पिछले दिनों अशोक
वाजपेयी ने इस साल का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार किसी युवा कवि को न देने का
निर्णय लिया | युवाओं में
अशोक वाजपेयी के इस निर्णय को लेकर अजीबोगरीब प्रतिक्रियाएँ आती रहीं | कोई पूछ रहा है कि क्या धरती वीरों से खाली हो गई है तो कोई सुझा रहा है
कि फलाँ-फलाँ को ही पढ़ लिया होता | सच कहूँ तो मुझे अशोक
वाजपेयी के फैसले ने ज़रा भी हैरान नहीं किया | मैं तो खुद कई
मर्तबा लिखता रहा हूँ कि ऐसा भी कोई निर्णय आए कि किसी को योग्य नहीं पाया गया | ऐसे फैसलों के पीछे मंशा चाहे जो भी हो उसका मैं स्वागत करता हूँ | बल्कि मुझे कहीं अधिक खुशी होगी यदि अगले कुछ वर्षों के लिए कविता कहानी
आदि के लिए दिए जाने वाले सारे पुरस्कार और सम्मान मुल्तवी कर दिए जाएँ | आखिर कौन सा तीर मार रहे हैं लोग कविता कहानी लिखकर कि उन्हें पुरस्कृत
और सम्मानित होने की आवश्यकता महसूस होती है | मैं बड़ी
उम्मीद से युवाओं की तरफ देख रहा था कि शायद उनमें से कोई आगे बढ़ कर कहे कि –‘यह लो अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो’ | लेकिन एक निष्प्रयोजन सी वस्तु को अंततः बेहद
प्रयोजनीय सिद्ध किया जाता रहा | ख़ैर आज मुद्दा यह नहीं है
बल्कि इसी बहाने मुझे ऐसे कवियों की याद हो आई जो हमेशा ही इस चूहे दौड़ से बाहर
रहे |
नीलाम्बुज सिंह के
साथ बातचीत में कई बार रमाशंकर यादव विद्रोही की चर्चा होती रही है | नीलाम्बुज हिन्दी साहित्य के युवा शोधार्थी
और काव्य प्रेमी हैं | ग़ज़लें लिखते हैं | अपने ब्लॉग पर उन्होने विद्रोही जी की कविताएँ लगा रखी हैं जिनको देखने
के बाद मेरी उत्सुकता इस कवि में बढ़ी | अभी विद्रोही का पहला
और एकमात्र काव्य संग्रह पढ़कर खत्म किया है | सन 2011 में
इसे जनसंस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल ने व्यक्तिगत प्रयासों से प्रकाशित कराया
है | कवि की उम्र इस वक़्त सत्तावन अट्ठावन साल के करीब होगी | और पुरस्कार सम्मान की बात तो जाने ही दीजिए मुझे लगता है विद्रोही को
जानने वाले भी आज कम ही होंगे | प्रणय कृष्ण ने अपनी लंबी
भूमिका में एक किंवदंती के हवाले से बताया है कि विद्रोही दिल्ली के जवाहर लाल
नेहरू विश्व विध्यालय के छात्र रहे हैं और उन्हें सेमिनार पेपर में लिखने की जगह
बोलने की मांग के कारण मूल्यांकित नहीं किया गया | वे आज
भी उसी विश्व विद्यालय में देखे जा सकते
हैं | उम्र के चौथेपन में एक कवि जो कविता लिखता नहीं बल्कि
बोलता है वह इस कदर उपेक्षित है कि किसी लेख में दो शब्द उसपर देखने पढ़ने को नहीं
मिलता | ऐसे में पुरस्कार के लिए युवाओं का अरण्य रोदन
विचलित करता है | मैंने जानने का प्रयास किया कि विद्रोही
नाम का यह कवि आखिर है क्या चीज़ | आप यह जानकर हैरान होंगे कि
इस कवि के पास कई आला दर्जे की कविताएँ हैं | हालांकि
समग्रता में विद्रोही मुझे अत्यधिक वाचाल कवि लगते हैं |
विद्रोही की एक छोटी
सी कविता को हू-ब-हू उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ | विद्रोही लिखते हैं –
‘मैं भी
मरुंगा /और भारत भाग्य विधाता भी मरेगा /मारना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
/लेकिन मैं चाहता हूँ / कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरे / फिर भारत भाग्य विधाता मरे
/ फिर साधु के काका मरें /यानि सारे बड़े बड़े लोग पहले मर लें / फिर मैं मरूँ –
आराम से उधर चलकर बसन्त ऋतु में / जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है /या
फिर तब जब महुवा चूने लगता है /या फिर तब जब वनबेला फूलती है /नदी किनारे मेरी
चीता दहक कर महके /और मित्र सब करें दिल्लगी / कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
/ कि सारे बड़े बड़े लोगों को मारकर तब मरा’ |
रमाशंकर यादव
विद्रोही कवि कैसे हैं यह इस कविता से समझा जा सकता है | मुझे लगता है कि यदि इन पंक्तियों के साथ
किसी स्थापित कवि का नाम रख दिया जाता तो यह हिन्दी की समकालीन कविता में एक
बहु-उद्धृत कविता होती | लेकिन सत्य यह है कि यह विद्रोही की
कविता है | सत्य यह भी है कि विद्रोही के अवधी गीतों और
ग़ज़लों-नज़्मों ने मुझे प्रभावित नहीं किया | उनकी कविताओं में
बड़बोलापन बहुत है और जरूरी भाषिक कसावट की कमी है तथापि कथ्य की दृष्टि से
महत्वपूर्ण कविताओं को उनके संग्रह में रेखांकित किया जा सकता है | विद्रोही के इस संग्रह का उनवान है- नयी खेती | इसमें
जन-गण-मन शीर्षक लंबी कविता उल्लेखनीय है | विद्रोही वाचिक
परम्परा के कवि हैं और कविताएँ कहते हैं | इनका जीवन फकीराना
है | लेकिन वे आज की कविता में मिसफिट हैं | आज कविता वाचिक परंपरा की चीज़ नहीं है | उसका छपना
आवश्यक है | और छपने के बाद और भी आवश्यक है उसका इस तरह दिखना
कि किसी अशोक वाजपेयी या नामवर सिंह की नज़र उसपर पड़े |
यहाँ जरा विषयान्तर
होते हुए भी कहने का मन होता है कि इस कवि को जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय
कैंपस में सुनते हुए वहाँ से उठकर आए किसी कवि आलोचक को तो दो शब्द लिखना ही चाहिए
था विद्रोही पर | यही वह
कमजोर कड़ी है जो कविता में आज भी निर्णायक सिद्ध होती है | किसी
नए कवि ने दस पाँच कविताएँ अगर लिख ली हैं तो इसके बाद वह अशोक वाजपेयी और नामवर
सिंह को गरियाने लगता है | उसे शिकायत होती है कि वरिष्ठ और
स्थापित लोग नयों को नहीं पढ़ते | लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ
ऐसे तमान युवाओं से कि भइया तुमने अपने साथ लिख रहे लोगों को कितना पढ़ा है और उनपर
क्या लिखा है | चलो अशोक वाजपेयी या नामवर सिंह ने नहीं पढ़ा
कोई बात नहीं | नहीं लिखा तो भी कोई बात नहीं | जो वे कर सकते थे उन्होने किया | जो उनसे नहीं हुआ
उसे आप करें | आप यह न भूलें कि एक विद्रोही नाम का कवि है
जिसे दिल्ली में और जे एन यु में रहने के बावजूद नहीं पढ़ा गया | वह आज भी आपको पुकारता है – ‘मुझे बचाओ /मैं
तुम्हारा कवि हूँ’ |
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