Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -61


रात के तीसरे पहर/ प्रेमियों की नींद उचट जाती है/ कोसी की गहराइयों में /दर्द का पानी उबाल खाता है/एक चमकता हुआ तारा /आसमान में जलता है बुझता है/यह विरह की रात है जिसमें /सपनों को नहीं एक पल का आराम/कि सपनों की गोद में सुस्ता रहे /प्रेमिकाओं के सिर अपनी चिंताएँ उतार
/प्रेम यहाँ काफल का फल है /पका हुआ और रसीला /जिसे हथेलियों में लेकर /ज़ोर से निचोड़ती हैं प्रेमिकाएँ और प्रेमियों की छाती से /टप-टप चूता है लाल रंग/लाल रंग धमनियों में उतर कर /अमर हो जाता है/‘कोसी का घटवार जानता है /सही-सही मतलब कुछ शब्दों के /मसलन प्रेम, गर्म सफ़ेद आटे की तरह होता है/वह बताना चाहता है और तभी /उसके गले में अटकी पड़ी होती है एक पुकार /काँटे की तरह”... कोसी का घटवार” कहानी पढ़ते हुए लिखी थी यह कविता | प्रेमकथा की पृष्ठभूमि में सहज मानवीय संवेदनाओं की निष्कलुष कहानी है "कोसी का घटवार" । शेखर जोशी की यह कहानी अपनी बुनावट में न तो किसी शिल्पगत ताम-झाम का आश्रय लेती है और न ही अपने कथ्य में कुछ चमत्कृत करने वाली बात लेकर उपस्थित है ।  तथापि यह कहानी अपने प्रभाव में देर तक मन में गूँजती है ।

यह कहना चाहिए कि "कोसी का घटवार" पढ़ते हुए "उसने कहा था" (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) की याद भी बार-बार आती है । कहानी की भाषा बेहद सहज है, कि जैसे कोई आत्मीय एकान्त में कहीं बैठ कर कोई किस्सा सुना रहा हो । कोसी के किनारे गुसाईं का घट है । गुसाईं कल तक इसी इलाके के किसी गाँव से फौज में भर्ती होने चले जाते हैं । गुसाईं ही "कोसी का घटवार" है , अर्थात कथानायक । लछमा गुसाईं के जीवन में कुछ इस तरह आती है जैसे वसन्त आता है । यह सृष्टि का आदिम मानवीय सम्बन्ध है जिसे प्रेम भी कहते रहे हैं । इस प्रेम की परिणति दुखान्त है । लछमा का पिता गुसाईं को अपनी बेटी इसलिए नहीं देता है कि उसके आगे पीछे कोई नहीं है और ऊपर से फौज की नौकरी जिसमें जान का जोखिम हर घड़ी रहता ही है । एक दूसरे के लिए जीने मरने की कसमें पतझड़ के पत्तों की तरह झर जाती हैं । फौज में रहते हुए ही गुसाईं को पता चलता है कि लछमा की शादी तय हो गई है । तबादलों का एक सिलसिला अन्तत: फौज की नौकरी खत्म होने के साथ रुकता है । गुसाईं कोसी नदी के किनारे घट डाल लेते हैं ।

यह अधेड़-उम्र घटवार (जिसे हम व्यवहारिक भाषा में आटा-चक्की का मालिक भी कह सकते हैं) अपनी खेती-बाड़ी देखते हुए गेहूँ पीसने का काम इसलिए करता है कि जीवन की एकरसता कुछ कम हो । दो बोल बोलने वाले लोगों का आना जाना भी रहे । गेहूँ की बोरियाँ जमा होती रहती हैं और कोसी का यह घटवार उन्हें क्रम के अनुसार पीस कर सफ़ेद आटे में बदल देता है जिससे खूबसूरत रोटियाँ बनती हैं । घट से बीच-बीच में निकल कर गुसाईं अपने खेतों की निगरानी भी कर आते हैं । नाले और गूल वगैरह देख आते हैं । इसी दौरान उनकी चेतना अपनी फौजी पतलून की ओर लौटती है । वह अपनी स्मृतियों के एकान्त को जीता है । इन स्मृतियों में प्रेम का निश्छल एक झरना बहता है ।
गुसाईं को याद है कि आखिर बार जब वे लछमा से मिले थे तो उसने कौन सी कसमें खाई थीं । 
ये कसमें टूटनी थीं सो टूट गईं । गुसाईं को फिर मौका नहीं मिला कि वे तहकीकात कर सकें कि लछमा ने गंगानाथज्यू के आगे प्रायश्चित किया या नहीं । वे चाहते हैं कि उसे ऐसा कर लेना चाहिए । यह प्रेम का उदात्त रूप है, जहाँ पाने से अधिक देना है, एक आत्मीय सपर्पण है । 
नियति उन्हें एक बार फिर आमने-सामने ला खड़ा करती है । लछमा एक दिन गेहूं की बोरी सिर पर लादे कोसी के घटवार के यहाँ आती है । गुसाईं पहले तो उसे लौटा देते हैं लेकिन फिर आवाज़ दे कर बुला लेते हैं ।

गुसाईं उसे पहचान गए हैं । लछमा ज़रूर देर से पहचान पाती है । वे एक-दूसरे के प्रारब्ध पर विस्मित हैं । लछमा का पति अब नहीं रहा । एक बच्चे के साथ वह अपने मायके आ गई है । यहाँ जीवन बहुत कष्टप्रद है उसका । गुसाईं उसकी मदद करना चाहते हैं । लछ्मा का स्वाभिमानी मन गुसाईं की मदद को ठुकरा देता है । कहानी यहाँ एक ऊँचाई को पा लेती है ।
इस दरम्यान लछमा गुसाईं के लिए चाय बना देती है और रोटियाँ भी साधिकार सेंकती है । अंततः गुसाईं उसकी आटे की बोरी में अपने आटे से दो-अढ़ाई सेर आटा ज़्यादा डाल देते हैं । लछमा जब जाने को होती है तो गुसाईं उसे पुकारते हैं । गुसाईं के मन में अभी भी एक गांठ है । लछमा ने गंगनाथ की कसम खाई थी । उसने कहा था की वह वही करेगी जो गुसाईं कहेंगे । वह कसलछमा से न निभाई गई । गुसाईं को लगता है कि इससे लछमा का कहीं कोई अनिष्ट न हो जाए । वे कहते हैं कि गंगनाथ कि पूजा उसे कर लेनी चाहिए ।
कहानी के स्पेस में बहुत सी बातें पाठकों के लिए छोड़ दी हैं लेखक ने । जिस जगह पर कहानी से लेखक अलग हो जाता है वहाँ से पाठक के लिए कहानी को बूझने के लिए सूत्र मिल चुके  होते  हैं  । गुसाईं की कहानी के साथ पाठक आसानी से जुड़ जाता है । दिलचस्प यह है कि कहानी खत्म होकर भी खत्म नहीं होती । कथा नायक गुसाईं का जीवन व्यवहार अत्यंत सहज और मानवीय है । असल जीवन के नायक ऐसे ही होते हैं । कथा नायिका लछमा अपने जीवन कि जटिलताओं से पस्त ज़रूर है लेकिन पराजित नहीं है वह । कहीं भी लेखक ने अपने चरित्रों को अतिमानवीय नहीं होने दिया है । जीवन स्थितियाँ मनुष्य के लिए कितनी निर्णायक हो सकती हैं इस बात का एक दृष्टांत है “कोसी का घटवार” । कहीं-कहीं कथाकार की भाषा ऐसी रवानी में नज़र आती है की अच्छे से अच्छे कवि को भी एक बार के लिए  ईर्ष्या हो जाए ।
 “उसने कहा था” का नायक लहना सिंह भी कहानी में उस लड़की से (जिससे वह पूछता था – तेरी कुड़माई हो गई) बड़ी विषम स्थितियों में मिलता है । ऐसी कहानियों के नायक प्रेम की नई परिभाषाएँ गढ़ते हैं । "कोसी का घटवार" इस अर्थ में एक अनूठी कहानी है कि इसमें जीवन को इस तरह से देखा जा सकता है जैसे आईने में चेहरा देखते हैं ।












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