Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -45


‘निकल गली से तब हत्यारा / आया उसने नाम पुकारा / हाथ तौल कर चाकू मारा / छूटा लोहू का फ़व्वारा / कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी’ - कविता से बाहर निकल कर रामदास पिछले दिनों हमारे सामने आ खड़ा हुआ था | प्रतिरोध की आवाज़ों को जिस निसृंश तरीके से और जिस निर्ममता के साथ दबाने के लगातार दृष्टांत इधर सामने आये उनको देखते हुए रघुवीर सहाय की कविता का रामदास मानो फिर पुनर्जीवित होकर सामने खड़ा था | रामदास हमसे सवाल कर रहा था - क्या इस हत्या का कोइ प्रतिकार संभव है ? क्या मोमबत्ती जुलूस और धरना प्रदर्शन से आगे भी नागरिक जमात का गुस्सा किसी मुकाम तक पहुँचेगा ?
मुझे बार बार इस बात का अहसास होता है कि सभ्य समाज के अभ्यंतर में गुस्से से अधिक भय है | सिविल सोसाइटी डरी हुई है | वह सीधे किसी टकराव की स्थिति में नहीं पाती खुद को | और इसीलिए गुस्से का अभिनय करती है | विरोध और प्रदर्शन के आयोजन इसी भय का प्रकटीकरण हैं | यह गुस्सा स्वतःस्फूर्त गुस्सा नहीं है | होता तो यह अपने प्रतिकार को भी पा लेता | किसी घटना विशेष का उल्लेख न भी करें तो एक बात जो सामान्य तौर पर ऐसे नागरिक गुस्से को लेकर लक्षित की जा सकती है वह यह कि बहुत जल्द ही यह गुस्सा ठण्डा पड़ जाया करता है और अगली किसी दुर्घटना तक के लिए नागरिक जमात अपने रूटीन जॉब में लग जाती है | अपवाद छोड़कर ऐसे मौके फोटो शूट में बदल जाया करते हैं |
क्या आपको नहीं लगता कि बाहर किसी आर पार की लड़ाई से पहले हमें अपने घर को ठीक करने की जरूरत है | शत्रु जब घर के भीतर होता है तब उससे लड़ना कठिन होता है | बात स्त्री अधिकारों की हो अथवा सामान्य नागरिक अधिकारों की उसको संबोधित करने की प्राथमिक जगह हमारे घर ही होते हैं | हत्यारे आसमान से नहीं उतरते | उनका ब्रीडिंग ग्राउण्ड ये घर और ये समाज ही होते हैं प्रथमतः | ज़रा सोचिये ऐसे किसी प्रतिरोधमूलक अनुष्ठान का क्या अर्थ रह जाता है जब तक यह सुनिश्चित न कर लिया जाए कि हर स्त्री अपने घर में समस्त नागरिक अधिकार पा सके | बाहर किसी हत्यारे से हम तब तक डरते रहेंगे जब तक कि अपने घरों को ऐसे किसी अपराधी से पूरी तरह निर्मूल नहीं कर लेते |
यह जो तथाकथित विकास करता हुआ समाज है उसकी बुनियाद में ही गड़बड़ी है | ऐसे समाज के विकसित होने का क्या अर्थ रह जाता है जिसमें अपने मन की बात कहने की सजा व्यक्ति की हत्या है | साहसी लोग आज की दुनिया में बहुत कम हैं | और जो हैं वे भी मारे जा रहे हैं | वे मारे इसीलिए जा रहे हैं कि वे संख्या में बहुत कम हैं | यकीन मानिए जिस दिन साहसी लोग संख्या में अधिक होंगे उनका मारा जाना स्वतः बंद हो जायेगा | रामदास जब मारा जाता है तब कोई हत्यारे को रोकने के लिए बाहर नहीं आता लेकिन तमाशा देखने के लिए बहुत से लोग बाहर आते हैं | दोस्तो यह तमाशा देखना जब तक चलता रहेगा तब तक रामदास जैसे लोग मारे जाते रहेंगे | भय हत्या को भी तमाशे में बदल देता है |
ढाका में एक पत्रकार लेखक इसलिए मार दिया जाता है कि वह मुक्त मन से मौलवादी ताकतों के खिलाफ ब्लॉग लिखता रहा है | कोई हत्यारों को रोकने की कोशिश नहीं करता | लेकिन हत्या के बाद बहुत से लोग प्रदर्शन करते देखे जाते हैं | कौन हैं ये लोग ? इनके हाथों में जलती हुई मशालें हैं जो संभवतः बैटरी चालित हैं और बाँस की लगभग एक जैसी लाठियों से तैयार की गई हैं | विरोध प्रदर्शन की अगली कतार में कुछ महिलाएँ हैं जिनके पहनावे और केश सज्जा को देख कर कहना मुश्किल हो जाता है कि यह किसी विरोध प्रदर्शन में निकली हैं या फैशन परेड में | कई नौजवान नंगे बदन अपनी देह पर लाल रंग में नारे लिख कर विरोध करते देखे जाते हैं | ये कौन हैं ? ये तब कहाँ होते हैं जब कोई हत्यारा अपना चाकू निकाल रहा होता है | तब कहाँ बिला जाता है वह गुस्सा जो इन तसवीरों में उबाल खाता हुआ दिखता है | यह गुस्सा है भी या गुस्से का अभिनय मात्र है |
दिल्ली की सड़कों पर एक लड़की इसलिए मार दी जाती है कि उसने देर शाम किसी दोस्त के साथ शहर में निकलने की हिमाकत की है | चार अशिक्षित लम्पट गुण्डे बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर देते हैं और कोई शहरी अपनी कार तक नहीं रोकता | लेकिन विरोध प्रदर्शन और मोमबत्ती जुलूसों में पूरी दिल्ली उमड़ पड़ती है | यह कौन सी दिल्ली है ? समाज में और जीवन में बदलाव इसलिए भी नहीं दिखता कि जहाँ जेनुइन गुस्सा होना चाहिए वहाँ गुस्से का अभिनय मात्र है | जहाँ जेनुइन विरोध होना चाहिए वहाँ विरोध का अभिनय मात्र है | बात ढाका या दिल्ली की ही नहीं | यह देश के किसी भी हिस्से की साधारण सी बात है | हम बेहद डरे हुए लोग हैं जो बातें तो बड़ी बड़ी कर लेते हैं पर हत्याओं का सिलसिला रोकने लिए खुद कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते | हम अपने बच्चों को भी यही तालीम देते हैं | एक आत्मकेंद्रित समाज का यह डरा हुआ चेहरा है जो आये दिन हमारे रू-बरू होता है |
एक भयाक्रांत आत्मकेंद्रित समाज के भीतर कोई हत्यारा यदि हीरो बन जाता है तो उसके कारण इसी समाज के भीतर खोजे जाने चाहिएँ | कोई और आकर हमारे लिए सबकुछ बढ़िया और सुन्दर बना देगा यह संभव नहीं है | कोई उद्धारक नहीं आने वाला | वह होता तो रामदास न मारे जाते | वह होता तो मुक्त मन का लेखक न मारा जाता | न मारी जाती कोई लड़की दिल्ली की सड़कों पर | हत्यारे नागरिक मन के इसी भय से ऑक्सीजन पाते हैं | हत्यारों को नागरिक जमात का सामूहिक साहस ही मार सकता है | वह सामूहिक साहस जिसे मुक्तिबोध परम अभिव्यक्ति नाम देते हैं | रामदास पराजित तभी होते हैं जब वे अकेले होते हैं |



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