Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट - 42


सहजता भी कितनी सुन्दर होती है | कहा जाता है कि सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है | कविता में यह टेढ़ा काम निहायत खूबसूरती के साथ करते , अंगुली पर गिने जा सकने लायक , कुछ कवियों को पढ़ते हुए मन को बड़ी तसल्ली होती है | एक सहज सुन्दर कविता यकीनन जीवन में गहरे उतर कर ही लिखी जा सकती है | मैं यह नहीं कहूँगा कि इन दिनों अच्छी कविताएँ नहीं लिखी जा रही हैं | जैसा कि हिन्दी आलोचना अथवा समीक्षा का चालू सा रिवाज हो गया है इन दिनों | बहुत से चर्चित आलोचकों को पढ़ता हूँ तो कोफ़्त होती है | किसी कवि की कोई कविता पसंद आ गई तो वे इतना विह्वल हो उठते हैं कि एक लकीर खींच कर शेष हिन्दी कविता को ध्वस्त करके उसे खड़ा कर डालते हैं | कई झगड़े मोल ले लिए मैंने यह कहकर कि साहब एक को बेहतर साबित करने के लिए बाकी सबको कमतर आँकना जरूरी नहीं है | वे नाराज़ हो जाते हैं | मैं कहता हूँ जो ख़राब है उसे खराब कहिए , जो अच्छा है उसे अच्छा कहिए | कविता और आदमी दोनों अच्छे और बुरे होते हैं | जो आज अच्छा लिख रहा है वह कल बुरा भी लिख सकता है | जो आज बुरा लिख रहा है कल अच्छा नहीं लिख सकेगा ऐसा भी नहीं है | एक ही कवि के लिखे को उठा कर देख लीजिए | इसलिए कभी भी कवि विशेष के प्रति राग अनुराग का आधार उसका लिखा ही होना चाहिए | आज से चार साल पहले मुझे एक युवा कवि इसलिए पसंद था कि उसमें सादगी और ईमानदारी दिखती थी | आज उसमें बाजार की चमक दिखती है | वह कविता का फार्मूला लेकर चल रहा है | जीवन में डूब कर नहीं , जीवन का आभासी चित्र बनाता है और खूब रंग रोगन के साथ कविता खड़ा कर लेता है | जानता हूँ कि आज वह कविता का खिलाड़ी हो गया है | लेकिन अब वह मेरा उस तरह प्रिय भी नहीं है | मेरी वफादारी पहले कविता के प्रति है , कवि के प्रति नहीं | यह समझाना बड़ा कठिन है | मैंने कोशिश की है कि कविता के मार्फ़त कवि के पास जाऊँ | इस रास्ते के जोखिम हैं | लेकिन क्या किया जाए | कविता के खेत में निराई गुड़ाई बहुत जरूरी काम है | जो घास गेहूँ और सरसों के साथ उग आई है और मिट्टी से खाद पानी चूस कर केवल भविष्य का खर पतवार जमा कर रही है उसे उखाड़ फेंकने में कविता का किसान परहेज करेगा तो खेत में कुछ नहीं उगा पायेगा | जीवन में और समाज में आप देखते हैं कि रक्षणशीलता को बड़ा ख़राब माना जाता है | कहते हैं यार फलाँ आदमी बड़ा कंज़र्वेटिव है | जो कंज़र्वेटिव है वह प्रोग्रेसिव नहीं है यह तो सीधी सी बात है | तो कविता में भी यह नियम लागू होता है | अगर हम एक कवि को इसलिए महान मानते हैं कि उसने कभी कोई बढ़िया कविता लिखी थी या कि कुछ  बढ़िया कविताएँ लिखी थीं तो हम उसके प्रति रक्षणशील हैं | प्रगतिशील तो हम तब कहला सकते हैं जब हम उसकी हर नई कविता को नए सिरे से और हर संभव कसौटी पर कस कर देखें परखें और तब उसपर कुछ कहें | कविता के विषय में कुछ आलोचकों का यह भी मानना है कि जैसे अदहन में उबलते चावल का एक दाना चुटकी में लेकर बताया जा सकता है कि भात अब पक गया है उसी तरह कवि की एक कविता से उसके कवि कर्म के बारे में भी किसी नतीज़े पर पहुँचा जा सकता है | मुझे लगता है यह विषय को आवश्यकता से अधिक सरलीकृत करना है | कविता और चावल में कुछ मौलिक पार्थक्य भी तो होता है | हाँ यह एक मनोवैज्ञानिक पहलू जरूर है | अंग्रेजी में कहते हैं फ़र्स्ट इम्प्रेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन | लेकिन यह मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत दूर तक आलोचना के साथ नहीं चलता | लगातार अच्छा लिखते रहने वाले कवि भी होते हैं लेकिन साधारण तौर पर ऐसा बड़ा विरल हुआ करता है | इसके विपरीत लगातार खराब लिखने वाले कवि उतने विरल नहीं होते | यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ बहुत सारा भूसा है और थोड़ा अनाज है | आलोचक को इस भूसे के ढेर से कविता को गेहूँ के सुनहरे दानों की तरह अलगाना होता है | इसके लिए दँवरी करनी होती है | ओसाना पड़ता है | चलनी से चालना पड़ता है | तब जाकर एक गर्वीले किसान की तरह वह कह सकता है कि हाँ यह है सुन्दर अन्न | इधर कलकत्ता से निकल रही साहित्यिक पत्रिका वागर्थ के लागातार कई अंक हिन्दी कविता के पचास वर्षों के लेखा जोखा पर केन्द्रित रहे | बहुत कागद कारे करने के बाद भी कुछ उल्लेखनीय हासिल नहीं हुआ इस कवायद से | जो मूल गड़बड़ी इन लेखों में है वह यह कि बहुधा वे कवि को ध्यान में रखकर लिखे जा रहे हैं | सीधे सीधे कोई कविता उनके सामने प्रायः नहीं है | अधिकांश को शायद यह लगता हो कि नामों को नेपथ्य में रखकर कविता पर बात नहीं हो सकती | एक वरिष्ठ कवि का सन्देश मुझे भी मिला जिसमें कहा गया था कि फलाँ आलोचक ने बड़े महत्वपूर्ण ढंग से मेरी भी चर्चा की है | यह सच है कि उनकी सूची में सौ डेढ़ सौ नाम थे जिनमें एक नाम नील कमल का भी था | मुझे लगता है हमारे अध्ययन की पद्धति में गड़बड़ी है | किसी आलोचक की सूची में मैं या आप या कोई कवि हो या न हो यह उतना महत्व का विषय नहीं है जितना महत्व इस बात का है कि कोई कवि किसी आलोचक की सूची मैं है तो क्यों है या नहीं है तो क्यों नहीं है | देखा यह भी गया है कि एक कविता विशेष की बड़ी चर्चा इसलिए हो गई कि कविता अधिकांश लोगों की समझ में ही नहीं आई | इसके उलट एक कविता सिर्फ इसलिए उपेक्षित रह जाती है कि वह बड़ी सहज और आडम्बर से मुक्त है | क्या सहज कविता कोई भी लिख सकता है | सवाल है कि बड़ा कौन - कवि या कविता | आज कवि , कविता और आलोचना के त्रिकोण को नए चश्मे से देखे जाने की जरूरत है |



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