Sunday, December 25, 2016

कविता में पत्थरबाजी बनाम कविता में विस्फोट

'पथराव' (कविता) का कवि यह विश्वास करता है कि पत्थर उछालना दरअसल अपने होने को प्रमाणित करना है । उसे खूब मालूम है कि पत्थर फेंकने से कुछ भी होने-जाने वाला नहीं है । इस कवि के यहाँ शब्दों के पत्थर में बदलने की एक प्रक्रिया है । उसके यहाँ शब्द पाषाणवत हो चुके हैं । ये शब्द कलम की नोक पर ठहरे हुए हैं । वह इन पाषाणवत शब्दों को उनकी ओर फेंकता है या फेंकना चाहता है जो हमारी विवशता का मज़ाक उड़ाते हैं । इस कवि के लिए यह पत्थरबाज़ी एक तरह का प्रतिवाद है ! यह कवि जानता है कि कविता आग बनकर उसकी रगों में दौड़ती तो है मगर शब्दों में ढल नहीं पाती । आग को शब्दों में ढालना कवि की आकांक्षा है ।

'मुक्ति' ( कविता) के कवि को भी ज्ञात है कि पत्थर फेंकने से कुछ नहीं होने वाला । इसलिए वह पत्थर फेंकने की जगह शब्द फेंकने की बात करता है । वह जानता है कि इससे आदमी का कुछ नहीं होगा । लेकिन वह शब्द और आदमी की टकराहट से धमाके की संभावना का संकेत देता है । कहा जा सकता है कि कवि शब्दों से विस्फोटक का काम भी लेना चाहता है । वह भरी सड़क पर शब्द और आदमी के टक्कर से पैदा होने वाले धमाके को सुनने की इच्छा भी धारण किए हुए है । कवि का अनुभव कहता है कि शब्द फेंकने से कुछ नहीं होगा । कवि की आकांक्षा है कि इससे एक धमाका होना चाहिए । एक तरह का कनफ्लिक्ट कवि के भीतर काम कर रहा होता है । वह शब्दों के माध्यम से मुक्ति का पथ भी अनुसंधान करना चाहता है और शब्दों से कुछ भी कर पाने के नकार-बोध से भरा भी है ।

स्पष्ट है कि जहाँ सर्वेश्वर की कविता, पथराव (जिसका रचनाकाल 1972 है), अपने गठन में एक तार्किक परिणति तक जाती है, वहीं केदार की कविता, मुक्ति (जिसका रचनाकाल1978 है), विश्रृंखल भावों का एक वितान खड़ा करती है । इन कविताओं में बुनियादी फर्क यह कि सर्वेश्वर के यहाँ पत्थर फेंकना एक निर्णायक हस्तक्षेप की तरह आता है तो केदार के यहाँ शब्द फेंकना एक चमत्कारपूर्ण उक्ति की तरह आता है ।

1.
पथराव / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कविता नहीं है  कोई नारा
जिसे चुपचाप इस शहर की
सड़कों पर लिख कर घोषित कर दूँ
कि क्रांति हो गई ,
न ही बचपना
कि चिड़िया पर रंग फेंक कर
चिल्लाने लगूँ
अब यह मेरी है ।

जबान कटी औरत की तरह
वह मुझे अंक में भरती है
और रोने लगती है,
एक स्पर्श से अधिक
मुझे कुछ नहीं रहने देती
मेरे हर शब्द को
अपमानजनक बना देती है ।
जितना ही मैं कहना चाहता हूँ
स्पर्श उतना ही कोमल होता जाता है
शब्द उतने ही पाषाणवत ।

आग मेरी धमनियों में जलती है
पर शब्दों में नहीं ढल पाती ।
मुझे एक चाकू दो
मैं अपनी रगें काटकर  दिखा सकता हूँ
कि कविता कहाँ है ।

शेष सब पत्थर हैं
मेरी कलम की नोक पर ठहरे हुए
लो मैं उन्हें तुम सब पर फेंकता हूँ
तुम्हारे साथ मिलकर
हर उस चीज़ पर फेंकता हूँ
जो हमारी तुम्हारी
विवशता का मज़ाक उड़ाती है ।

मैं जानता हूँ पथराव से कुछ नहीं होगा
न कविता से ही ।
कुछ हो या न हो
हमें अपना होना प्रमाणित करना है ।
(रचनाकाल 1972)

2.
मुक्ति / केदारनाथ सिंह

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ पेड़
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ पानी

आदमी आदमी मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा

मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्दों और आदमी की टक्कर से पैदा होता है

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ ।
(रचनाकाल 1978)

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