Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -53

हिन्दी कविता के युवा-स्वर का जितना शोर अपने चर्चित नामों के आलोकित मंच पर सुनाई देता है उससे कहीं अधिक मुखर वह उसके नेपथ्य में पार्श्व-संगीत की तरह बजता रहता है । प्रश्न है कि आलोकित मंचों पर पुरस्कारों से सजी-सँवरी कविता क्या वास्तव में हिन्दी कविता के युवा का प्रतिनिधि स्वर भी है ? तथ्य है कि पुरस्कारों की दुनिया से बाहर कहीं बेहतर कविताएँ लिखी जाती रही हैं । ये अच्छी कविताएँ अपने समय में हिन्दी की युवा-कविता का वह नेपथ्य रच रही होती हैं जिन्हें मंच के दूसरी तरफ से कभी नहीं देखा जा सकता । मंच और नेपथ्य के इसी द्वन्द्वात्मक तनाव में कविता अपनी विकास-यात्रा तय करती रही है । कुछ  उदाहरणों से बात स्पष्ट हो सकती है । एक खास भौगोलिक क्षेत्र की वनस्पतियों, उस क्षेत्र की जैव-विविधता को समझने में यह पद्धति विश्वसनीय और वैज्ञानिक मानी जाती रही है ।
माँ झुँझला कर कहती है-
पता नहीं कब खत्म होगी
ये बारिश- तभी टी. वी. के एक न्यूज़ चैनल पर
मौसम की खबर बताने वाली युवती
कहती है-
निम्न-दाब बना हुआ है
अगले तीन दिनों तक
बारिश के खत्म होने के
कोई आसार नहीं-
संगीत... संगीत... संगीत अब आतंक बन चुका है
दो दिनों से
[दो दिनों से’ – संजय राय]
कविता में एक कस्बे का साधारण जीवन-संघर्ष दर्ज़ हुआ है । दो दिनों से बारिश हो रही है । छत से लगातार रिसती हुई बूंदें तब आतंक का पर्याय बन जाती हैं जब घर के भीतर बिस्तर और किताबें भीग जाती हैं और फर्श बार-बार पोंछने-सुखाने के बावजूद गीली रहती है । यह भीतर से आता हुआ बारिश का पानी बाहर की मूसलाधार बारिश के पानी से कहीं ज़्यादा खतरनाक है । यहाँ कविता की खासियत यह है कि बारिश की बूंदों और उनकी टिप-टिप का कोई रूमानी चित्र नहीं है । शहरी मध्यवर्गी जीवनानुभव का कवि इस संगीत के आतंक को नहीं समझ सकता । वह तो वृष्टि पड़े टापुर-टुपुरकी रोमांटिकता का अभ्यस्त है । इस रोमांटिकता से इतर कविता में जब कवि की नींद टूटती है तो वह अपने बिस्तर समेत कमरे में पानी भरा पाता है । यह ज़ोरदार बारिश से घर के भीतर भर आया पानी नहीं है । बाहर उतनी तेज बारिश नहीं है । वह देखता है कि छत से आकार लेती हुई बूंदों ने उसकी किताबों को भी नहीं बख़्शा । बिस्तर उतना ही सूखा है जितना उसकी पीठ के नीचे है । फर्श पर पानी ही पानी है । पोंछा-बाल्टी लिए पानी के इस आतंक से लड़ती माँ का चित्र है । निम्न-दाब की बारिश का कहर है यह । यह भितरघात है पानी का । बाहर के शत्रु से लड़ना आसान हुआ करता है । लेकिन यह शत्रु घर के भीतर है । जीवन-स्थितियाँ ऐसी कि छत जो है, जैसी है वह बदलने वाली नहीं । इस घर के भीतर के लोगों के लिए बारिश की बूंदें संगीत नहीं बल्कि संगीत का आतंक बनकर आती हैं ।

“तब बंद कमरे में
खुद ही बनाता हूँ मरहम
दिखाता हूँ खुद को सब्ज़बाग
फिर दरवाज़ा खोलकर मैं नहीं
मेरा हमशक्ल निकलता है
और परोसता है खुद को ऐसे
जैसे दुनिया का सबसे खुशनसीब हो
कवि हूँ
दर्द से हारूँगा नहीं”
[‘समझौता’ – कुमार सौरभ]
वह दर्द से नहीं डरता ; मौत आने पर नहीं मरता – कवि का अदम्य साहस ही है जो उसे दर्द की दवा ईजाद करने की तरकीबें मुहैया कराता है । वह दर्द को शब्दों के जंगल में भटका देने का हुनर जानता है । अपने दुखों से ऊपर उठ कर ही कवि सार्थक रच सकता है । वह खुद को समझा पाता है क्योंकि दर्द की वजहों को वह जानता होता है । वह अपने दर्द का उपचार भी खुद ही करता है । दर्द से कवि की लड़ाई में कोई दूसरा या अन्य पक्ष शामिल नहीं होता । कवि अपनी निजता से बाहर कुछ यूं जीता है जैसे वह कोई दूसरा आदमी है जो दर्दों-ग़म से मीलों दूर है । लेकिन अपने अंतःपुर में वह अपने दर्दों-ग़म से निजात पाने के लिए चुपचाप लड़ रहा होता है । वह इस लड़ाई का हौवा नहीं खड़ा करता । वह किसी से हमदर्दी की उम्मीद पर नहीं जी रहा होता है बल्कि अपने एकांत में अपने दर्दों-ग़म के निमित्त मरहम का आविष्कार करने में मुब्तिला होता है । यह लड़ाई का एक स्तर है जिससे गुजरे बिना बड़ी लड़ाइयों को जीतना मुश्किल है । यह कविता इन अर्थों में एक भरोसा जगाती कविता का आग़ाज़ है ।

“अब
जबकि ऊपर से हमारा संपर्क टूट चुका है
और हमने
ग्रंथ रचने बंद कर दिए हैं
क्या अब भी
ईश्वर के यहाँ बच्चे जनमते होंगे
उनका नाम क्या रखा जाता होगा
क्या वे भी अपनी पहचान के लिए छटपटा रहे होंगे
अपनी जवानी के दिनों में
तालाब के किनारे बैठकर
चुपचाप कंकड़ उछालते रहते होंगे
क्या वे भी हमारी तरह”
[‘ईश्वर के बच्चे’ – मिथिलेश कुमार राय]
कई बार कविता में एक सवाल उठाना कई सवालों का जवाब बनकर उपस्थित हो जाता है । कहते हैं कि प्रश्न करना भी एक कला है । कविता प्रश्न करती है ईश्वर के बारे में । वह पृथ्वी पर जन्म लेने वाले बच्चों के बरक्स ईश्वर के बच्चों की पड़ताल करती है ।  वह दोनों को आमने-सामने रखती है । यहाँ प्रश्न उस अवधारणा पर भी है जिसके अनुसार पृथ्वी पर हर युग में ईश्वर की सन्तानें मानव उद्धार के निमित्त अवतार ग्रहण करती हैं । कविता का संकेत स्पष्ट है । वह साफ बताती है कि ईश्वर की परिकल्पना धर्म-ग्रन्थों की देन है । अब जबकि ग्रंथ नहीं लिखे जा रहे तब ईश्वर की ये महान संततियाँ भी पृथ्वी पर जन्मे साधारण बच्चों की ही भांति अपनी पहचान के लिए छटपटाती दिखती हैं । यहाँ ईश्वर से भी बड़ा वह सर्जक है जो साधारण मनुष्य है । कविता एक साथ नागार्जुन की ‘कल्पना के पुत्र हे भगवान’, और वीरेन डंगवाल की ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ की याद दिलाती है ।





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