Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -51


नमक की जो भूमिका आपकी थाली में परोसी गई सब्ज़ी में है, अँचार की जो भूमिका भोजन की थाली में है वही भूमिका किसी काव्य उपादान या इन्ग्रेडीएन्ट की एक कविता में हुआ करती है | मसलन राजनैतिक विचार, उक्ति वैचित्र्य आदि कविता को अधिक प्रभावशाली तभी बनाते हैं जब उनकी मात्रा पर कवि का नियंत्रण होता है | अन्यथा बहकी बहकी बातें करने वाली कविताएँ उस सब्ज़ी की तरह हो जाती हैं जिसमें नमक बेहिसाब पड़ गया है और कौर मुँह में डालते ही सँभालना कठिन हो जाता है | ज़रा कल्पना कीजिए जिस अँचार को भोजन करते हुए आप स्वाद बदलने के लिए बीच-बीच में चखते हुए उसके गुणों पर रीझते हैं अगर वही अँचार थाली भर परोस दिया जाए तो क्या हाल होगा आपकी रसना का |
मात्रा का महत्व कविता और रसोई दोनों जगहों पर निर्विवाद रूप से सिद्ध है | तभी तो कहते हैं कि राग रसोइया पागरी कभी कभी बन जाय | उदाहरण के लिए सधे हुए राजनैतिक विचार के लिए आप मुक्तिबोध की कविताएँ देख लें | उक्ति वैचित्र्य के लिहाज से आप धूमिल की कविताओं से बातें कर सकते हैं | उक्ति वैचित्र्य काव्य में चमक पैदा करता है | मसलन धूमिल जब तितली के पंख में पटाखा बाँधने की बात करते हैं | यह असंभव कल्पनाशीलता कविता में उक्ति वैचित्र्य की तरह उपस्थित होती है और सहज ही पाठक को आकर्षित करती है | उक्ति वैचित्र्य का प्राथमिक काम ही है सम्भावित पाठक या श्रोता का ध्यानाकर्षण | किसी व्यक्ति को आप संबोधित तभी कर पाते हैं जब वह आपके कहे पर ध्यान केन्द्रित कर पाने की स्थिति में हो | मुक्तिबोध उस अर्थ में ऐसी किसी उक्ति का अवलंबन नहीं करते बल्कि वे अपने पाठक से एक स्तर की राजनैतिक समझदारी और वैचारिक तैयारी की अपेक्षा रखते हैं | कहने का उद्देश्य यहाँ इतना ही है कि ये जो कविता के उपादान हैं इनका उपयोग कवि किस तरह और किस मात्रा में अपनी कविता में करता है इस बात से कवि की अपनी रेसिपी तैयार होती है जिससे उसकी कविता के स्वाद को अनुभव किया जा सकता है |
ख़ास जमात वाली कविताओं की अपनी विशिष्ट निर्मितियाँ भी हैं | कविता धर्म और जाति पर चोट करती है, वर्ग संघर्ष की बात करती है और शोषण के खिलाफ उच्च स्वर में बोलती है तो उसे विद्वान प्रगतिशील-जनवादी जमात की कविता मान लेते हैं | वहीं कविता में खेत, किसान, खपरैल, गाँव आदि आते ही वे उसे लोकधर्मी जमात की कविता मान लेते हैं | दुखद है यह सब | क्योंकि कविता की वास्तविक पहचान तो समग्रता में उसमें जीवन कितना और किस तरह समाता है इस आधार पर होनी चाहिए | दुखद है कविता में जन और लोक को अलग अलग जमातों में बाँटा जाना | जन और लोक कविता के नमक-अँचार नहीं है यह बात हमें समझनी चाहिए | वे कविता की थाली के दाल-रोटी हैं | कविता की देह को पुष्टि चाहिए | उसका स्वाद फीका हो तब भी हर्ज नहीं | स्वाद से भोजन की गुणवत्ता तय नहीं होती | लेकिन यह जो कविता समय है वह तो मानो स्वाद पर ही रीझना जानता है |
प्रेम इस कविता समय में शीत्कार में बदल चुका है और क्रान्ति फुत्कार में | कविता की हकीकत यह है कि प्रेम और क्रान्ति को अधिकांश कवियों ने नमक-अँचार में तब्दील कर दिया है और उसे अपनी-अपनी थाली में सजा कर इतरा रहे हैं | ढेरों प्रेम कविताएँ उसी समय में लिखी जा रही हैं जब गैंग रेप की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं | यह कैसा प्रेम है | यह किनका प्रेम है | क्रान्ति के स्वप्न को एक सुखद समझौते में बदलते हुए जब अधिकांश कवि सुविधावाद के निरापद मार्ग पर निकल पड़े हों तब यह सारी कवायद नागार्जुन की मन्त्र कविता में सुनाई देती है | नागार्जुन से बड़ा एक्टिविस्ट कवि कौन हुआ है हिन्दी में | लेकिन नागार्जुन के यहाँ बड़बोलापन नहीं मिलेगा आपको | एक एक्टिविस्ट कवि के रूप में नागार्जुन जितना संतुलन कविता में साध ले जाते हैं वह दुर्लभ है | वहाँ आस्फालन और नारे नहीं मिलते बल्कि एक उदात्त और संयत आक्रोश दिखाई देता है |  कविता का मैदान ऐसा है जहाँ एक्टिविस्ट होना जितना आसान है नागार्जुन होना उतना ही कठिन | अच्छे एक्टिविस्ट अच्छे कवि भी हों यह कतई जरूरी नहीं है लेकिन हर अच्छे कवि को थोड़ा बहुत एक्टिविस्ट होना चाहिए | कम से कम इतना तो जरूर होना चाहिए कि किसी चौराहे पर खड़े होकर किसी छुट्टी के दिन एक कविता पढ़ी जा सके या एक कविता पोस्टर ही बनाया जा सके | 
लम्बे समय से कविता लिख रहे किसी कवि की पहली किताब का एक मतलब तो होता ही है | ख़ास तौर पर तब जबकि वह एक्टिविस्ट के रूप में अधिक पहचाना जाता रहा हो | आप किसी भी कवि को अपने सोच के मुताबिक़ देखने परखने के लिए स्वतन्त्र हैं | उतनी ही स्वतंत्रता आपको उन सबको देनी चाहिए जो भिन्न दृष्टि से उसी कवि को देखते परखते हैं | यह मामला उतना ही सहज है जितना यह कि किसी एक व्यक्ति को आम का अँचार पसंद है तो दूसरे को नींबू का अँचार अधिक प्रिय है | आपको हक़ है कि आप किसी एक कवि को महज इसलिए पसंद करें कि वह एक खास राजनैतिक पार्टी की राजनीति करता रहा है | लेकिन पार्टी विशेष को कविता या कवि पर तरजीह देना एक किस्म के जातिवाद को बढ़ावा देना है जिसे आप अनचाहे प्रश्रय दे रहे होते हैं जब आप किसी कवि के साथ सिर्फ उसके पोलिटिकल स्टैण्ड के आधार पर खड़े होते हैं | कवि की अगर कोई राजनीति है तो वह उसकी कविता में दिखाई देगी और उससे भी आगे जाकर वह कवि के जीवन में दिखाई देगी | कविता से बढ़कर कोई गवाही नहीं होती कवि के पक्ष में | आप लाख जतन कर लें तो भी कविता में नागार्जुन, धूमिल, गोरख, पाश और शमशेर दोबारा नहीं पैदा होंगे | कवि अपने युग की परिस्थितियों का बाई-प्रोडक्ट होता है | आप उसे फिनिश्ड प्रोडक्ट की तरह लॉन्च करना बंद करें कविता की बेहतरी तो इसी में है |




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