Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -62

       
एक अण्डे का स्वागत गान | अपने उनवान में गीत मालूम होने वाली यह रचना अपनी फितरत में एक कहानी है यह जानकार आप हैरान हो सकते हैं | इस कहानी को पढ़ने का पहला मशविरा मित्र विजय गौड़ की तरफ से मिला था जिसके लिए उनको शुक्रिया कहने का मन होता है | इधर कुछ कहानियों को टेक्स्ट की तरह पढ़ने की तरतीब बरतने लगा हूँ | स्कूल के दिनों में पढ़ी गई कहानियों की याद तो अबतक बनी हुई है जिनमें प्रेमचंद की कफन , जयशंकर प्रसाद की पुरस्कार , चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था पहली सूची में हैं | उदय प्रकाश की दिल्ली की दीवार को कहानी के विद्यार्थी की तरह पढ़ता हूँ | अब तो नवलेखन अंकों के माध्यम से संपादकों के द्वारा लांच की गई कथाकारों की एक पीढ़ी ही है | उन्हें गाहे-बगाहे पढ़ता हूँ | बहरहाल मैं बात उस कहानी की कर रहा हूँ जो कि अण्डे का स्वागत गान है | जितेन ठाकुर की कहानी है | जबकि यह कहा जाने लगा है कि कहानी से कहानीपन ही गायब होता जा रहा है इस छोटी सी कहानी को एक बार देख लेने में कोई हर्ज़ नहीं | शायद कहने वाले अपनी राय बदलने के बारे में सोचने लगें |
शिल्प दरअसल कहानी के चेहरे का मेक-अप है जो पानी के छींटे पड़ते ही धुल जाता है | बिना किसी शिल्पगत आग्रह-दुराग्रह के कही गई कहानी मन पर अपने सौंदर्य का स्थायी छाप छोड़ती है | एक अण्डे का स्वागत गान ऐसी ही एक कहानी है जो मूलतः एक संवाद है अपने श्रोता के साथ | किस्सागोई के जरिए कथाकार आपको उस दुनिया में लेकर जाता है जहाँ एक सात-आठ साल का बच्चा है जिसके लिए एक अण्डा दुनिया की किसी नेमत से कम नहीं | यह बाल मजदूर कूड़े के ढेर से कबाड़ी वाले के यहाँ  बेची जा सकने वाली चीज़ें बीनता है और दस-बीस रुपए कमा कर माँ के हाथ में रख देता है | उसकी दिनचर्या कठिन है | एक कूड़े के ढेर से दूसरे कूड़े के ढेर तक की यात्रा में एक चाय की दुकान पर रखे अण्डे उसे किसी सुखद स्वप्न की तरह लगते हैं | और एक दिन बच्चे का सपना सच हो जाता है | लेकिन ठीक उसी बिन्दु से उसकी समस्याएँ और बढ़ जाती हैं |
एक अण्डे की क्या कीमत होगी आज के बाजार दर से | चार से पाँच रुपए | लेकिन प्रतिदिन अपने श्रम से दस-बीस रुपए कमाने वाले इस बच्चे के लिए यह मुमकिन नहीं हो पाता कि वह एक अण्डा खरीद सके | माँ की हिदायतें हैं जिनके मुताबिक इतने पैसों में ढिबरी का तेल आ जाता है | एक वक़्त आता है जब चाय की दुकान का मालिक उसे एक अण्डा बिलकुल मुफ़्त दे देता है | कथाकार आपको बताता है कि दुकान का मालिक दयावान नहीं है बल्कि ऐसा वह पत्नी को खुश करने के लिए करता है जिसका मानना है कि सोमवार को सफ़ेद चीज़ और बृहस्पतिवार को पीली चीज़ दान करने से व्यवसाय में तरक्की होती है | यहाँ दाता का अपना स्वार्थ है | अब हथेली में एक अण्डे को लेकर जब वह अपने दिन की शुरुआत करता है तब पाता है कि उसकी मुसीबतें बढ़ चुकी हैं | बच्चे की समूची चेतना अब उस अण्डे में केंद्रीभूत हो जाती है | वह हर सूरत में अपने सपने को अर्थात एक अण्डे को बचाना चाहता है | वीरेन डंगवाल की एक कविता याद आती है जिसमें चप्पल से भात का यानि चावल का एक दाना चिपक जाता है और वह कवि की चेतना को इस कदर आच्छादित कर लेता है कि दुनिया की कई महान चिंताएँ क़ुरबान हो जाती हैं | यहाँ कहानी में पैर के तालु से चिपका भात नहीं बल्कि हथेली में आ चुका एक अण्डा है | फर्क यह है कि यहाँ अण्डे को बचा ले जाने की चिंता है जबकि वहाँ भात की चिपचिपाहट से मुक्ति की चिंता है |
कहीं कूड़े के ढेर के पास खड़े कुत्ते का डर है तो कहीं आसमान में उड़ती चील का आतंक है | कहीं और एक ताकतवर लड़के का डर है जो बच्चे से अण्डे को छीन सकता है | बचते बचाते और भागते हुए अंततः जब वह बच्चा घर लौटता है तब उसके चेहरे पर दिन भर की मेहनत के बावजूद कुछ भी न कमा पाने की मायूसी की जगह एक अण्डे को पा लेने की खुशी है | वह अण्डा जो मुफ्त ही पा लिया गया है | बच्चे की छोटी बहन इस उपलक्ष्य में खुशी में गाने लगती है | इस गाने को कोई नहीं समझता | माँ भी नहीं | लेकिन यही अण्डे का स्वागत गान है | माँ अण्डे को गर्म राख़ में दबा देती है सिंकने के लिए या कह लीजिए पकने के लिए | एक काली तिरपाल है जिसके नीचे दरी पर लेटा बच्चा अल्युमीनियम की थाली में अण्डे के आने की कल्पना में खो जाता है जहाँ एक झटके में कहानी खत्म हो जाती है |
कहानी की खासियत यह है कि जब आप इसे पढ़कर खत्म करते हैं तब तक अण्डा एक रूपक में बदल चुका होता है | आप इस रूपक की उपलब्धि किस स्तर पर करते हैं यह हर पाठक के लिए भिन्न हो सकता है और यही इस कहानी की सार्थकता है | अतिशयोक्ति न माना जाए तो वह अण्डा सन सैंतालीस में पाई गई आज़ादी का रूपक भी हो सकता है और वह बच्चा हमारे जनतंत्र का शैशवकाल भी हो सकता है | यह कहानी स्वप्न और यथार्थ के द्वंद्व को बड़ी कुशलता के साथ सामने रखती है | कथाकार इसे एक काव्यात्मक ऊँचाई देता है जब वह दिखाता है कि अण्डों की ज़र्दी रुई के नर्म फाहों की तरह उड़ने लगी है और ज़र्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए वह लड़का बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखता है |
अंत में एक अण्डे का स्वागत गान कहानी आपको यकीन दिलाएगी कि अपने तमाम लटकों झटकों के बावजूद युवा हिन्दी कहानी को ऐसी कहानियों से एक सबक तो लेनी ही चाहिए कि कहानी को उसकी लम्बाई से कभी न मापें | यह महज तीन पृष्ठों की कथा है जो तथाकथित लम्बी कहानियों पर भारी है |


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