Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट - 47


जिनको हम अक्सर सुनते हैं उनकी आवाज़ की तरंगें दिमाग में दर्ज़ हो जाती हैं । कहीं रेडियो पर गीत बज रहा हो तो हम आँख बंद किए हुए ही बता देते हैं कि यह किशोर कुमार का गला है या मुहम्मद रफ़ी का है या फिर मुकेश ,तलत महमूद का है । लता मंगेशकर की आवाज़ में एक गीत बजता है - मेरी आवाज़ ही पहचान है । कवि की अपनी आवाज़ जहाँ सुनाई पड़ती है वह इलाका उसकी कविता का होता है । 
संगीत में श्रोता जिस तरह गायक की आवाज़ की शिनाख्त करता है उसी तरह कविता का पाठक कवि की आवाज़ की शिनाख्त उसकी कविता में करता है । लेकिन श्रोता और पाठक दोनों के लिए हालात तब बड़े मुश्किल भरे हो उठते हैं जब आवाज़ की शिनाख्त ही न की जा सके । वह भ्रमित होता है । और उसे भ्रमित करने वाला भी कोई कलाकार ही होता है । भ्रमित करने की यह कला है मिमिक्री । आप जानते हैं कि बढ़िया मिमिक्री आर्टिस्ट आपको किशोर कुमार की आवाज़ में गाना सुना सकता है और आप को लगेगा कि अरे यह तो वही आवाज़ है । कविता की दुनिया में मिमिक्री करने वाले कवि भी कामयाब हो जाते हैं ठीक इसी तरह ।
लेकिन यह एक तथ्य है कि दिलों पर राज वही करते हैं जो अपनी मौलिकता के साथ गीत गाते या कविता लिखते हैं । अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद कुमार शानू और बाबुल सुप्रियो किशोर कुमार की मिमिक्री करने वाले गायक हैं । शब्बीर कुमार और मुहम्मद अजीज एक जमाने में मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ की मिमिक्री करते थे । कविता के भी अपने कुमार शानू और शब्बीर कुमार हर दौर में रहे हैं ।
जब तब लोग पूरी समकालीन कविता को ही केदार स्कूल की कविता कह कर निकल जाते हैं । केदार स्कूल से मतलब केदारनाथ सिंह की कविता के घराने से हैं ।
यहाँ एक बात पर ध्यान देना जरुरी है । अपनी गायकी के शुरुवाती दौर में किशोर कुमार और मुकेश तक कुंदन लाल सहगल की मिमिक्री किया करते थे । लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी निजी और मौलिक आवाज़ पा ली या उसे अर्जित कर लिया । बहुत कम कलाकार अपने लिए यह कर पाते हैं । कविता में भी पूर्ववर्ती कवियों के प्रभाव से मुक्त हो जाने वाले कवि हर दौर में कम हुए हैं । वे बहुत जल्द अपनी आवाज़ को अर्जित कर लेते हैं ।
कविता में किसी कवि के लिए अपनी परंपरा से अलग होना मुमकिन नहीं होता । वह काव्य परंपरा में कुछ नया जोड़कर अपना हक़ अदा करता है । मेरा
स्पष्ट मानना है कि केदारनाथ सिंह की कविता का कोई वैसा घराना है ही नहीं । वे अपनी ओर से कविता को अधिक सहज और सम्प्रेषणीय जरुर बनाते हैं । उसे आमफहम जुबान में संभव करते हैं । केदारनाथ सिंह का काव्य संसार अपनी विलक्षणता के लिए नहीं पहचाना जाता जैसा कि मुक्तिबोध की कविता पहचानी जाती है । ऐसे में यह विचार का विषय होना चाहिए कि मुक्तिबोध जैसी कविता क्यों फिर संभव नहीं हो सकी जबकि केदारनाथ सिंह जैसी कविता बहुत से लोग लिखते हैं । आधुनिक हिन्दी कविता निराला से अज्ञेय और रघुवीर सहाय ,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि तक बहुत हद तक आम बोलचाल की भाषा में ढल चुकी होती है । केदारनाथ सिंह उसमें अपना कहन जोड़ते हैं । वे निस्संदेह महत्वपूर्ण कवि हैं किन्तु मुक्तिबोध की तरह के युगांतकारी कवि वे नहीं हैं ।
कविता में अपनी आवाज़ पाने की जद्दोजहद सबसे अधिक कहीं दिखती है तो वह विनोद कुमार शुक्ल की कविता का संसार है । यहाँ एक छोटा सा किस्सा याद आ रहा है । एक दुकानदार ने अपनी दुकान के सामने बड़ा ही सुन्दर बोर्ड लगाया था जिसमें बताया गया था कि वहाँ फलाँ फलाँ चीजें मिलती हैं । लेकिन बहुत वक़्त बीता वहाँ कोई ग्राहक नहीं आया । लोग देख कर गुज़र जाते । एकदिन दुकानदार ने उस ख़ूबसूरत बोर्ड को उलट दिया । आश्चर्य कि अब इस उलटे बोर्ड को देखने के लिए लोग आते जाते रुक कर देखने लगे । उनकी उत्सुकता उस लिखे में बढ़ने लगी थी अब जबकि वह उलटा लटका हुआ था । यही बोर्ड उलटने का काम विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी कविता में करते हैं । और लोग उनकी तरफ गौर से देखते भी हैं । उनमें उपलब्ध शिल्प को तोड़ने की जिद जबरदस्त है । यहाँ तक कि वे सायास सीधी बात भी उलटे तरीके से कहते हैं । यहाँ उदाहरण देने का अवकाश नहीं है । उनकी कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं । इसके मनोवैज्ञानिक कारण है जिनकी व्याख्या जरुरत पड़ने पर अलग से की जा सकती है ।
आप यह भी देखें कि अलग होना और अलग दिखना दो अलग बातें हैं | अलग दिखना किशोर उम्र का मनोवैज्ञानिक आधार है | मिमिक्री करना शैशव का मनोवैज्ञानिक आधार है | सचमुच अलग होना युवा का मनोवैज्ञानिक आधार होता है | कहने का अर्थ यह कि किसी कवि में लेखन के शुरुवाती दौर में बहुत संभव है कि उसकी आवाज़ किसी ऐसे कवि से मिलती है जिसकी अपनी पहचान तब तक स्थापित और स्वीकृत हो चुकी है | उम्र ज़रा बढ़ने पर अलग दिखने की स्वाभाविक चाह उसमें नयेपन का आग्रह पैदा करती है | लेकिन युवा होते होते उसे अपनी पहचान बनानी होती है | यह विकास का स्वाभाविक नियम है | लेकिन हम जानते हैं और समाज का इतिहास बताता है कि बहुधा युवा होने तक व्यक्ति की मानसिक उम्र कम भी हुआ करती है | किसी क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट के पास जाइए तो वह आपकी मेंटल एज बता देगा | वह आपकी फिज़िकल एज से अलग भी हो सकती है | कविता में यह अक्सर होता है कि एक कवि की भौतिक उम्र के आधार पर हम उसे वरिष्ठ कवि कहते हैं या ऐसा कहने की परंपरा है | कवि की आवाज़ का उसकी भौतिक उम्र से नहीं बल्कि उसकी मानसिक उम्र से वास्ता होता है | कविता में युवा होना दरअसल अपनी आवाज़ को अर्जित कर लेना है | एक कवि के विकास का ग्राफ़ इस बात के संकेत देता है कि कवि किस उम्र में है और उसने अपनी आवाज़ पा ली है या किसी हिट गाने के कोरस गान में शामिल है |
  

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