Saturday, June 6, 2020

रचना और आलोचना की भिड़ंत

रचनाकार लिखकर अपने काम से मुक्त हो चुका है | लेकिन वह यह भी चाहता है कि उसके लिखे को लोग पढ़ें | वह रचना के प्रकाशन को लेकर चिंतित होता है और उसके लिए सचेष्ट भी होता है | रचना प्रकाशित हो गई | मान लेते हैं कि प्रकाशित होने के बाद रचना को पढ़ भी लिया गया | रचनाकार का लक्ष्य यहीं पूरा हो जाना चाहिए था | लेकिन नहीं, उसे अभी कुछ और चाहिए | उसे मान्यता चाहिए अपने लिखे की | यह मान्यता उसे कौन देगा ? अव्वल तो रचनाकार को अंतिम मान्यता उसका पाठक ही देगा लेकिन पाठक की मान्यता से रचनाकार को संतोष नहीं है | ऐसे में एक रचनाकार आलोचक का मुखापेक्षी होता है | इस प्रकार रचनाकार और उसके पाठक के बीच एक तीसरी शक्ति आलोचना के रूप में अपनी जगह बनाती है | 

रचनाकार को रचना के मूल्य-निर्णय हेतु आलोचना की अनुशंसा क्यों चाहिए ? एक (महत्वाकांक्षी)रचनाकार अपने इर्द-गिर्द एक वर्ण-व्यवस्था कायम करना चाहता है | इस चतुष्वर्णी व्यवस्था में रचनाकार स्वयं को केंद्र में ब्राह्मण के रूप में स्थापित करने का आकांक्षी है | प्रकाशक रचना का व्यवसाय करता ही है सो वह इस व्यवस्था में वैश्य है | पाठक के कंधे पर चूँकि रचनाकार का पूरा ठाट बाट होता है इसलिए वह महत्वपूर्ण होते हुए भी शूद्र है जो प्रजा से अधिक महत्व तो नहीं पाता लेकिन उसे साहित्य में निर्णायक कहने-बताने की चतुर रणनीतिक कवायदें भी चलती रहती हैं | अब रचनाकार को कुछ पराक्रमी रक्षकों की आवश्यकता होती है जो तमाम रचनाकारों के बीच आपसी होड़ में उसे श्रेष्ठ के रूप में स्थापित करा सकें | इसप्रकार रचनाकार के आश्रम में आलोचक की जगह क्षत्रिय वाली हो जाती है | साधु प्रकृति के रचनाकार को इन बातों से कोई मतलब नहीं होता और उसे रचना के मूल्य-निर्णय की कोई प्रत्याशा भी नहीं होती है | 

आलोचक साहित्य में एक पावर सेंटर है यह मानते हुए इस पर विचार करना दिलचस्प होगा कि क्या उसका होना साहित्य की जरूरत है अथवा वह रचनाकार की निजी जरूरत है | यदि आलोचना रचनाकार की निजी जरूरत है तो आलोचक गिरोहबंद लश्कर या भाड़े का लठैत ही होगा | ऐसा आलोचक रचनाकार के हित में काम करेगा अथवा रचनाकारों के किसी साझा संगठन के हित में लाठी भाँजेगा | लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि रचनाकार की कमजोर नस हाथ में आते ही ऐसी आलोचना स्वतः एक पावर सेंटर बनकर उभरे | ऐसी स्थिति में रचनाकार को उठाने गिराने वाला गिरोह आलोचना के नाम पर खड़ा होता है | दोनों ही उदाहरण साहित्य में मौजूद हैं | इसके अपवाद स्वरूप साहित्य में सत्ता निरपेक्ष आलोचना भी अवश्य ही काम करती है जो अक्सर हाशिये पर होती है लेकिन जिसका एक नैतिक दबाव साहित्य के पावर डिसकोर्स पर रहता ही है | 

इस भूमिका के साथ ही इस बात पर विचार करना जरूरी है कि क्यों रचना और आलोचना जिनको एक दूसरे का पूरक होना चाहिये था एक दूसरे को कमतर साबित करने में अपनी ऊर्जा का क्षय करते पाये जाते हैं | रचनाकार प्रायः आलोचना को गिरोहबंद कहता है और आलोचक पर कई प्रकार के आरोप भी लगाता है | गिरोहबंदी अकादमिक दुनिया में अर्थात विश्वविद्यालय कैम्पस की दुनिया में आम बात है क्योंकि वहाँ प्रोफेसर-आलोचक अपने छात्र-रचनाकार का बहुत कुछ बनाने बिगाड़ने की ताकत रखता है | अपवाद छोड़ दें तो यह लगभग किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का विकट सत्य है | लेकिन ऐसा नहीं है कि हर-हमेश कैम्पस का छात्र-रचनाकार दूध का धुला ही होता है | यह एक गिव-ऐंड-टेक रिलेशनशिप की अपनी संरचना है जिसमें लेन-देन की आपसी जरूरतें अपनी भूमिका निभाती हैं | इस प्रसंग में बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | लेकिन कैम्पस के बाहर का रचनाकार भी कई बार अकेले या संगठित रूप से आलोचना से देना-पावना का संबंध बनाता है इसके उदाहरण भी कम नहीं | यह दोतरफा खेल है इसलिए विक्टिम प्ले करने वाले भी हैं और विलेन बनाए जाने वाले भी | साहित्य में दाखिल-खारिज का नेपथ्य यहाँ से खुलता है | जो इसमें दाखिल में आ गया वह अलग सरक लेता है | खारिज को लेकर हाहाकार उठता रहता है | 

आज परिदृश्य में बड़ी संख्या में रचनाकार मौजूद हैं | रचना विस्फोट जैसी परिस्थिति है | ठहर कर लिखने का धैर्य कम है | तुरंत मूल्य-निर्णय चाहिए | त्वरित मूल्यांकन चाहिए | इसके लिए क्या-क्या खेल नहीं खेले जाते | एक तरफ तो आलोचना के न होने का स्यापा है तो दूसरी ओर शिकायत भी आलोचना ही से है (जो है नहीं उससे शिकायत !) | कौन सही है कौन गलत, इसकी मीमांसा कौन करे, यहाँ तो एक दूसरे की गर्दन पर चढ़े हैं लोग कि हम जो कह रहे हैं उसे ही अंतिम मानो | रचनाकार अवसाद में जा रहे हैं या आत्महत्या कर ले रहे हैं | महत्वाकांक्षा के सामने जीवन छोटा साबित हो जाता है, ऐसी स्थितियाँ बन रही हैं | और आप कहते हैं कि आलोचना तो रचना की अनन्यता का सम्मान नहीं करती, कि उसकी साधारणता का उद्घाटन नहीं करती, कि वह कृति के साथ अपना संबंध न बना कर अपनी वैचारिकी का रकबा बढ़ाती है, कि उसे तो सृजनात्मक अनुभव के समक्ष विनम्रता से प्रस्तुत होना चाहिए अन्यथा वह आलोचना छिछली, सतही और यांत्रिक है, कि रचना के अबूझ-असपष्ट-दुर्बोध आदि होने की बातें उसका दुराग्रह हैं, कि विशिष्ट की मौलिकता की उपेक्षा हो गई, कि आलोचना की सारी कसौटियाँ रूढ़ हो चुकी हैं आदि आदि | मतलब आप रचनाकार हैं तो ब्राह्मण हैं, पूज्य हैं ? अरे भाई, ब्राह्मण हैं तो अपनी बभनौटी बनाइये और रहिये जाकर | 

एक और बात, साहित्य में संपादक और आयोजक नये पावर-ब्रोकर के रूप में उभरे हैं और इनमें रचनाकार ही प्रमुख रूप से अपने समूचे विद्रूप के साथ सामने आ रहे हैं | अकाल आलोचना का नहीं, उस नैतिक साहस का है जिसके बिना रचना भले बन जाए, रचनाकार नहीं बना जा सकता | रचनाकार का आलोचना से युद्ध दरअसल अपनी छाया से युद्ध है और इस छाया युद्ध में भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद और पटना में कोई फर्क नहीं है |

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