कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं , “मोर नाम एई बोले ख्यात होक , आमि तोमादेर-ई लोक” | वे अपनी पहचान ही इस रूप में चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना आदमी ही जानें |
कविता का लोक कौन है यह बात शुरू में ही साफ हो जानी चाहिए | साहित्य और कविता के इलाक़े में गरीबी रेखा जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती | कसौटी यह है कि वह व्यक्ति पीड़ित है अथवा पीड़क , दुखी है कि दुख देने वाला है | जरा हिन्दी के लोकगीतों को याद करें | कैसा है उसका सत्ता विमर्श अथवा पावर डिसकोर्स ? यह अद्भुत बात है कि लोक पर जिस राजा का शासन है उस लोक के दमित स्वप्नों में एक बड़ा स्वप्न उसी तरह का राजा बनना भी है | ऐसे तमाम लोकगीत मिल जाएंगे जिनमें माता-पिता अपने बेटे-बेटियों को राजकुमार- राजकुमारी के रूप में देखना चाहते हैं | लड़कियों के सपनों में राजकुमार ही आता है, कोई मजदूर नहीं | लड़के अपने लिए राजकुमारियों का ख़्वाब बुनते हैं | एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्पना करता है तो उस कल्पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते हैं , जहां उसे श्रम नहीं करना होता है |
लोक के प्रति पूर्ण आस्था और समर्पण की अनन्य कविता है अज्ञेय की “असाध्य वीणा” | असाध्य वीणा के साधक की कृतज्ञता तो प्रकृति के लघुतम अवयवों तक जाती है | कविता के केंद्र में राजा के दरबार में रखी मंत्रपूत वीणा है जिसे कोई कलावंत अब तक साध नहीं पाया था | यह वीणा तभी बोलेगी जब कोई सच्चा स्वरसिद्ध साधक उसे अपनी गोद में लेगा | कुछ आलोचक कविता को इस आधार पर लोक विरोधी बताते हैं कि इसमें कला साधक राजा के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करता है | जैसा कि ऊपर के अनुच्छेदों में स्पष्ट किया गया है , लोक का राजा अथवा राज दरबार के साथ व्यवहार इकहरा नहीं रहा है | जिस राम राज्य के प्रति भारतीय लोक के मन में गहरी श्रद्धा और अगाध आस्था रही है वह भी एक राजा की ही मूर्ति है | और यहाँ तो राजा इस कला साधक को तात कह कर संबोधित करता है | प्रियंवद के समक्ष केवल राजा-रानी ही नहीं हैं , उस सभा में “जन” भी हैं | यह जन की आकांक्षा भी है कि अभिमंत्रित वीणा को साध ले, ऐसा कोई साधक आए | असाध्य वीणा के तार क्या सिर्फ राजा रानी के मनोरंजन के लिए हैं ? नहीं , ऐसा तो कोई संकेत कविता में नहीं मिलता -
“तात ! प्रियंवद ! लो,यह सम्मुख रही तुम्हारे / वज्रकीर्ति की वीणा / यह मैं , यह रानी , भरी सभा यह / सब उदग्र , पर्युत्सुक / जन मात्र प्रतीक्षमाण !”
ध्यान दें कि कविता के आखिर में वह “जनता” है जो कला साधक को धन्य-धन्य कहती है – “जनता विह्वल कह उठी , धन्य ! हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य !” | क्या कविता से इस जनता को इसलिए निकाल बाहर किया जाए कि यह कविता अज्ञेय की है | स्मरण करना चाहिए कि वीणा जब झनझना उठती है तो उसके संगीत में किसने क्या सुना –
“इस को वह कृपा वाक्य था प्रभुओं का / उस को आतंक-मुक्ति का आश्वासन / इस को वह भरी तिजोरी में सोने की खनक / उसे बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुदबुद / किसी एक को नयी वधू की सहमी सी पायल ध्वनि / किसी दूसरे को शिशु की किलकारी / एक किसी को जाल-फंसी मछली की तड़पन / एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की / एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल , गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ / चौथे को मंदिर की ताल युक्त घंटा ध्वनि / और पांचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें / और छ्ठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की / अविराम थपक / बटिया पर चमरौंधे की रुंधी चाप सातवें के लिए / और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल / इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की / उसे युद्ध का ढोल”
संगीत को नाद ब्रह्म कहा गया है | वह जोड़ता है , तोड़ता नहीं | प्रियंवद की संगीत साधना के पश्चात “इयत्ता सबकी अलग अलग जागी / संघीत हुई / पा गई विलय” का तात्पर्य समझना होगा | यह विलय रेखांकित करने योग्य है | एक समूचा लोक जीवंत रूप में यहाँ धड़कता हुआ उपस्थित है | इस प्रसंग को राज सत्ता से जोड़ना उसे सीमित कर देने जैसा होगा | जहां आतंक-मुक्ति का आश्वासन है , जहां बटुली में अन्न की सोंधी खुदबुद है , नयी वधू की सहमी सी पायल ध्वनि , शिशु की किलकारी , जाल-फंसी मछली की तड़पन , मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया , मंडी की ठेलमठेल , मंदिर की घंटा ध्वनि , लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें , लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक , बटिया पर चमरौंधे की रुंधी चाप , कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल , गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की और युद्ध का ढोल भी है , वहाँ कैसे कह दें कि यह हिंदी कविता का लोक नहीं है |
और जरा प्रियंवद कि साधना को देखें | उसका समर्पण देखें | क्या कहता है प्रियंवद , राजा को – “श्रेय नहीं कुछ मेरा / मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में / वीणा के माध्यम से अपने को मैंने सब कुछ को सौंप दिया था / सुना आपने जो वह मेरा नहीं / न वीणा का था / वह तो सब कुछ की तथता थी / महाशून्य / वह महामौन / अविभाज्य , अनाप्त अद्रवित , अप्रमेय जो शब्दहीन सब में गाता है” | कबीर ने यही तो कहा था – तेरा तुझको सौंपता – नहीं ? अरुण कमल भी तो यही कहते हैं – सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार |
कहने कि आवश्यकता नहीं कि “असाध्य वीणा” मनुष्य और प्रकृति के सह-अवस्थान और अपने लोक के प्रति अगाध कृतज्ञता बोध की विलक्षण गाथा है | अपने लोक के प्रति कृतज्ञता-बोध से भरा कवि ही कहा सकता है – “आमि तोमादेर-ई लोक” |
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