विवाद और निरंकुश सत्ता का स्वामी होता है | मुझे बार बार यह कहने की जरूरत महसूस होती है कि इस पहलू को सामने रखकर लिखी गई कविताओं पर बात की जानी चाहिए | मैं यहाँ अपनी कविताओं का उदाहरण देना उचित नहीं समझता क्योंकि ऐसा करना न सर्फ अशोभनीय होगा बल्कि गैर जरूरी भी | मनोज इस लिहाज से मुझे अपनी मनोभूमि के बहुत निकट खड़े मिलते हैं और इसीलिए उनकी ये कविताएँ मुझे अधिक प्रभावी ढंग से अपील करती हैं |
मनोज समकालीन हिन्दी कविता के उन जरूरी कवियों में से हैं जिनका नाम मैं किसी आलोचक या समीक्षक की सूची में नहीं पाता | और ऐसे तमाम कवि मेरे लिए खास महत्व के हैं जो प्रायोजित चर्चा के चकाचौंध से दूर अपनी मद्धम लौ के साथ अपनी कविताओं में लिखते बोलते रहे हैं | मनोज स्वभावतः सूक्ष्म संवेदनाओं के कवि हैं | नागरिक जीवन के प्रामाणिक चित्र उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं | दृष्टि की भिन्नता ही कवि की अपनी पहचान की निर्मिति में जरूरी भूमिका अदा करती है | आप देखें कि जो अनुभव एक पिता की पूँजी के रूप में देखा जाता रहा है उसे मनोज अपनी कविता में किस दृष्टि से देखते हैं | वे कहते हैं – अनुभव / एक टोटका है बाज़ार में/ जिसके उत्तर में/ कोई प्रश्न नहीं उठ सकता/ सफ़ेद बालों की दुहाई देकर/ अगली पीढ़ी कि जुबान पर/ ताला लगाया जा सकता है/ जवानी के गुब्बारे में/ अनुभव की सुई/ धमाकेदार अहसास कराती होगी पिताओं को/ इस अमोघशस्त्र से/ पराजित किया जा सकता है/ तमाम पुत्रों को/ और परिवार के मानचित्र से/ आखिरकार पुत्र को हो जाना पड़ता है निष्कासित | यहाँ मनोज पिता नाम की सत्ता के सबसे मजबूत दुर्ग पर ही अपना मोर्चा खोल लेते हैं | और यह अकारण नहीं है | इसके पीछे कवि कवि की अपनी युक्ति है, उसके अपने तर्क हैं | वह कहता है –पराजयों और हताशा का दूसरा नाम/ अनुभव है/ निराशा और अपमानों की/ जमापूंजी का कुल जोड़ ही हैं/ पिता के अनुभव | और इसी तर्क-पद्धति के जरिए मनोज कह पाते हैं –यह युग/ पिताओं की मनमानी का है/ उसे (पुत्र को) केवल संघर्ष करना है/ पिता की आक्टोपसी जिद से/ खींच निकालनी हैं/ इच्छाएँ अपनी/ उनके हठ को पी जाना है चुपचाप/ उनके ढहते भरभराते खंडहर की नींव में/ झोंक देनी हैं/ अपनी आकांक्षाओं की मीनारें |
हम जिस भारतीय संस्कृति की दुहाई अक्सर दिया करते हैं उसमें राजा ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है इसलिए उसे निरंकुश सत्ता हासिल है | इस सत्ता की सार्वभौम स्वीकार्यता स्वयंसिद्ध है | पिता जो कि एक परिवार में लगभग एक राजा जैसी हैसियत रखता है स्वाभाविक रूप से सत्ता की वही निरंकुशता उसे भी हासिल होती है | हमारे यहाँ बंगाल में तो परिवार के मुखिया को कर्ता कहने की परम्परा रही है जिसका भावार्थ स्वामी के निकट का रहा है | तो कहने का अर्थ यह कि किसी भी कवि का सत्ता विमर्श कितना टाइम-टेस्टेड है यह देखने और जानने का एक उपक्रम यह भी है कि पिता के सत्ता-चरित्र के प्रति उसकी दृष्टि क्या और कैसी है | वह इस मिनियेचर सत्ता से किस मात्रा में और किस तरह टकराता है | इस द्वंद्वात्मकता में उसका पावर डिसकोर्स विकसित होता है | मनोज की पिता शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इसी तनाव को संबोधित करती हैं –पिता/ इस समय/ पुत्र से/ एक दुनिया की दूरी पर खड़ा है/ एक सृष्टि का फासला है/ दोनों में | इस तरह हम देखते हैं कि एक कवि के सत्ता विमर्श को समझने की कुंजी हो सकती हैं पिता पर लिखी उसकी कविताएँ | मनोज की पंक्तियाँ फिर एक बार दोहराऊँ तो कह देना चाहिए कि -एक शाप मिला है/ सारे विश्व के पिताओं को/ कि वे सदैव पिता ही रहेंगे/ दोस्त बनने के सभी ढकोसलों के बावजूद/ वे पुत्र/ जो पुत्र रहे पिता की नजर में/ पिता बनते ही/ दृष्टि ले लेते हैं पिता की/ उन सभी अवसरों पर/ तानाशाह बने रहते हैं/ जिन अवसरों पर/ अपने पिता से अप्रसन्न थे | यहाँ मनोज के उस इशारे को समझने की जरूरत है जहाँ वे पिता की तुलना एक तानाशाह से करते हैं |



अक्षर घाट -65


पिछले दिनों अशोक वाजपेयी ने इस साल का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार किसी युवा कवि को न देने का निर्णय लिया | युवाओं में अशोक वाजपेयी के इस निर्णय को लेकर अजीबोगरीब प्रतिक्रियाएँ आती रहीं | कोई पूछ रहा है कि क्या धरती वीरों से खाली हो गई है तो कोई सुझा रहा है कि फलाँ-फलाँ को ही पढ़ लिया होता | सच कहूँ तो मुझे अशोक वाजपेयी के फैसले ने ज़रा भी हैरान नहीं किया | मैं तो खुद कई मर्तबा लिखता रहा हूँ कि ऐसा भी कोई निर्णय आए कि किसी को योग्य नहीं पाया गया | ऐसे फैसलों के पीछे मंशा चाहे जो भी हो उसका मैं स्वागत करता हूँ | बल्कि मुझे कहीं अधिक खुशी होगी यदि अगले कुछ वर्षों के लिए कविता कहानी आदि के लिए दिए जाने वाले सारे पुरस्कार और सम्मान मुल्तवी कर दिए जाएँ | आखिर कौन सा तीर मार रहे हैं लोग कविता कहानी लिखकर कि उन्हें पुरस्कृत और सम्मानित होने की आवश्यकता महसूस होती है | मैं बड़ी उम्मीद से युवाओं की तरफ देख रहा था कि शायद उनमें से कोई आगे बढ़ कर कहे कि –यह लो अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो | लेकिन एक निष्प्रयोजन सी वस्तु को अंततः बेहद प्रयोजनीय सिद्ध किया जाता रहा | ख़ैर आज मुद्दा यह नहीं है बल्कि इसी बहाने मुझे ऐसे कवियों की याद हो आई जो हमेशा ही इस चूहे दौड़ से बाहर रहे |
नीलाम्बुज सिंह के साथ बातचीत में कई बार रमाशंकर यादव विद्रोही की चर्चा होती रही है | नीलाम्बुज हिन्दी साहित्य के युवा शोधार्थी और काव्य प्रेमी हैं | ग़ज़लें लिखते हैं | अपने ब्लॉग पर उन्होने विद्रोही जी की कविताएँ लगा रखी हैं जिनको देखने के बाद मेरी उत्सुकता इस कवि में बढ़ी | अभी विद्रोही का पहला और एकमात्र काव्य संग्रह पढ़कर खत्म किया है | सन 2011 में इसे जनसंस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल ने व्यक्तिगत प्रयासों से प्रकाशित कराया है | कवि की उम्र इस वक़्त सत्तावन अट्ठावन साल के करीब होगी | और पुरस्कार सम्मान की बात तो जाने ही दीजिए मुझे लगता है विद्रोही को जानने वाले भी आज कम ही होंगे | प्रणय कृष्ण ने अपनी लंबी भूमिका में एक किंवदंती के हवाले से बताया है कि विद्रोही दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्व विध्यालय के छात्र रहे हैं और उन्हें सेमिनार पेपर में लिखने की जगह बोलने की मांग के कारण मूल्यांकित नहीं किया गया | वे आज भी  उसी विश्व विद्यालय में देखे जा सकते हैं | उम्र के चौथेपन में एक कवि जो कविता लिखता नहीं बल्कि बोलता है वह इस कदर उपेक्षित है कि किसी लेख में दो शब्द उसपर देखने पढ़ने को नहीं मिलता | ऐसे में पुरस्कार के लिए युवाओं का अरण्य रोदन विचलित करता है | मैंने जानने का प्रयास किया कि विद्रोही नाम का यह कवि आखिर है क्या चीज़ | आप यह जानकर हैरान होंगे कि इस कवि के पास कई आला दर्जे की कविताएँ हैं | हालांकि समग्रता में विद्रोही मुझे अत्यधिक वाचाल कवि लगते हैं |
विद्रोही की एक छोटी सी कविता को हू-ब-हू उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ | विद्रोही लिखते हैं –
मैं भी मरुंगा /और भारत भाग्य विधाता भी मरेगा /मारना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा /लेकिन मैं चाहता हूँ / कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरे / फिर भारत भाग्य विधाता मरे / फिर साधु के काका मरें /यानि सारे बड़े बड़े लोग पहले मर लें / फिर मैं मरूँ – आराम से उधर चलकर बसन्त ऋतु में / जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है /या फिर तब जब महुवा चूने लगता है /या फिर तब जब वनबेला फूलती है /नदी किनारे मेरी चीता दहक कर महके /और मित्र सब करें दिल्लगी / कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था / कि सारे बड़े बड़े लोगों को मारकर तब मरा |
रमाशंकर यादव विद्रोही कवि कैसे हैं यह इस कविता से समझा जा सकता है | मुझे लगता है कि यदि इन पंक्तियों के साथ किसी स्थापित कवि का नाम रख दिया जाता तो यह हिन्दी की समकालीन कविता में एक बहु-उद्धृत कविता होती | लेकिन सत्य यह है कि यह विद्रोही की कविता है | सत्य यह भी है कि विद्रोही के अवधी गीतों और ग़ज़लों-नज़्मों ने मुझे प्रभावित नहीं किया | उनकी कविताओं में बड़बोलापन बहुत है और जरूरी भाषिक कसावट की कमी है तथापि कथ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण कविताओं को उनके संग्रह में रेखांकित किया जा सकता है | विद्रोही के इस संग्रह का उनवान है- नयी खेती | इसमें जन-गण-मन शीर्षक लंबी कविता उल्लेखनीय है | विद्रोही वाचिक परम्परा के कवि हैं और कविताएँ कहते हैं | इनका जीवन फकीराना है | लेकिन वे आज की कविता में मिसफिट हैं | आज कविता वाचिक परंपरा की चीज़ नहीं है | उसका छपना आवश्यक है | और छपने के बाद और भी आवश्यक है उसका इस तरह दिखना कि किसी अशोक वाजपेयी या नामवर सिंह की नज़र उसपर पड़े |
यहाँ जरा विषयान्तर होते हुए भी कहने का मन होता है कि इस कवि को जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय कैंपस में सुनते हुए वहाँ से उठकर आए किसी कवि आलोचक को तो दो शब्द लिखना ही चाहिए था विद्रोही पर | यही वह कमजोर कड़ी है जो कविता में आज भी निर्णायक सिद्ध होती है | किसी नए कवि ने दस पाँच कविताएँ अगर लिख ली हैं तो इसके बाद वह अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह को गरियाने लगता है | उसे शिकायत होती है कि वरिष्ठ और स्थापित लोग नयों को नहीं पढ़ते | लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ ऐसे तमान युवाओं से कि भइया तुमने अपने साथ लिख रहे लोगों को कितना पढ़ा है और उनपर क्या लिखा है | चलो अशोक वाजपेयी या नामवर सिंह ने नहीं पढ़ा कोई बात नहीं | नहीं लिखा तो भी कोई बात नहीं | जो वे कर सकते थे उन्होने किया | जो उनसे नहीं हुआ उसे आप करें | आप यह न भूलें कि एक विद्रोही नाम का कवि है जिसे दिल्ली में और जे एन यु में रहने के बावजूद नहीं पढ़ा गया | वह आज भी आपको पुकारता है – मुझे बचाओ /मैं तुम्हारा कवि हूँ |


अक्षर घाट -64

सोज़े वतन की प्रतियाँ ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली थीं जब यह छप कर आया ।प्रशासन की ओर से कड़ी चेतावनी दी गई कि यदि आगे भी लेखन जारी रहा तो जेल में डाल दिया जाएगा । तब प्रेमचंद धनपत राय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे । ज़माना नाम के उर्दू रिसाले में वे छपा करते थे । ज़माना के सम्पादक की सलाह पर धनपत राय ने प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया और क्या खूब लिखते रहे । आज हम देख रहे हैं कि एक धमकी के बाद ही बड़े बड़े लेखक देश छोड़ कर चले जाने की बात करते हैं । प्रेमचंद को इस कोण से भी समझने की जरुरत है ।   
तीन सौ कहानियाँएक दर्जन उपन्यासऔर लगभग तीस हजार पात्रों को रचने वाला एक लेखक । एक सम्मानजनक नौकरी और सुरक्षित जीवन का त्याग करके स्वतन्त्र लेखक का जीवन चुनने वाला लेखक । प्रेमचन्द के परिचय के कोण अनेक हैं । लेखक प्रेमचन्द के उभार का समय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उभार का समय भी था । महात्मा गाँधी और बाबा साहेब अम्बेडकर के राजनैतिक सामाजिक आन्दोलनों की उथल पुथल ने प्रेमचंद को गहरे प्रभावित किया । यह एक तथ्य है कि सन उन्नीस सौ पंद्रह में अपनी पहली कहानी के साथ हिंदी में आने वाले इस लेखक का रचनाकाल महज बीस एक साल का रहा । आखिरी कहानी कफ़न वे सन उन्नीस सौ छत्तीस में लिखते हैं । हिंदी कहानी का  एक   दौर प्रेमचंद के नाम दर्ज़ है । कितनी दिलचस्प बात है की उन्हें उपन्यास सम्राट का खिताब बांग्ला के शरतचंद्र से मिलता है । 
प्रेमचंद को इस साल केन्द्रीय विद्यालय काचरापारा काम्पा परिसर के बच्चों ने भी याद किया । नीलाम्बुज सिंह के बुलावे पर इन बच्चों के बीच प्रेमचन्द और हमारा समय विषय पर संगोष्ठी में जाना हुआ । स्कूली बच्चों ने प्रेमचंद की कहानियों पर सुन्दर पोस्टर तैयार किए थे । प्रेमचंद की जीवनी पर आधारित चित्र प्रदर्शनी भी लगाईं । सबसे सुन्दर बात यह रही कि बांग्ला भाषी बच्चों ने भी प्रेमचंद पर तैयारी के साथ अपनी बातें रखीं ।  नमक का दरोगा कहानी का बांग्ला अनुवाद विद्यालय के ही एक बच्चे ने प्रस्तुत किया । 
प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था तो इसके निहितार्थ क्या थे यह समझने की जरुरत है । बदलाव की जमीन सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर पहले तैयार होगी । राजनैतिक उद्देश्यों के साथ वह इसके उपरांत ही जुड़ सकती है । हमारा दुर्भाग्य ही है कि बिना किसी सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे के देश का इतना बड़ा लोकतंत्र राजनैतिक कवायद को ही बदलाव का मोर्चा माने बैठा है । प्रेमचंद इस बात को महसूस कर रहे थे कि जॉन की जगह गोविन्द के आ जाने भर से मंजर नहीं बदलेंगे । हमारे समय का एक दारुण दुःख यह भी है कि जॉन और गोविन्द जितना रस्मी बदलाव ही हम देख पाते हैं । आप चाहें तो जॉन और गोविन्द की जगह यू पी ए और एन डी ए भी पढ़ सकते हैं । क्या दिल्ली और क्या लखनऊ और क्या कलकत्ता चित्र सर्वदा एक जैसा ही मिलता है । मुखौटे भर बदल दिए जाते हैं और कहीं कहीं तो मुखौटे बदलने में भी दस बीस या चौंतीस साल का समय बीत जाता है । 
प्रेमचंद का अमर वाक्य आज याद करना चाहिए । क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे ? ईमान की चिंता प्रेमचंद की किन्द्रीय चिंताओं में से एक है । संकट आज मनुष्य के ईमान को बचा पाने का भी है । महाजन की जगह कारपोरेट ताकतें आ गई हैं । धर्म अपने विद्रूप के साथ समाज की हकीकत बना हुआ है । जाति और वर्ण का भेद गहरा से और गहरा होता चला गया है । आखिर पिछले एक सौ वर्षों में सामाजिक स्तर पर क्या बदला है सिवाय इसके कि छोटी दुकानों से निकल कर आप मॉल जाने लगे हैं या टाइप   राइटर छोड़कर डेस्कटॉप का प्रयोग करने लगे हैं या तार से आगे एस एम् एस और ईमेल भेजने लगे हैं । जब चुनाव आते हैं लोगबाग अगड़े पिछड़े या हिन्दू मुसलमान बन जाते हैं । तो अंततः ये बातें सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारी दरिद्रता को ही तो उजागर करती हैं । 
प्रेमचंद के पूरे साहित्य में कुछ बीज शब्द हैं । ईमान और मरजाद ऐसे ही शब्द हैं जिनपर आज खतरा सबसे बढ़कर है । सार्वजनिक जीवन में बड़े बड़े लोगों के करोड़ों के घोटाले देखसुनकर कान पक गए हैं । किसान का जीवन आज भी ऋण के जाल में मछली सा फँसा है । दलित और स्त्री अस्मिता के सवाल आरक्षण की नीतियों के हवाले हैं । लेखक सत्ता के चरणों में लोट रहे हैं । ऐसे में उस प्रेमचंद का जीवन निश्चित ही एक मिसाल है जिसने इन्स्पेक्टर ऑफ़ स्कूल की नौकरी छोड़कर कष्टसाध्य जीवन समय की माँग पर चुना । हममें से कितनों में इस विवेकपूर्ण फैसले का साहस है आज यह प्रश्न भी विचारणीय होना चाहिए ।        
प्रेमचंद अपने जीवन के अंतिम वर्ष में अर्थात सन उन्नीस सौ छत्तीस में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए जिस लखनऊ में प्रगतिशील लेखक की अवधारणा पर सवाल उठा रहे थे उसी लखनऊ में हिंदी का लेखक समाजवाद के नाम पर बाप बेटे की सरकार चालाने वालों और जाति की राजनीति करने वालों के आगे दरबारी की तरह खड़ा पाया जाता है । प्रेमचंद की परंपरा  किसी पार्टी की विचारधारा की बंधक नहीं है । प्रेमचंद गाँधी से प्रभावित होते हुए भी जाति और वर्ण की सामाजिक अवधारणा से टकराते हैं । वे अम्बेडकर से प्रभाव ग्रहण करते हुए भी पूना पैक्ट पर सवाल कर सकते हैं । ये बातें आज भी विचारणीय हैं । 
लोग प्रेमचन्द के जीवन के विभिन्न प्रसंगों की आड़ में उन्हें प्रतिगामी साबित करना चाहें भी तो इसके लिए उन्हें प्रेमचंद के विपुल लेखन के साथ साथ उनके जिए और किए का हिसाब किए बिना आगे बढ़ना मुनासिब नहीं होगा । प्रसंग चाहे पहली पत्नी के त्याग का हो या विवाहेतर सम्बन्ध का हो चाहे बेटी की बीमारी में झाड़ फूँक करने करवाने का हो एक बात पाठकों को नहीं भूलनी चाहिए कि लेखक भी अंततः मनुष्य होता है । एक सच्चा लेखक आजीवन अपनी सीमाओं की पहचान करते हुए अपने अभ्यन्तरीन विचलनों के साथ लड़ते भिड़ते हुए जीता है । प्रेमचंद भी एक मनुष्य थे । अपनी कतिपय सीमाओं के साथ भी वे उतने ही समादृत और स्वीकार्य हैं । 


अक्षर घाट -63


अच्छी कविताएँ अपने समय का ठीक-ठीक पता देती हैं | उनमें समय के पार देखने की अद्भुत क्षमता होती है | ऐसी कविताएँ हमारे समय का जरूरी दस्तावेज़ साबित होती हैं | आज जबकि हत्यारे नित नए रूप रंग और वेश में हमारे बीच प्रकट हो रहे हैं तब अपने पास उपलब्ध ऐसी कविताओं की खोज जरूरी हो जाती है | अवश्य ही हिन्दी कविता में ऐसी कविताओं की खोज बहुत कठिन नहीं है | मुक्तिबोध और अँधेरे में कविता को हम भूले नहीं हैं | हेमन्त कुकरेती की कविता "चांद पर नाव" अपने समय की गवाही देती एक जरूरी कविता है | यह अपनी भाषा-भंगिमा में विशिष्ट तो है ही, साथ ही यह हमें सोचने के लिये उकसाती भी है । कविता में अर्थों और ध्वनियों की कई परतें हैं । समझने के लिये सिर्फ़ कविता का एक-दो पाठ ही पर्याप्त नहीं । पाठक को कविता तक पहुंचने के लिये इसके मिजाज़ को जानना बहुत ज़रूरी है । कविता में बिम्ब भले ही बड़े साधारण दिखते हैं पर उनका भाव विस्तार बड़ा सघन और असाधारण है । एक अर्थ में यह यथास्थितिवाद को तोड़ती कविता है ।

"जुलूस में गये हुए पड़ोसी गला बैठ जाने से /गरारे कर रहे थे /परिवार में दूर के सम्बन्धी के मरने की खबर /रोटी के साथ परोसी गई /स्कूल से भागे हुए बच्चे ज्यादा खाने से परेशान थे
/हंस हंस कर पेट दुख रहे थे औरतों के /जो सर्दियों को बुन रही थीं /अपने पतियों के साथ" |
ये कविता पंक्तियां पूरी कविता का मध्य भाग हैं । इनमें उन पड़ोसियों की चर्चा है जो जुलूस में गये हुए थे और जिनका गला बैठ चुका है ( शायद नारे लगा लगा कर ) । वे गले को राहत देने और बैठी हुई आवाज़ को पुन: अर्जित करने के लिये गरारे कर रहे हैं । वह कैसा जुलूस होगा ? वह जुलूस किसी के विरोध में भी हो सकता है और समर्थन में भी । दोनों ही स्थितियां गला फाड़ कर चिल्लाने का अवसर देती हैं । कविता यहां दोनों छोर पर खुली हुई है और पाठक को स्वतन्त्र चिन्तन का अवसर देती है ।
लेकिन यहां एक पड़ोसी ऐसा भी है जो दूर के सम्बन्धी का मृत्यु संवाद भी भोजन के साथ निगल सकता है । यह उदासीनता की परकाष्ठा रचता हुआ बिम्ब है । कविता में  स्कूल से भागे हुए बच्चे भी हैं । ये बच्चे परेशान हैं पर इनकी परेशानी की वजह विस्मय पैदा करती है । कविता में कुछ हंसती हुई औरतें हैं । ये औरतें सर्दियों को बुन रही है । यह कवि का अर्जित किया हुआ मुहावरा है । खुद गढ़ा और तराशा हुआ । यह परिदृश्य कुल मिला कर एक ठंडी तटस्थता, उदासीनता और यथास्थितिवाद  की ओर संकेत है । यह एक भयावह दुनिया है जहां सहभागिता और सह अस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं । कहीं कोई हलचल नहीं ।

"सूरज समय पर निकलता था रात समय पर होती थी /राजधानी में सूखे का डर नहीं था/ सरकारी घोषणाएं डरी हुई थीं मित्र देश के गृह युद्ध से /बच्चे जन्म ले रहे थे बूढ़ों की उम्र बढ़ रही थी" |
कवि एक ऐसे जीवन जगत की ओर उंगली उठा रहा है जहां सब कुछ यन्त्रवत चल रहा है । इस यन्त्र चालित सामाजिकता में भी राजधानी "सूखे के भय" से मुक्त है । जाहिर है सूखे की पहुंच राजधानी तक नहीं है । इस सामाजिकता में "सरकार" की चिन्ता का विषय सूखा नहीं है बल्कि पड़ोसी देश का गृह युद्ध है । इस यन्त्रवत जीवन यापन और इस तटस्थ सामाजिकता का भविष्य क्या हो सकता है यह कवि की चिन्ता भी है और उसका सरोकार भी । कवि की यही चिन्ता कविता की आरम्भिक पंक्तियों में अपने पाठक को सम्बोधित है ।

"आओ, चांद पर नाव चलाते हैं /उसने गम्भीर हो कर कहा /आस पास हत्यारे थे उनके हत्या करने के विचार /इन दिनों छुट्टियां मनाने परिवार सहित गांव गए थे" |
साधारण बोध बुद्धि रखने वाला पाठक भी जानता है कि चांद पर पानी तो क्या इसके चिन्ह तक नदारद हैं । ऐसे में कविता में "चांद पर नाव" चलाने की बात ! कौन है वह ? कौन चलाना चाहता है चांद पर नाव | कविता में अदृश्य वह सार्वनामिक विशेषण कोई व्यक्ति भी हो सकता है और कोई सत्ता भी । वह अपनी बात पूरी गम्भीरता के साथ रख रहा है । स्मरण रहे कि यह दिल्लगी में कही गई बात नहीं है । यह सार्वनामिक विशेषण ही कविता का "अर्थात" है । "वह" हत्यारों से घिरा है और हत्यारों के  मूल विचार सपरिवार छुट्टियां मनाने किसी गांव गए  हुए  हैं । यह मोटी जानकारी तो कविता में ही दर्ज है । प्रश्न यह है कि हत्या के विचार का परिवार कैसा हो सकता है | कविता में प्रश्न तो है उत्तर नहीं है । उत्तर कविता के बाहर कहीं है । कविता में कल्पना के लिये पर्याप्त स्पेस है । पाठक के लिए हैरानी की बात यह भी है कि हत्यारे और उनके विचार आखिर गांव में क्या कर रहे हैं । इसका एक समाधान यह हो सकता है कि जिनका स्थायी पता राजधानी है वे गांवों में अवकाश पर हैं । जो जहां है  उसे वहां नही होना था ।

"समाज में जो जहां था उसे वहां नहीं होना चाहिए था /आस पास रेत थी नाव नहीं थी कहीं
चांद इमारतों के पीछे छटपटा रहा था" |
कल्पना से इतर जो यथार्थ है उसमें पानी की जगह रेत है । चांद जिसे आसमान में खिलना था वह इमारतों के पीछे छटपटाता हुआ पड़ा है ।ऐसे में चांद पर नाव चलाने की बात जो कह रहा है उससे ऐसा गम्भीरता से कहलवाने में कुछ लोगों की निश्चित भूमिका है । कवि का स्पष्ट संकेत है कि जो जहां है उसे वहां नहीं होना चाहिए था । चांद पर नाव चलाना एक असम्भव स्वर्गीय विलासिता की कल्पना है । जिन्हें ऐसे जीवन की लालसा है उन्हें कवि चिन्हित करना चाहता है और उनकी वास्तविक जगह भी तय करना चाहता है । कुछ कुछ मुक्तिबोध की तरह कि "जो है उससे बेहतर चाहिए / समाज को साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए" । लेकिन मेहतरी करने के लिए आखिर कौन तैयार है ?

"उसने मज़ाक में नहीं कहा था कि /चांद पर नाव चलाते हैं /यह बात उससे गम्भीरता से कहलवाने में /किसकी भूमिका थी" | यह कविता इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ती कविता है जिसमें कहे से ज्यादा अनकहे की आवाज़ गूंजती है ।

अक्षर घाट -62

       
एक अण्डे का स्वागत गान | अपने उनवान में गीत मालूम होने वाली यह रचना अपनी फितरत में एक कहानी है यह जानकार आप हैरान हो सकते हैं | इस कहानी को पढ़ने का पहला मशविरा मित्र विजय गौड़ की तरफ से मिला था जिसके लिए उनको शुक्रिया कहने का मन होता है | इधर कुछ कहानियों को टेक्स्ट की तरह पढ़ने की तरतीब बरतने लगा हूँ | स्कूल के दिनों में पढ़ी गई कहानियों की याद तो अबतक बनी हुई है जिनमें प्रेमचंद की कफन , जयशंकर प्रसाद की पुरस्कार , चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था पहली सूची में हैं | उदय प्रकाश की दिल्ली की दीवार को कहानी के विद्यार्थी की तरह पढ़ता हूँ | अब तो नवलेखन अंकों के माध्यम से संपादकों के द्वारा लांच की गई कथाकारों की एक पीढ़ी ही है | उन्हें गाहे-बगाहे पढ़ता हूँ | बहरहाल मैं बात उस कहानी की कर रहा हूँ जो कि अण्डे का स्वागत गान है | जितेन ठाकुर की कहानी है | जबकि यह कहा जाने लगा है कि कहानी से कहानीपन ही गायब होता जा रहा है इस छोटी सी कहानी को एक बार देख लेने में कोई हर्ज़ नहीं | शायद कहने वाले अपनी राय बदलने के बारे में सोचने लगें |
शिल्प दरअसल कहानी के चेहरे का मेक-अप है जो पानी के छींटे पड़ते ही धुल जाता है | बिना किसी शिल्पगत आग्रह-दुराग्रह के कही गई कहानी मन पर अपने सौंदर्य का स्थायी छाप छोड़ती है | एक अण्डे का स्वागत गान ऐसी ही एक कहानी है जो मूलतः एक संवाद है अपने श्रोता के साथ | किस्सागोई के जरिए कथाकार आपको उस दुनिया में लेकर जाता है जहाँ एक सात-आठ साल का बच्चा है जिसके लिए एक अण्डा दुनिया की किसी नेमत से कम नहीं | यह बाल मजदूर कूड़े के ढेर से कबाड़ी वाले के यहाँ  बेची जा सकने वाली चीज़ें बीनता है और दस-बीस रुपए कमा कर माँ के हाथ में रख देता है | उसकी दिनचर्या कठिन है | एक कूड़े के ढेर से दूसरे कूड़े के ढेर तक की यात्रा में एक चाय की दुकान पर रखे अण्डे उसे किसी सुखद स्वप्न की तरह लगते हैं | और एक दिन बच्चे का सपना सच हो जाता है | लेकिन ठीक उसी बिन्दु से उसकी समस्याएँ और बढ़ जाती हैं |
एक अण्डे की क्या कीमत होगी आज के बाजार दर से | चार से पाँच रुपए | लेकिन प्रतिदिन अपने श्रम से दस-बीस रुपए कमाने वाले इस बच्चे के लिए यह मुमकिन नहीं हो पाता कि वह एक अण्डा खरीद सके | माँ की हिदायतें हैं जिनके मुताबिक इतने पैसों में ढिबरी का तेल आ जाता है | एक वक़्त आता है जब चाय की दुकान का मालिक उसे एक अण्डा बिलकुल मुफ़्त दे देता है | कथाकार आपको बताता है कि दुकान का मालिक दयावान नहीं है बल्कि ऐसा वह पत्नी को खुश करने के लिए करता है जिसका मानना है कि सोमवार को सफ़ेद चीज़ और बृहस्पतिवार को पीली चीज़ दान करने से व्यवसाय में तरक्की होती है | यहाँ दाता का अपना स्वार्थ है | अब हथेली में एक अण्डे को लेकर जब वह अपने दिन की शुरुआत करता है तब पाता है कि उसकी मुसीबतें बढ़ चुकी हैं | बच्चे की समूची चेतना अब उस अण्डे में केंद्रीभूत हो जाती है | वह हर सूरत में अपने सपने को अर्थात एक अण्डे को बचाना चाहता है | वीरेन डंगवाल की एक कविता याद आती है जिसमें चप्पल से भात का यानि चावल का एक दाना चिपक जाता है और वह कवि की चेतना को इस कदर आच्छादित कर लेता है कि दुनिया की कई महान चिंताएँ क़ुरबान हो जाती हैं | यहाँ कहानी में पैर के तालु से चिपका भात नहीं बल्कि हथेली में आ चुका एक अण्डा है | फर्क यह है कि यहाँ अण्डे को बचा ले जाने की चिंता है जबकि वहाँ भात की चिपचिपाहट से मुक्ति की चिंता है |
कहीं कूड़े के ढेर के पास खड़े कुत्ते का डर है तो कहीं आसमान में उड़ती चील का आतंक है | कहीं और एक ताकतवर लड़के का डर है जो बच्चे से अण्डे को छीन सकता है | बचते बचाते और भागते हुए अंततः जब वह बच्चा घर लौटता है तब उसके चेहरे पर दिन भर की मेहनत के बावजूद कुछ भी न कमा पाने की मायूसी की जगह एक अण्डे को पा लेने की खुशी है | वह अण्डा जो मुफ्त ही पा लिया गया है | बच्चे की छोटी बहन इस उपलक्ष्य में खुशी में गाने लगती है | इस गाने को कोई नहीं समझता | माँ भी नहीं | लेकिन यही अण्डे का स्वागत गान है | माँ अण्डे को गर्म राख़ में दबा देती है सिंकने के लिए या कह लीजिए पकने के लिए | एक काली तिरपाल है जिसके नीचे दरी पर लेटा बच्चा अल्युमीनियम की थाली में अण्डे के आने की कल्पना में खो जाता है जहाँ एक झटके में कहानी खत्म हो जाती है |
कहानी की खासियत यह है कि जब आप इसे पढ़कर खत्म करते हैं तब तक अण्डा एक रूपक में बदल चुका होता है | आप इस रूपक की उपलब्धि किस स्तर पर करते हैं यह हर पाठक के लिए भिन्न हो सकता है और यही इस कहानी की सार्थकता है | अतिशयोक्ति न माना जाए तो वह अण्डा सन सैंतालीस में पाई गई आज़ादी का रूपक भी हो सकता है और वह बच्चा हमारे जनतंत्र का शैशवकाल भी हो सकता है | यह कहानी स्वप्न और यथार्थ के द्वंद्व को बड़ी कुशलता के साथ सामने रखती है | कथाकार इसे एक काव्यात्मक ऊँचाई देता है जब वह दिखाता है कि अण्डों की ज़र्दी रुई के नर्म फाहों की तरह उड़ने लगी है और ज़र्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए वह लड़का बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखता है |
अंत में एक अण्डे का स्वागत गान कहानी आपको यकीन दिलाएगी कि अपने तमाम लटकों झटकों के बावजूद युवा हिन्दी कहानी को ऐसी कहानियों से एक सबक तो लेनी ही चाहिए कि कहानी को उसकी लम्बाई से कभी न मापें | यह महज तीन पृष्ठों की कथा है जो तथाकथित लम्बी कहानियों पर भारी है |


अक्षर घाट -61


रात के तीसरे पहर/ प्रेमियों की नींद उचट जाती है/ कोसी की गहराइयों में /दर्द का पानी उबाल खाता है/एक चमकता हुआ तारा /आसमान में जलता है बुझता है/यह विरह की रात है जिसमें /सपनों को नहीं एक पल का आराम/कि सपनों की गोद में सुस्ता रहे /प्रेमिकाओं के सिर अपनी चिंताएँ उतार
/प्रेम यहाँ काफल का फल है /पका हुआ और रसीला /जिसे हथेलियों में लेकर /ज़ोर से निचोड़ती हैं प्रेमिकाएँ और प्रेमियों की छाती से /टप-टप चूता है लाल रंग/लाल रंग धमनियों में उतर कर /अमर हो जाता है/‘कोसी का घटवार जानता है /सही-सही मतलब कुछ शब्दों के /मसलन प्रेम, गर्म सफ़ेद आटे की तरह होता है/वह बताना चाहता है और तभी /उसके गले में अटकी पड़ी होती है एक पुकार /काँटे की तरह”... कोसी का घटवार” कहानी पढ़ते हुए लिखी थी यह कविता | प्रेमकथा की पृष्ठभूमि में सहज मानवीय संवेदनाओं की निष्कलुष कहानी है "कोसी का घटवार" । शेखर जोशी की यह कहानी अपनी बुनावट में न तो किसी शिल्पगत ताम-झाम का आश्रय लेती है और न ही अपने कथ्य में कुछ चमत्कृत करने वाली बात लेकर उपस्थित है ।  तथापि यह कहानी अपने प्रभाव में देर तक मन में गूँजती है ।

यह कहना चाहिए कि "कोसी का घटवार" पढ़ते हुए "उसने कहा था" (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) की याद भी बार-बार आती है । कहानी की भाषा बेहद सहज है, कि जैसे कोई आत्मीय एकान्त में कहीं बैठ कर कोई किस्सा सुना रहा हो । कोसी के किनारे गुसाईं का घट है । गुसाईं कल तक इसी इलाके के किसी गाँव से फौज में भर्ती होने चले जाते हैं । गुसाईं ही "कोसी का घटवार" है , अर्थात कथानायक । लछमा गुसाईं के जीवन में कुछ इस तरह आती है जैसे वसन्त आता है । यह सृष्टि का आदिम मानवीय सम्बन्ध है जिसे प्रेम भी कहते रहे हैं । इस प्रेम की परिणति दुखान्त है । लछमा का पिता गुसाईं को अपनी बेटी इसलिए नहीं देता है कि उसके आगे पीछे कोई नहीं है और ऊपर से फौज की नौकरी जिसमें जान का जोखिम हर घड़ी रहता ही है । एक दूसरे के लिए जीने मरने की कसमें पतझड़ के पत्तों की तरह झर जाती हैं । फौज में रहते हुए ही गुसाईं को पता चलता है कि लछमा की शादी तय हो गई है । तबादलों का एक सिलसिला अन्तत: फौज की नौकरी खत्म होने के साथ रुकता है । गुसाईं कोसी नदी के किनारे घट डाल लेते हैं ।

यह अधेड़-उम्र घटवार (जिसे हम व्यवहारिक भाषा में आटा-चक्की का मालिक भी कह सकते हैं) अपनी खेती-बाड़ी देखते हुए गेहूँ पीसने का काम इसलिए करता है कि जीवन की एकरसता कुछ कम हो । दो बोल बोलने वाले लोगों का आना जाना भी रहे । गेहूँ की बोरियाँ जमा होती रहती हैं और कोसी का यह घटवार उन्हें क्रम के अनुसार पीस कर सफ़ेद आटे में बदल देता है जिससे खूबसूरत रोटियाँ बनती हैं । घट से बीच-बीच में निकल कर गुसाईं अपने खेतों की निगरानी भी कर आते हैं । नाले और गूल वगैरह देख आते हैं । इसी दौरान उनकी चेतना अपनी फौजी पतलून की ओर लौटती है । वह अपनी स्मृतियों के एकान्त को जीता है । इन स्मृतियों में प्रेम का निश्छल एक झरना बहता है ।
गुसाईं को याद है कि आखिर बार जब वे लछमा से मिले थे तो उसने कौन सी कसमें खाई थीं । 
ये कसमें टूटनी थीं सो टूट गईं । गुसाईं को फिर मौका नहीं मिला कि वे तहकीकात कर सकें कि लछमा ने गंगानाथज्यू के आगे प्रायश्चित किया या नहीं । वे चाहते हैं कि उसे ऐसा कर लेना चाहिए । यह प्रेम का उदात्त रूप है, जहाँ पाने से अधिक देना है, एक आत्मीय सपर्पण है । 
नियति उन्हें एक बार फिर आमने-सामने ला खड़ा करती है । लछमा एक दिन गेहूं की बोरी सिर पर लादे कोसी के घटवार के यहाँ आती है । गुसाईं पहले तो उसे लौटा देते हैं लेकिन फिर आवाज़ दे कर बुला लेते हैं ।

गुसाईं उसे पहचान गए हैं । लछमा ज़रूर देर से पहचान पाती है । वे एक-दूसरे के प्रारब्ध पर विस्मित हैं । लछमा का पति अब नहीं रहा । एक बच्चे के साथ वह अपने मायके आ गई है । यहाँ जीवन बहुत कष्टप्रद है उसका । गुसाईं उसकी मदद करना चाहते हैं । लछ्मा का स्वाभिमानी मन गुसाईं की मदद को ठुकरा देता है । कहानी यहाँ एक ऊँचाई को पा लेती है ।
इस दरम्यान लछमा गुसाईं के लिए चाय बना देती है और रोटियाँ भी साधिकार सेंकती है । अंततः गुसाईं उसकी आटे की बोरी में अपने आटे से दो-अढ़ाई सेर आटा ज़्यादा डाल देते हैं । लछमा जब जाने को होती है तो गुसाईं उसे पुकारते हैं । गुसाईं के मन में अभी भी एक गांठ है । लछमा ने गंगनाथ की कसम खाई थी । उसने कहा था की वह वही करेगी जो गुसाईं कहेंगे । वह कसलछमा से न निभाई गई । गुसाईं को लगता है कि इससे लछमा का कहीं कोई अनिष्ट न हो जाए । वे कहते हैं कि गंगनाथ कि पूजा उसे कर लेनी चाहिए ।
कहानी के स्पेस में बहुत सी बातें पाठकों के लिए छोड़ दी हैं लेखक ने । जिस जगह पर कहानी से लेखक अलग हो जाता है वहाँ से पाठक के लिए कहानी को बूझने के लिए सूत्र मिल चुके  होते  हैं  । गुसाईं की कहानी के साथ पाठक आसानी से जुड़ जाता है । दिलचस्प यह है कि कहानी खत्म होकर भी खत्म नहीं होती । कथा नायक गुसाईं का जीवन व्यवहार अत्यंत सहज और मानवीय है । असल जीवन के नायक ऐसे ही होते हैं । कथा नायिका लछमा अपने जीवन कि जटिलताओं से पस्त ज़रूर है लेकिन पराजित नहीं है वह । कहीं भी लेखक ने अपने चरित्रों को अतिमानवीय नहीं होने दिया है । जीवन स्थितियाँ मनुष्य के लिए कितनी निर्णायक हो सकती हैं इस बात का एक दृष्टांत है “कोसी का घटवार” । कहीं-कहीं कथाकार की भाषा ऐसी रवानी में नज़र आती है की अच्छे से अच्छे कवि को भी एक बार के लिए  ईर्ष्या हो जाए ।
 “उसने कहा था” का नायक लहना सिंह भी कहानी में उस लड़की से (जिससे वह पूछता था – तेरी कुड़माई हो गई) बड़ी विषम स्थितियों में मिलता है । ऐसी कहानियों के नायक प्रेम की नई परिभाषाएँ गढ़ते हैं । "कोसी का घटवार" इस अर्थ में एक अनूठी कहानी है कि इसमें जीवन को इस तरह से देखा जा सकता है जैसे आईने में चेहरा देखते हैं ।












अक्षर घाट -60


कविता मूलतः मितकथन की विधा है | खतो-किताबत की जुबान में जिसको कहते हैं – थोड़ा कहा, ज्यादा समझना | एक अच्छी कविता में बहुत कुछ सांकेतिक होता है | यही एक कारण है जिससे पाठक के पास एक खास कविता नये-नये अभिप्रायों के साथ पहुँचती है | एक बार कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली ने बातचीत में मुझे कहा था कि एक बढ़िया कविता में कई अर्थ-ध्वनियाँ होती हैं | जैसे प्याज के छिलके को एक के बाद एक उतारते जाते हैं वैसे ही एक के बाद एक अर्थ खुलते जायें इस बात की संभावना एक अच्छी कविता में मौजूद हुआ करती है | एक अच्छी कविता में पाठक के लिए इसका पर्याप्त अवसर होता है कि वह अपने पाठ को हासिल कर सके | इधर शंकरानंद की कविताओं से गुजरते हुए कविता में मितकथन की विशिष्टता को याद करना स्वाभाविक था | यह मितकथन का कवि है जिसके पास प्रचुरता में कौंध पैदा करने वाली काव्य-भंगिमाएँ हैं | हालांकि अभी इस कवि ने अपना सफर शुरू ही किया है और उसे कविता के इस सफर में शिल्प के स्तर पर अभी काफी कुछ अर्जित करना है, फिर भी इतना जरूर है मैं इस कवि में संभावनाएँ देख रहा हूँ | पदचाप के साथ संग्रह में लोहा, पंख, अंततः, घर, किसान और अगर जैसी कविताएँ मेरे यकीन को पुख्ता करती हैं | एक सूक्ष्म दृष्टि का कवि ही कह सकता है -जो भी बेकार था रखा हुआ किसी कोने में वह खत्म हो रहा था धीरे-धीरे चुपचाप ; यह न सिर्फ लामार्क के विकास के सिद्धान्त की पुष्टि करता हुआ वाक्य है बल्कि एक चेतावनी भी है कि बढ़िया से बढ़िया चीजें इस्तेमाल में ही सार्थक हो सकती हैं, फिर वह विचार हो, वस्तु हो या कोई दर्शन | कविता में सिर्फ अच्छी-अच्छी बातों से काम नहीं चलेगा |
शंकरानंद की दृष्टि साफ है और पैर जमीन पर टिके हैं | अपनी बात कहने के लिए वे पाठक को वाग्जाल में कभी नहीं उलझाते बल्कि जो कहना है उसे बहुत स्पष्ट और नुकीले तरीके से कह जाते हैं | जबकि इधर कई नवागतों में लंबी कविताओं के प्रति आग्रह फैशन की हद तक बना हुआ है वे छोटी कविताओं में सरलता के साथ बात रखते हैं | कुछ जरूरी मुद्दे जो आज कविता के एजेण्डे में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं ऐसे मुद्दे भी शंकरानंद की कविताओं में प्रमुखता से आते हैं | आप याद करें तो महँगाई पर कविताएँ मुश्किल से याद आयेंगी | यह आम जन के दैनंदिन जीवन संघर्षों से जुड़ा मुद्दा है जिसे राजनेताओं ने हाईजैक कर लिया है और पता नहीं कब और कैसे यह कविता में हाशिये का मुद्दा बना दिया गया है | कीमत शीर्षक एक कविता में यह कवि कहता है – बढ़ती जा रही है हर चीज की कीमत और /उसे रोकने वाला कोई नहीं / गेहूँ के बिना कैसे बनेगी वह रोटी /जिसकी खुशबू जान में जान डाल देती है / कैसे छौंकी जाएगी दाल जिससे तृप्त होता है मन / चावल के बिना कैसे खौलेगा अदहन और / नमक के बिना कैसा होगा सब्जी का स्वाद | मूल्य-वृद्धि की मार से आज कौन नहीं परेशान होगा | लेकिन कवि की चिंता उनसे जुड़ती है जिनकी दिनभर की कमाई से एक शाम चूल्हा जलता है और भरता है आधा पेट | अर्थात दिहाड़ी करने वाले मजदूर | इनमें रिक्शा और ठेला खींचने वाले शहरी मजदूर से लेकर सौ दिन के रोजगार गारंटी योजना वाले ग्रामीण मजदूर शामिल हैं |  जो दाल रोटी खाकर किसी तरह जी रहे थे उनके निवाले पर भी इस महँगाई की मार है | इसके लिए जिम्मेदार लोग कवि की नजर में हैं | आगे वह प्रश्न करता है –कहीं यह उन लोगों को मारने की साजिश तो नहीं है /कहीं उन्हें जीवन से हारने के लिए मजबूर तो नहीं किया जा रहा है /और कहीं सरकार भी तो इस साजिश में शामिल नहीं है | न तो शंकरानंद का यह संदेह नया है और न ही उनका सवाल नया है | यह सब कहा-सुना जाता रहा है | अखबारों से लेकर खबरिया चैनलों की बाइट्स तक यह मुद्दा चर्चे में रहा आया है | लेकिन नया है इस मुद्दे का इस तरह कविता में विषय बन कर आना | महँगाई ही नहीं बजट भी शंकरानंद की कविता का विषय है | वही आम बजट जिसके संसद में पेश होने के बाद आम आदमी की मुश्किलें हर साल बढ़ जाया करती हैं | बहुत सारे आंकड़े पेश किये जाते हैं | कागज पर देश तरक्की करता है लेकिन जमीन पर जीने की शर्तें और कठिन हो जाती हैं | शंकरानंद अपनी इस कविता में बजट की असलियत बताते हुए कहते हैं –हम देखते हैं कि नये बजट सत्र में / हमारी थाली की चार रोटी में से / एक रोटी और घट गई है | इस बजट में आंकड़ों के खेल में पीछे छूट गई भूख है और आत्महत्या करने वालों का बार-बार अपनी सीमा को पार करता आँकड़ा है | इस बजट को पेश करने वाला इस देश का वित्त मंत्री है जो इस सबसे बिलकुल भी उदास नहीं है | बल्कि वह तो इसे देश हित में बताता है |
शंकरानंद को मालूम है कि इस जनतंत्र में जन वह कबूतर जिसे राजा का पिंजरा रास आ गया है | राजा कबूतर को अपनी थाली में सजा देखना चाहता है फिर भी कबूतत्र है कि कभी भागता नहीं | राजा ने ऐसा क्या जादू कर दिया है कि गुलामी कबूतरों के स्वाद में बस चुकी है | कहने के लिए सारे कबूतर आजाद हैं लेकिन राजा को कबूतरों का मांस पसंद है | वह कबूतरों के आगे दाना बिखेरता है और कबूतर एक साथ उन दानों पर टूट पड़ते हैं | फिर राजा किसी एक कबूतर को हाथ में लेकर उसका गला रेत देता है | एक तरफ कबूतर को गिरता हुआ खून है तो दूसरी तरफ दाना चुगने में मशगूल बाकी कबूतर हैं | कबूतरों के बहाने कवि ने चुनावी लोकतन्त्र का सच बयान किया है | काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी में एक ऐसे ही राजा का प्रसंग आता है जिसे नर-मांस पसंद है |

अक्षर घाट -59


ग़ालिब ने कभी अपनी शायरी के बारे में कहने वालों के हवाले से अर्ज़ किया था – कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और | आज हिन्दी के कवियों के संग्रहों के ब्लर्ब लिखने वाले कवियों-समीक्षकों की मानें तो हिन्दी कविता की हर गली में दो-चार ग़ालिब मिल जाने चाहिए | एक अलग पहचान बनाती कविता ; कविता की नई जमीन तोड़ते और हिन्दी की काव्य-भूमि को विस्तृत करने में सफल कवि ; एक अलग तरह की काव्य-भाषा – ये कुछ ऐसे जुमले हैं जो आम तौर पर किसी नए कवि के संग्रह के ब्लर्ब पर किसी स्थापित कवि/समीक्षक के हवाले से जब-तब दर्ज़ किए जाते रहे हैं |
निदा नवाज़ का नया संग्रह है – बर्फ़ और आग | बीती फरवरी में जब दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जाना हुआ तो यह किताब भी मैं अपने साथ ले आया | यह कवि कश्मीर से है | यह मेरे लिए अतिरिक्त आग्रह का विषय था | मैं नहीं जानता कि मदन कश्यप ने किन मनःस्थितियों के बीच किताब के ब्लर्ब में उन जुमलों को दोहराया होगा जिनका जिक्र मैं अभी-अभी ऊपर कर आया हूँ | लेकिन अपनी सीमाओं को अत्यंत विनम्रता के साथ स्वीकार करते हुए कहना चाहता हूँ कि निदा नवाज़ की कविताओं की भाषा में वह जमीन तोड़ने वाली बात मुझे नज़र नहीं आती | सच कहूँ तो हर दूसरे कवि से ऐसी कोई उम्मीद भी मैं नहीं रखता | जमीन तोड़ने वाले कवि के लिए किसी भी भाषा को लंबा इंतज़ार करना होता है | हमें इन जुमलों से बाज आना चाहिए और हो सके तो कवि के कहे को बहुत ध्यान से सुनना और गुनना चाहिए |
आइए उसी कविता की बात करते हैं जिसका उनवान है – बर्फ़ और आग | किसी भी संग्रह की शीर्षक कविता को मैं आदतन बहुत आग्रह के साथ देखता हूँ | कवि ने बहुत सोच-विचार के बाद अपनी किताब के लिए इस शीर्षक को चुना होगा | हो न हो इस कविता की चिंता कवि की दूसरी तमाम चिंताओं से प्रबल रही होगी | निदा नवाज़ की यह कविता आकार में छोटी है | पूरी कविता ऊद्धृत की जा सकती है यहाँ “बर्फ़ के घरों में रहते थे / वे लोग / ठंडक बसती थी / उनकी सभ्यता में / बर्फ़ के सपने उगते थे / उनकी आँखों में / और आज पहली बार / वे घर लाए थे आग / इतिहास में केवल / इतना ही लिखा है” |
कविता में वे कहकर संबोधित किए गाए लोग जाहिर है कि कश्मीर घाटी में बसने वाले लोग हैं | कैसे हैं वे लोग | उनका जीवन कैसा है | उनके संघर्ष कैसे हैं | उनकी लड़ाइयाँ कैसी हैं | मैं स्वीकार करूँ कि कश्मीर का जिक्र आते ही मुझे हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर खूबसूरत वादियों की पृष्ठभूमि पर तैयार फिल्में याद आती हैं | मुझे कश्मीर की कली से लेकर रोज़ा जैसी फिल्में याद आती हैं | मैं यह भी स्वीकार करूँ कि मैं कभी कश्मीर नहीं गया | लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कश्मीर के बारे में सिनेमा के अलावा जो जानकारियों के दूसरे स्रोत रहे वे अधिक ठोस और प्रामाणिक थे | इनमें विभिन्न माध्यमों पर आ रही खबरें और लिखे जा रहे लेख और विश्लेषण आदि शामिल हैं | हम जिस कश्मीर को जानते हैं वह भारत के राजनैतिक नक्शे का वह हिस्सा है जिसे धरती का स्वर्ग कहा गया | लेकिन यह हमारे लिए उतनी ही उत्कंठा का विषय है कि धरती का स्वर्ग कैसे आतंक के साये में चला गया | वह आतंक जो निदा नवाज़ की कविताओं के केंद्र में भी बना हुआ है | हमारे लिए कुछ सर्वथा अपरिचित शब्द कैसे रोज़मर्रा के चर्चे में शामिल होते चले गए और जवान होते हुए हमारी स्मृतियों में उग्रवादी , चरमपंथी , खाड़कू और आतंकवादी जैसे पद दर्ज होते गए | सन सैंतालीस के भारत से लेकर सन दो हजार पंद्रह तक के भारत में कश्मीर ने कई करवटें बदली हैं | निदा नवाज़ जिसे सभ्यता में बसने वाली ठंडक कहते हैं वह आज की चालू भाषा में कूल कश्मीर नहीं है | मैं यकीन करना चाहूँगा कि उनका इशारा कविता में घाटी के अमन-पसंद लोगों की उस तहजीब की तरफ है जिसमें इनसान और इनसान के बीच कोई फर्क नहीं था और जहाँ सचमुच की कोई जन्नत हुआ करती थी जिसकी खूबसूरती दिलों से लेकर दरीचों तक देखी जा सकती थी | फिर यह कैसे हुआ कि जहाँ के नज़ारे भर से इंसान को मुहब्बत हो जाए वहाँ इतनी नफरत जहर की तरह फिजाँ में तारी हो गई | कश्मीर के अंदर आज़ादी के लिए लामबंद एक दूसरा कश्मीर और अपने ही देश की सेना के साथ जंग लड़ते घाटी के नौजवान , यह एक ऐसी उलझी हुई तसवीर है जिसको सुलझाने के बजाय सियासत करने वाले उसे और ज्यादा उलझाते गए हैं | निदा नवाज़ बर्फ़ और आग कविता में जिस आग का जिक्र अपने मुहावरे में करते हैं वह आग क्या दहशत की आग है , यह सवाल मेरे जेहन में इस कविता को पढ़ते हुए आता है | यह आग बगावत की आग भी तो हो सकती है | कवि इस आग के पहली बार घर ले आने की बात कहते हुए जिस इतिहास के अधूरेपन की बात करता है उसका पूरा अध्याय पाठक के लिए कौतूहल का विषय जरूर है पर इतिहास के इस अधूरेपन का अनुमान उतना असंभव भी नहीं है | कवि अपनी पक्षधरता को रखने में एक परदे की ओट ले लेता है | पाठक को इतिहास के अधूरे पाठ को अपने तर्कों से हासिल करना है | इस छोटी सी कविता में कवि हमें आँखों में उगने वाले बर्फ़ के सपनों वाले लोगों के घर पहली बार आई आग तक लाकर इतिहास के संदिग्ध होने के सवालों से बड़ी सावधानी के साथ जोड़ता है | मैं इस एक कविता के कई पाठों के बाद भी इस सवाल के साथ खड़ा हूँ कि क्या यहाँ कवि की संवेदना उस राष्ट्र के विरोध में  खड़ी है जिसकी अखंडता और संप्रभुता की बातें हर भारतीय दोहराता है | संग्रह की कविताओं पर इतना ही कहूँगा कि ये रेटरिक में विन्यस्त भाषा की कविताएं अधिक प्रतीत होती हैं |


अक्षर घाट -58


कुछ थे जो कवि थे /उनके निजी जीवन में /कोई उथल पुथल भी नहीं थी /सिवाय इसके कि वे कवि थे । कविता समय की शिनाख्त करती कविताओं से गुजरना उस एक्स-रे प्लेट से गुजरने की तरह है जिसमें फेफड़े का एक एक धब्बा साफ़ साफ़ दिखाई देता है । सुरेश सेन निशांत के दूसरे संग्रह में यह कविता है जिसका शीर्षक ही है -कुछ थे जो कवि थे । संग्रह का शीर्षक भी इसी नाम से है । कविता बहुत खुल कर कवि कर्म पर बहस के लिए एक प्रस्तावना तैयार करती है । यहाँ कवि के उद्देश्यों पर ही सवाल उठाती हुई कविता है । ये सवाल एक ऐसे समय में उठाये जा रहे हैं  जब कवि और कविता के आपसी रिश्तों के बीच की फाँक लगातार चौड़ी हो रही है । 
कविता से जुड़ा  नाभिकीय प्रश्न आज भी वही है कि क्या कविता कुछ कर सकती है । कवि त्रिलोचन के सामने भी यह प्रश्न था और वे इस निष्कर्ष तक आये थे कि जनपद के भूखे दूखे जन को कविता कुछ नहीं दे पाती । उस जनपद का कवि हूँ कविता देखी जा सकती है । कुछ थे जो कवि थे कविता में भी यह प्रश्न केंद्र में है कि कविता क्या दे सकती है । दूसरे शब्दों में यह कि कवि क्या अभीष्ट रखता है अपनी कविता से ।  कविता उन कवियों की बात करती है जो कुछ ऐसा कहना और लिख देना चाहते हैं कि जिससे समाज बदल जाए । कि जिससे सभी नदियों का रंग बदल जाए । कि जिससे धसकते पहाड़ और ग्लेसियर बच जाएँ । कि कटे हुए पेड़ फिर से हरे हो जाएँ और पृथ्वी के हरेपन के साथ आँखों की नमी बच जाए । कुल मिला कर कवि कर्म का जो अभीष्ट है वह यह कि कवि दुनिया में एक अमिट छाप छोड़ जाना चाहता है । एक बार आप रघुवीर सहाय की वह कविता याद करें जो सुकवि की मुश्किल के बारे में है । ये सारे बड़े काम कविता कर डाले तो बुरा क्या है लेकिन सुरेश सेन निशांत इसी बिंदु से आपको उस नेपथ्य में ले चलते हैं जहाँ इन महान उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कवि की चेष्टाएँ देखी और समझी जा सकती हैं । 
कविता के इस नेपथ्य में कॉफ़ी हाउस में बहसें करते कवि हैं । वे बड़े बड़े विचारों से भरे आलेख लिखते हैं जो कि उनकी नज़रों में बहुत महत्त्व रखती हैं । लेकिन बड़े बड़े विचारों से भरे आलेख लिखने वाले ये कवि उन रास्तों पर भी संभल संभल कर चल रहे हैं जहाँ दौड़ा जा सकता है । उनके एहतियात की इन्तहा यह कि जहाँ आतताइयों के खिलाफ एकाध शब्द बोला जाना जरुरी है वहाँ वे गुप चुप रहते हैं । इतना ही नहीं ये कवि आश्वस्त भी हैं कि जीवन का अंतिम सत्य उन्होंने अपनी कविताओं में पकड़ लिया है । वे गर्वित हैं अपने किए पर और इसके लिए पुरस्कार ,प्रशंसा और तालियों का इंतजाम भी कर लिया गया है । मजा यह कि सुखों के बीच सोते जागते हुए भी उनके पास दिखावटी दुखों की कमी नहीं । मैं इसे दुःख का अभिनय कहता हूँ जिसे इधर के कुछ कवियों ने साध लिया है एक नुस्खे की तरह । यहाँ इस कविता में भुने हुए काजू के साथ कीमती शराब पीता हुआ कवि भी कुछ ऐसा ही करता है और दिखलाता है कि वह दुःख ही खा पी रहा है । वे इतने चालाक हैं कि जब जब जहाज पर किसी दूर देश की यात्रा करते हैं तो सबको बताना नहीं भूलते लेकिन जब वे किसी से मिलते हैं तो थकान ओढ़ लेते हैं और जताते यह हैं कि सारी थकान उन्होंने पैदल चल कर पाई है ।      
यह कविता उन कवियों की बात करती है जो अच्छी रचनाओं की हत्या की सुपारी दिया और लिया करते हैं । और ऐसा करते हुए वे किसी भी तरह के अपराध बोध से मुक्त थे । वे साहित्य में अमर होने के लिए तमाम तरह के प्रयत्न कर रहे हैं । यहाँ तक कि वे खुद अपनी ही प्रशंसा में बड़े बड़े वक्तव्य भी दे डालते हैं । अपनी ही रचना को वे सदी की सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित करने में संकोच का अनुभव नहीं करते । खुद को साहित्य में स्थापित करने के लिए वे ऐसा करना आवश्यक भी मानते हैं । इन कवियों के मित्र और शत्रु भी कहने के लिए । मित्रों से मित्रता वे भले न निभा पा रहे हों किन्तु शत्रुओं से शत्रुता को वे दूर तक निभा रहे हैं । हैरानी की बात यह कि ऐसे कवियों का न तो कोई स्थायी मित्र था और न ही कोई स्थायी शत्रु ही । इस कविता को डिकोड करने के लिए आपको बस इतना ही करना है कि भूत को वर्त्तमान की तरह पढ़ना है । सुरेश सेन निशांत कविता के उस जादुई पिटारे से ढक्कन हटाने का काम करते हैं जिसके भीतर शैतान कीड़े कुलबुला रहे हैं । साफ़ साफ़ कहें तो यह कविता के अन्दरमहल की दास्तान है जिसके चर्चे अदब की महफिलों में किए नहीं जाते रहे हैं ।  

कभी-कभी  घिन आती है कविता के इस अंदरमहल से | नागार्जुन के शब्दों में कहूँ तो घिन आती है , जी कुढ़ता है यह सब देखते हुए | लेकिन विडम्बना यह की ये ट्राम के पिछले डिब्बे में दचके खाते देहाती नहीं बल्कि साहित्य के पहरुए हैं | बहुत कम साहित्यिक हैं जो इस प्रपंच और छद्म से दूर हाशिए पर पड़े हुए हैं | बाकी हाल हकीकत यह की कविता करते हुए साम-दाम-दण्ड-भेद सबकुछ आजमा लिया जा रहा है | अगर मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक है तो इन तथाकथित कवियों की दौड़ साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ तक है | वे हर जतन करके वहाँ पहुँचना चाहते हैं | सुरेश सेन निशांत की कविता की संगति में अगर कुछ बातें जोड़ूँ तो वे अपने घरों में सत्यनारायण की कथा बाँचते हुए भी मंच पर जनवादी बने रहने का जतन जानते हैं | वे आचरण में ब्राह्मणवादी होते हुए भी लेखन में साम्यवादी होने का जतन जानते हैं | वे हिन्दी के सफल कवि हैं | कविता में आने वाले ये जो कवि हैं वे मठ ढहाने की बात करते हुए मठ बनाने की अदा जानते हैं | जो बात यहाँ कह देनी चाहिए वह यह कि वे जो भी हैं यह जान लें कि कविता में उनका वक़्त अब पूरा हो चला है | अब उनके मुखौटे उतारने वाली पीढ़ी मैदान में आ चुकी है |

अक्षर घाट – 57


अपनी एक कविता में नागार्जुन कहते हैं -प्रतिबद्ध हूँ जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ । प्रतिबद्ध होने के साथ साथ वे इसी कविता में आबद्ध और सम्बद्ध होने की बात भी करते हैं । प्रतिबद्धता हिन्दी कविता में बड़ा ही चर्चित पद है ।ज़रा सी बात पर लोग लेखक की प्रतिबद्धता को लेकर सशंकित हो उठते हैं । लेखक सवालों से घिर जाता है । उससे बार बार उसकी प्रतिबद्धता के सबूत माँगे जाते हैं । 
यह प्रतिबद्धता आखिर क्या है ? आम समझ इस मामले में यह है कि लेखक को वाम वैचारिकी के साथ होना चाहिए । दूसरे शब्दों में कहें तो लेखक को उन ताकतों के विरोध में खड़ा होना चाहिए जिनसे वाम आदर्शों का सीधा विरोध है । उदाहरण के लिए हम यह कह सकते हैं कि एक लेखक के लिए आवश्यक है कि वह शोषित वंचित जन के साथ तो हो ही वह अपरिहार्य रूप से पूँजीवादी शक्तियों से टकराव का नीतिगत अवस्थान ग्रहण करे ।  जमीनी स्तर पर इस टकराव की जो स्थितियाँ बनती हैं वे कुछ उलझन पैदा करती हैं । एक लेखक सीधे सीधे राजनैतिक दल का कार्यकर्ता हो यह जरूरी नहीं है । एक हकीकत यह भी है कि वाम राजनीति का अभिमुख सैद्धांतिक दृष्टि से स्पष्ट और नुकीला होते हुए भी व्यवहार में वह भी समझौतावादी रवैया अपनाता रहा है । 
अगर आप याद करें तो पायेंगे कि संसदीय प्रतिनिधित्व की जनतांत्रिक लड़ाई में कई मंचों पर वाम ताकतें उन ताकतों के साथ खड़ी हुई हैं जिनके साथ जमीनी स्तर पर उनका तीक्ष्ण विरोध रहा है । आप याद करेंगे तो आपको यह भी याद आयेगा कि एक राजनैतिक शत्रु को साधने के लिए वाम ने अपने किसी अन्य शत्रु के साथ रणनीतिक कौशल के तर्क के साथ हमबिस्तर होने का रास्ता चुना है । बोफोर्स दलाली प्रकरण के बाद भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार का एक मुद्दे के रूप में उभर कर आना और उसके ठीक बाद के राजनैतिक ध्रुवीकरण आपको याद होंगे । कहने का तात्पर्य यहाँ इतना ही है कि जो शुद्ध वाम राजनीति करते हैं वे भी यदा कदा कौशल के बहाने ही सही शुद्धतावाद को दरकिनार करते हैं । व्यावहारिक राजनीति में वैचारिक भेद तो होता है लेकिन वह वैचारिक अस्पृश्यता में रूपायित नहीं होता । यह संसदीय लोकतंत्र का सौंदर्य है यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए । लेकिन लेखकों और लेखक संगठनों की वैचारिकी बड़ी जड़ और ठस्स किस्म की है । 
वैचारिक आग्रह जब दुराग्रह में बदलता है तो लेखकीय प्रतिबद्धता मंगलसूत्र में बदल जाती है । उसका होना या न होना बड़ा स्थूल मामला बन जाता है ऐसी स्थिति में । तब आप किसी भी लेखक की प्रतिबद्धता को प्रश्नांकित करने लगते हैं । बहुत पुरानी बात नहीं है । आपातकाल के दौरान लेखकीय प्रतिबद्धता के स्खलन का समय हिन्दी ने देखा है । मेरा अपना मानना तो यह है कि लेखकीय प्रतिबद्धता दिखाने की चीज़ ही नहीं है । वह लेखक के जीवन व्यवहार और उसके कार्य व्यापार में स्वतः दिखती है । 
चाहे वह नामवर सिंह के नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा करने का वाकया हो या उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के साथ एक मंच पर बैठने का मामला हो हिन्दी समाज की प्रतिक्रया लगभग एक सी रही है ।  एक हाल की घटना का जिक्र करूँ । कवि निलय उपाध्याय ने बाँदा की यात्रा से लौटकर केदारनाथ अग्रवाल के मकान के रख-रखाव में उपेक्षा का प्रसंग उठाते हुए यह आशंका व्यक्त की थी कि केदारनाथ अग्रवाल का मकान किसी बिल्डर के कब्जे में है और उसे किसी भी समय ध्वस्त करके वहाँ कोई निर्माण कार्य हो सकता है । मैंने उनसे उस मकान के मालिकाना हक से सम्बंधित दस्तावेज भेजने को कहा जिससे मुद्दे को लेकर कोई ठोस पहल की जा सके । निलय उपाध्याय ने बाँदा के ही उमाशंकर सिंह परमार को मेरा नंबर देकर मुझे जानकारी उपलब्ध करवाने का आश्वासन दिया ।इस बीच मुझे मेरे अत्यंत घनिष्ट मित्र राजशरण शाही का स्मरण हो आया जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रांतीय अध्यक्ष हैं । उन्होंने मुझसे विषय जानने के बाद पहला सवाल यह किया कि क्या केदारनाथ अग्रवाल कम्युनिस्ट थे । यह सवाल मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं था । जवाब में मैंने यह कहा कि लेखक है तो कम्युनिस्ट होगा ही । इससे क्या फर्क पड़ता है । देश के बहुत से लोग जो कवि से प्यार करते हैं उनकी हार्दिक इच्छा है कि इस धरोहर को  बचाया जाए । वहाँ कोई बिल्डर कैसे आ सकता है । मैंने निवेदन यह किया कि अपने स्तर पर वे इस मुद्दे को जिला प्रशासन तक पहुँचायें । बाद इसके उमाशंकर परमार का फोन आया । बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि केदारनाथ अग्रवाल के मकान के मालिकाना हक पर दावा कर सके ऐसा कोई वारिस मौजूद नहीं है । और मालूम यह भी हुआ कि नरेन्द्र पुण्डरीक नाम के एक कवि उस मकान से कोई संस्था चलाते हैं जो केदारनाथ अग्रवाल ही के नाम पर है । नरेन्द्र पुण्डरीक के बारे में मैं तब तक कुछ विशेष नहीं जानता था । बातचीत के दौरान यह धारणा बनी कि वे वाम वैचारिकी के विपरीत मत वाले व्यक्ति हैं । अब मामला मेरे सामने ज्यादा साफ़ हो चुका था । पूरा मामला केदारनाथ अग्रवाल की विरासत पर कब्जे को लेकर था । और दो विरोधी संगठनों के बीच इसको लेकर लड़ाई थी । मैं जिस मामले को प्रशासनिक हस्तक्षेप से वैधानिक तरीके से सुलझाना चाहता था उसकी गुंजाइश बहुत कम नजर आ रही थी । सच कहूँ तो इस मामले में विद्यार्थी परिषद् के प्रांतीय अध्यक्ष से बात करते वक़्त मेरे ध्यान में यह बात नहीं आई थी कि इससे मेरी प्रतिबद्धता का  क्या बनता बिगड़ता है । जरुरत पड़ी तो मैं इस मामले पर पैरवी करूँगा । क्योंकि मामला एक सच्चे कवि का है ।     
अभी इस वाकये को गुजरे बहुत दिन हुए भी नहीं कि फिर एक नया मामला हिन्दी मानस में प्रतिबद्धता को लेकर उभर आया । इस बार भी बात निलय उपाध्याय के हवाले से । गंगा यात्रा पर उनकी संस्मरणात्मक किताब का विमोचन गोविन्दाचार्य के हाथों होना तय हुआ है । एक बार फिर सवाल प्रतिबद्धता को लेकर उठाये जा रहे हैं । और मैं एक बार फिर उसी सवाल से रु- बरु हूँ कि क्या वैचारिक प्रतिबद्धता का मतलब व्यवहार में वैचारिक अश्पृश्यता  भी हुआ करता है ? अगर है तो क्या यह साहित्य में एक नए किस्म का अपार्थेड नहीं है ? बतौर कवि क्या आप मनुष्य को कम्युनिस्ट मनुष्य ,कांग्रेसी मनुष्य ,भाजपाई मनुष्य और समाजवादी मनुष्य के रूप में देखना चाहते हैं ? हम यह न भूलें कि लंका पर चढ़ाई से पहले सेतु निर्माण करते हुए राम ने रावण को अपने समय के विद्वान ब्राह्मण के रूप में न सिर्फ बुलाया बल्कि उसका आशीर्वाद भी प्राप्त किया | इससे राम-रावण के बीच एक दूसरे की प्रतिबद्धता कहीं आड़े नहीं आई |



अक्षर घाट -56

हिन्दी में गुरु के महात्म्य पर कविताएँ कम नहीं हैं | कबीर कहते हैं – गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँव | कबीर गुरु को गोविंद से भी ऊँचा स्थान देते हैं | भारतीय परम्परा में गुरु के बिना ज्ञान की कल्पना कठिन है | यहाँ शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था का एक नाम गुरुकुल भी है | गोविंद से भी उच्च आसन पर विराजने वाले गुरु पर गणेश पाण्डेय की कविताएँ प्रसंगवश याद आती हैं | गणेश पाण्डेय हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिन्हें प्रकृत अर्थों में हम प्रतिष्ठान विरोधी कवि कह सकते हैं | “अटा पड़ा था दुख का हाट” कवि का पहला संग्रह है जिसमें गुरु शीर्षक से दस कविताओं की एक पूरी सिरीज प्रकाशित है | गुरु शीर्षक इन कविताओं का पाठ आपको हिन्दी कविता के उस मिजाज का आस्वाद कराता है जिसके आप अभ्यस्त नहीं रहे हैं |  इसी सिरीज की एक कविता आप देखें –
“गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है” ।
जाहिर सी बात है कि नाम बड़ा रख लेने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता | कविता जिस तथ्य की तरफ संकेत करती है वह यह कि इस कविता में जो गुरु है वह अपने धारण किए नाम से बहुत छोटा व्यक्ति है | कविता का प्रथम पुरुष अपने इस गुरु से बड़े नाम का आकांक्षी है |  गुरु से बड़े नाम के आकांक्षी इस शिष्य के लिए गुरु के हाथ में मोदक का एक  टुकड़ा है | मोदक के एक टुकड़े की बुनियाद पर टिकी गुरु-शिष्य में यह संभव नहीं है कि शिष्य का नाम गुरु के नाम से बड़ा हो | मुझे यह कविता पढ़ते हुए अपने शहर के एक ऐसे ही गुरु की याद सहज ही हो आई | गुरु के आगे पीछे शिष्यों की भीड़ देखता हूँ | गुरु हर साल मेला लगाते हैं | शिष्य बेचारे इस मेले के स्वयंसेवी बन जाते हैं | वे दरी बिछाते हैं , मंच सजाते हैं , यहाँ से वहाँ , इधर से उधर दौड़ते रहते हैं कि जिस भी तरीके से संभव हो गुरु को प्रसन्न रखना है | उन्हें गुरु से यही मोदक का टुकड़ा चाहिए | बड़ा रहस्यमय है यह मोदक का टुकड़ा | यह शिष्य के स्वाभिमान और स्वविवेक को हर लेता है | और ज्ञान का आकांक्षी कृतदास में बादल जाता है | तो स्वाभाविक है कि जब कविता में कोई शिष्य गुरु से बड़ा नाम रखने कि इच्छा रखने वाला हो तब गुरु के तर्क में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध तक सबकुछ फिसड्डी साबित होता है | यह गुरु कहता है – तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है | ऊपर-ऊपर हास्य और व्यंग्य का बोध कराने वाली इन पंक्तियों के भीतर भयंकर त्रासद स्थितियों के संकेत हैं |
हमारे मिथकों में आचार्य द्रोण जैसे गुरुओं के उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ एकलव्यों को अपना अँगूठा काट कर गुरु को दक्षिणा देने का रिवाज है | यहाँ तो शिष्य की हत्या को अंजाम देता हुआ एक गुरु है जिसकी खीज कविता में इस तरह प्रकट होती है -
“खीजे गुरु/पहला बाण/जो मारा मुख पर/आंख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु/मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू”
शिष्य ने गुरु से बड़ा नाम पाने का जो सपना देखा उसकी सजा इस तरह मुकर्रर होती है कि गुरु के बाण क्रमशः उसके मुख , सीने और पेट को बेधते हैं | मुख को बेधता वाण शिष्य के वाक-स्वातंत्र्य का निषेध है | सीने को बेधता वाण उसके आवेगों का निषेध है | पेट को बेधता वाण उसके अस्तित्व का ही निषेध करता है | और ये तमाम निषेध एक गुरु की तरफ से जारी किए जाते हैं | यह हिन्दी की दुनिया है | गुरु से ऊँचा उठने की सजा तय है | गुरु के चरणों में शीश नवाते रहिए तो आपके लिए गुरु का प्रसाद सहज उपलब्ध है | आप विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों से लेकर अकादमियों की मानद सदस्यता तक पा सकते हैं | सम्मान और पुरस्कार आपके लिए आरक्षित रहेंगे | गणेश पाण्डेय की गुरु सिरीज की कविताएँ प्रकारांतर से हिन्दी की अकादमिक दुनिया का एक आलोचनात्मक दस्तावेज़ भी हैं | ये गुरुडम पर आघात करती जरूरी कविताएँ हैं जिनका साहित्यिक महत्व भले ही स्वीकार न किया जाए लेकिन जो साहित्य की लंबी जिरह में एक मुकम्मल बयान की हैसियत रखती हैं |
गणेश पाण्डेय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करते हैं | उनकी कविताओं और लेखों ने कई बार अपनी तरफ देखने को विवश किया है | वे अपनी कविताओं में जितने भावप्रवण हैं , अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों में उतने ही निर्मम भी हैं | और उनकी यही विशेषता मन में उनके प्रति आदर और सम्मान के भाव से भर देती है | वे नए से नए कवि को सराहना जानते हैं तो बड़े से बड़े कवि की निर्भीक आलोचना भी करते हैं | हिन्दी के साहित्यिक पर्यावरण में ऐसे सजग नागरिक की खास जरूरत है | स्थापित गुरु-शिष्य परम्परा में एक हस्तक्षेप की तरह है गणेश पाण्डेय जैसे शिक्षकों का होना | विपुल लेखन के बावजूद हिन्दी के तथाकथित आलोचक यदि ऐसे लेखक की उपेक्षा करते हैं तो इसके स्पष्ट कारण हैं | दिल्ली और उससे जुड़े सत्ता केन्द्रों का एक विपरीत ध्रुव ऐसे लेखकों से बनता है |
अंत में हिन्दी के तमाम गुरुओं से यह अपील तो की ही जा सकती है कि वे गुरुदक्षिणा में मुद्रा , वस्त्र , अन्न , अंगूठा आदि जो चाहे ले लें पर किसी शिष्य से उसके शब्द न लें | भविष्य में किसी गणेश पाण्डेय को फिर कभी न लिखना पड़े -
चलो अच्छा हुआ/मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न/न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन/गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ/सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में/मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द” ।