लालगढ़ नाम से आज शायद ही
कोई अपरिचित होगा | साल दो हजार आठ के बाद पश्चिम बंगाल का यह आदिवासी बहुल इलाका जो
झारखण्ड से सटा हुआ है राजनैतिक आन्दोलन के उभार का केंद्र रहा है | तत्कालीन वामपंथी
मुख्यमंत्री की हत्या के उद्देश्य से माओवादियों ने लैंड-माइन बिछा कर विस्फोट कराया
था और जवाब में सरकार की तरफ से ऑपरेशन लालगढ़ चलाया गया | लाल गढ़ शीर्षक से ही अनुज
लुगुन की एक कविता है | कविता में सरकार और पुलिस के द्वारा लालगढ़ में दमन और उत्पीड़न
को बड़ी सावधानी के साथ उठाया गया है | सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए अपनी स्थापना
में कवि कहता है कि ‘कुछ तो है’ जो ‘आदिम जन की आदिम वृत्ति को जगाता है’ | इस स्थापना
के पीछे जो तर्क है वह बड़ा मासूम सा है | तर्क
है कि जहाँ धुँआ है वहाँ आग भी होनी ही चाहिए | कविता सेल्फ-डिफेंस से आरम्भ होती है
| कहा गया है कि कोई ईंट फेंके तो आप भी चुप नहीं रह सकते | कोई आपकी जमीर को चुनौती
दे तो आप चुप कैसे रह सकते हैं | कोई दखलअंदाजी करे तो आप उसकी आरती नहीं उतार सकते
| कहा यह भी गया है कि कुछ तो है जिसे आप वातानुकूलित कमरे में बैठ कर महसूस नहीं कर
सकते | यह जो ‘कुछ तो है’ पद है उसके तर्क के परदे से जो इशारा कवि की जानिब से है,
वह शुरू से आखिर तक कविता में अस्पष्ट रहता है | कविता जिस लाल गढ़ की बात करती है उसमें
किसी रोबड़ा सोरेन को जिंदा या मुर्दा तलाश करती सरकार और उसकी पुलिस है | यह रोबड़ा
सोरेन अपना नाम बदल कर लाल गढ़ में घूमता फिरता है | कवि का बयान महज इतना भर ही है
कि ‘यूँ ही कोई गढ़ लाल नहीं होता’ | कविता
पर बात करने की वजह यह बनती है कि यह आदिवासी समाज के प्रतिनिधि कवि की तरफ से एक बयान
भी है | कवि लालगढ़ के आदिवासी आन्दोलन के उत्थान को जायज ठहराते हुए भी माओवाद पर मौन
क्यों है यह प्रश्न कहीं नेपथ्य में चला गया है |
अनुज लुगुन की इस कविता
के भीतर से कई सवाल उभरते हैं | यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए ईंट का जवाब पत्थर
होता है और दखलअंदाजी का जवाब आरती उतारना नहीं है और यह भी कि जमीर को चुनौती दिए
जाने की सूरत में चुप नहीं रहा जा सकता तो क्या यह तर्क ‘न्यूटन के गति के तीसरे नियम’
की पुष्टि भी करता है | और यदि इसी तर्क के साथ कोई सांप्रदायिक फासीवादी ताकत अपना
बचाव करने लगे तो फिर इस तर्क का क्या होगा | सीधे सीधे कवि से पूछा जा सकता है कि
माओवाद पर उसके विचार क्या हैं | और पूछा यह भी जा सकता है कि कवि के रूप में यह जो
‘कुछ तो है’ का परदा है उसे हटा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए | लालगढ़ की राजनीति में
सिर्फ आदिवासी ही पार्टी नहीं हैं | उसमें माओवादी संगठन भी एक पार्टी हैं | अगर आप
समग्र रूप से लालगढ़ की राजनीति से वाबस्ता हैं तो आपको इस दोनों को ही संबोधित करना
होगा | जल जंगल जमीन की लड़ाई के साथ लेखकीय सहानुभूति से माओवादी राजनीति के तारों
को अलग करके देखना इस बिंदु पर जरूरी हो जाता है | लालगढ़ की लड़ाई तेंदू पत्तों पर अधिकार
की लड़ाई भी है | वह शाल-वन के पत्तों पर अधिकार की लड़ाई भी है | वह सामान नागरिक अधिकारों
की लड़ाई है जिससे आदिवासी समाज लगातार वंचित रहा है | और दुर्भाग्य से यह वंचना वामपंथी
सरकारों की हुकूमत में भी रही है | एक दीर्घ उत्पीड़न को केवल ‘कुछ तो है’ कह कर निबटाया
नहीं जा सकता | कविता अपने तर्क में कमजोर साबित होती है | आदिवासी मुद्दों पर कवि
के मिजाज को समझने के लिए कुछ अन्य कविताएँ भी देखी जा सकती हैं |
आदिवासी शीर्षक एक भिन्न
कविता में अनुज लुगुन की मूल स्थापना यह है कि खुद को आदिवासी कहने वाला सुविधाभोगी,
मौकापरस्त और आरक्षण चाहने वाला स्वार्थी व्यक्ति है | आदिवासी की पहचान कवि की दृष्टि
में यह है कि वह जंगली जड़ी बूटियों से अपना इलाज करना जानता है और जंतुओं के हरकतों
से मौसम का मिजाज समझता है | यहाँ दिक्कत यह है कि कवि खुद आदिवासी समाज को एक खांचे
से बाहर जाकर नहीं देख पा रहा है | हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती, अनुज लुगुन की ही
एक अन्य कविता है जिसमें वे दिल्ली और सारंडा के जंगलों के बीच की दूरी मापते हुए आर-पार
के संघर्ष में मारे जाने की बात तो करते हैं लेकिन उस संघर्ष की छवियाँ पूरी कविता
में सिरे से गायब हैं | इसी कविता में कवि की कामना इस तरह से प्रकट होती है कि, जंगल
बचा रहे अपने कुल गोत्र के साथ | यह चिंता सामान्य पर्यावरण की चिंता नहीं है | एक
जागरुक और जिम्मेदार कवि की चिंता यह भी होनी चाहिए कि जंगल का कुल गोत्र अर्थात उसका
जनसम्पद जंगल से बाहर निकल आने का सपना भी देखे और आदिम वृत्ति से आगे शिक्षा स्वास्थ्य
और रोजगार के मुद्दों पर संघर्ष तेज करे | और अंत में उस कविता की बात तो करनी ही होगी
जिसने इस कवि को हिन्दी कविता में शाही इस्तकबाल दिलवाया | अघोषित उलगुलान, कविता के
मूल में कंक्रीट के बढ़ते जंगलों के बरक्स माफियाओं की कुल्हाड़ी से कटते जंगलों का विरोध
है | यहाँ जंगलों का अघोषित उलगुलान है | जो जंगल में शिकार करते थे उनका शिकार व्यवस्था
के हाथों होने की शिकायत से बहुत आगे यह कविता बढ़ नहीं पाई है | पाठकों को याद होगा
कि अघोषित उलगुलान के लिए कवि के नाम एक घोषित पुरस्कार दर्ज है | अनुज लुगुन की ये
कविताएँ आदिवासी समाज से कुछ शब्द और दृश्य तो उठाती हैं लेकिन आदिवासी जीवन के संघर्षों
का उत्ताप उनमें उतना नहीं है | कहना चाहिए कि ये आन्दोलन में धँस कर लिखी गई कविताएँ
नहीं हैं |
No comments:
Post a Comment