Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -64

सोज़े वतन की प्रतियाँ ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली थीं जब यह छप कर आया ।प्रशासन की ओर से कड़ी चेतावनी दी गई कि यदि आगे भी लेखन जारी रहा तो जेल में डाल दिया जाएगा । तब प्रेमचंद धनपत राय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे । ज़माना नाम के उर्दू रिसाले में वे छपा करते थे । ज़माना के सम्पादक की सलाह पर धनपत राय ने प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया और क्या खूब लिखते रहे । आज हम देख रहे हैं कि एक धमकी के बाद ही बड़े बड़े लेखक देश छोड़ कर चले जाने की बात करते हैं । प्रेमचंद को इस कोण से भी समझने की जरुरत है ।   
तीन सौ कहानियाँएक दर्जन उपन्यासऔर लगभग तीस हजार पात्रों को रचने वाला एक लेखक । एक सम्मानजनक नौकरी और सुरक्षित जीवन का त्याग करके स्वतन्त्र लेखक का जीवन चुनने वाला लेखक । प्रेमचन्द के परिचय के कोण अनेक हैं । लेखक प्रेमचन्द के उभार का समय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उभार का समय भी था । महात्मा गाँधी और बाबा साहेब अम्बेडकर के राजनैतिक सामाजिक आन्दोलनों की उथल पुथल ने प्रेमचंद को गहरे प्रभावित किया । यह एक तथ्य है कि सन उन्नीस सौ पंद्रह में अपनी पहली कहानी के साथ हिंदी में आने वाले इस लेखक का रचनाकाल महज बीस एक साल का रहा । आखिरी कहानी कफ़न वे सन उन्नीस सौ छत्तीस में लिखते हैं । हिंदी कहानी का  एक   दौर प्रेमचंद के नाम दर्ज़ है । कितनी दिलचस्प बात है की उन्हें उपन्यास सम्राट का खिताब बांग्ला के शरतचंद्र से मिलता है । 
प्रेमचंद को इस साल केन्द्रीय विद्यालय काचरापारा काम्पा परिसर के बच्चों ने भी याद किया । नीलाम्बुज सिंह के बुलावे पर इन बच्चों के बीच प्रेमचन्द और हमारा समय विषय पर संगोष्ठी में जाना हुआ । स्कूली बच्चों ने प्रेमचंद की कहानियों पर सुन्दर पोस्टर तैयार किए थे । प्रेमचंद की जीवनी पर आधारित चित्र प्रदर्शनी भी लगाईं । सबसे सुन्दर बात यह रही कि बांग्ला भाषी बच्चों ने भी प्रेमचंद पर तैयारी के साथ अपनी बातें रखीं ।  नमक का दरोगा कहानी का बांग्ला अनुवाद विद्यालय के ही एक बच्चे ने प्रस्तुत किया । 
प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था तो इसके निहितार्थ क्या थे यह समझने की जरुरत है । बदलाव की जमीन सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर पहले तैयार होगी । राजनैतिक उद्देश्यों के साथ वह इसके उपरांत ही जुड़ सकती है । हमारा दुर्भाग्य ही है कि बिना किसी सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे के देश का इतना बड़ा लोकतंत्र राजनैतिक कवायद को ही बदलाव का मोर्चा माने बैठा है । प्रेमचंद इस बात को महसूस कर रहे थे कि जॉन की जगह गोविन्द के आ जाने भर से मंजर नहीं बदलेंगे । हमारे समय का एक दारुण दुःख यह भी है कि जॉन और गोविन्द जितना रस्मी बदलाव ही हम देख पाते हैं । आप चाहें तो जॉन और गोविन्द की जगह यू पी ए और एन डी ए भी पढ़ सकते हैं । क्या दिल्ली और क्या लखनऊ और क्या कलकत्ता चित्र सर्वदा एक जैसा ही मिलता है । मुखौटे भर बदल दिए जाते हैं और कहीं कहीं तो मुखौटे बदलने में भी दस बीस या चौंतीस साल का समय बीत जाता है । 
प्रेमचंद का अमर वाक्य आज याद करना चाहिए । क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे ? ईमान की चिंता प्रेमचंद की किन्द्रीय चिंताओं में से एक है । संकट आज मनुष्य के ईमान को बचा पाने का भी है । महाजन की जगह कारपोरेट ताकतें आ गई हैं । धर्म अपने विद्रूप के साथ समाज की हकीकत बना हुआ है । जाति और वर्ण का भेद गहरा से और गहरा होता चला गया है । आखिर पिछले एक सौ वर्षों में सामाजिक स्तर पर क्या बदला है सिवाय इसके कि छोटी दुकानों से निकल कर आप मॉल जाने लगे हैं या टाइप   राइटर छोड़कर डेस्कटॉप का प्रयोग करने लगे हैं या तार से आगे एस एम् एस और ईमेल भेजने लगे हैं । जब चुनाव आते हैं लोगबाग अगड़े पिछड़े या हिन्दू मुसलमान बन जाते हैं । तो अंततः ये बातें सामाजिक सांस्कृतिक मोर्चे पर हमारी दरिद्रता को ही तो उजागर करती हैं । 
प्रेमचंद के पूरे साहित्य में कुछ बीज शब्द हैं । ईमान और मरजाद ऐसे ही शब्द हैं जिनपर आज खतरा सबसे बढ़कर है । सार्वजनिक जीवन में बड़े बड़े लोगों के करोड़ों के घोटाले देखसुनकर कान पक गए हैं । किसान का जीवन आज भी ऋण के जाल में मछली सा फँसा है । दलित और स्त्री अस्मिता के सवाल आरक्षण की नीतियों के हवाले हैं । लेखक सत्ता के चरणों में लोट रहे हैं । ऐसे में उस प्रेमचंद का जीवन निश्चित ही एक मिसाल है जिसने इन्स्पेक्टर ऑफ़ स्कूल की नौकरी छोड़कर कष्टसाध्य जीवन समय की माँग पर चुना । हममें से कितनों में इस विवेकपूर्ण फैसले का साहस है आज यह प्रश्न भी विचारणीय होना चाहिए ।        
प्रेमचंद अपने जीवन के अंतिम वर्ष में अर्थात सन उन्नीस सौ छत्तीस में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए जिस लखनऊ में प्रगतिशील लेखक की अवधारणा पर सवाल उठा रहे थे उसी लखनऊ में हिंदी का लेखक समाजवाद के नाम पर बाप बेटे की सरकार चालाने वालों और जाति की राजनीति करने वालों के आगे दरबारी की तरह खड़ा पाया जाता है । प्रेमचंद की परंपरा  किसी पार्टी की विचारधारा की बंधक नहीं है । प्रेमचंद गाँधी से प्रभावित होते हुए भी जाति और वर्ण की सामाजिक अवधारणा से टकराते हैं । वे अम्बेडकर से प्रभाव ग्रहण करते हुए भी पूना पैक्ट पर सवाल कर सकते हैं । ये बातें आज भी विचारणीय हैं । 
लोग प्रेमचन्द के जीवन के विभिन्न प्रसंगों की आड़ में उन्हें प्रतिगामी साबित करना चाहें भी तो इसके लिए उन्हें प्रेमचंद के विपुल लेखन के साथ साथ उनके जिए और किए का हिसाब किए बिना आगे बढ़ना मुनासिब नहीं होगा । प्रसंग चाहे पहली पत्नी के त्याग का हो या विवाहेतर सम्बन्ध का हो चाहे बेटी की बीमारी में झाड़ फूँक करने करवाने का हो एक बात पाठकों को नहीं भूलनी चाहिए कि लेखक भी अंततः मनुष्य होता है । एक सच्चा लेखक आजीवन अपनी सीमाओं की पहचान करते हुए अपने अभ्यन्तरीन विचलनों के साथ लड़ते भिड़ते हुए जीता है । प्रेमचंद भी एक मनुष्य थे । अपनी कतिपय सीमाओं के साथ भी वे उतने ही समादृत और स्वीकार्य हैं । 


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