अक्सर पूछा जाता है कि समकालीन हिन्दी कविता में कात्यायनी और नीलेश रघुवंशी के
बाद कौन ? मैं पूछना चाहता हूँ कात्यायनी और नीलेश रघुवंशी को कविता में स्त्री का
प्रतिनिधि नियुक्त करने वाला कौन है ? हिन्दी कविता में बहुत से स्वर ऐसे हैं जिनकी
थाह आपको नहीं होगी लेकिन फिर भी जो कविता में स्त्री के प्रामाणिक स्वर हैं | स्त्री
कविता महज चूल्हा-चक्की, घर-संसार और राग-अनुराग के निजी अनुभवों तक सीमित नहीं है
इस बात को अगर आपको प्रत्यक्ष देखना है तो दिल्ली के आलोचकों की बनाई चौहद्दी से बाहर
आकर देखना होगा | अनामिका , सविता सिंह , सुमन केशरी , कात्यायनी , नीलेश रघुवंशी आदि के अलावा भी बहुत से कवि ऐसे हैं जिन्हें या
तो पढ़ा नहीं जाता या फिर पढ़ कर भी उनको नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है | आज हालत वैसे नहीं
रहे कि आप एक जरूरी आवाज़ को लम्बे समय तक दबाये रह सकें | इंटरनेट और सोशल मीडिया की
बढ़ती स्वीकार्यता ने उन तमाम दबाये गए स्वरों के लिए सारे बंद दरवाज़े खोल दिये हैं
| इससे पहले भी बहुत सी लघु पत्रिकाएँ इन जरूरी आवाजों को जगह देती रही हैं | आज इन
जरूरी आवाज़ों में निर्मला पुतुल , नीलम सिंह , लीना मल्होत्रा , मृदुला शुक्ला , अपर्णा
मनोज , शाहनाज़ इमरानी , रेखा चमोली , जसिंता केरकेट्टा आदि भी शामिल हैं जिनपर बात
होनी चाहिए | इनकी आवाज़ें दिल्ली तक भले ही न पहुँचती हों लेकिन इनकी अलग अलग विशिष्टताएँ
इन्हें सुने जाने की माँग तो रखती ही हैं | यहाँ सबसे पहले नीलम सिंह की बात करना चाहूँगा
जिन्हें बहुत निकट से जानता हूँ और जिन्हें बराबर पढ़ता रहा हूँ |
इस कवि को पढ़ते हुए एक साथ बहुत सी काव्य
परम्पराओं की गूँजें सुनाई
देती है । यहाँ धूमिल का विद्रोही स्वर है तो कात्यायनी की राजनैतिक सजगता है । त्रिलोचन
की जनपदीय चेतना है तो दुष्यंत कुमार की विदग्धता भी है । काव्य विषयों के मामले में
यहाँ नागार्जुन जैसा खुलापन है तो भवानीप्रसाद मिश्र की गेयता भी है । आलोचक परमानन्द
श्रीवास्तव ने इस कवि के पहले संग्रह के बारे मे लिखा कि इसमें कविता के अन्तर्वस्तु का वैविध्य चकित
करता है , तो यह अकारण नहीं था । लोक पर कवि की पकड़ मज़बूत है और स्वाभाविक रूप से घर
, मां , पिता , बेटी जैसे काव्य विषय प्रचुरता में यहाँ आ सके हैं । नीलम सिंह का पहला ही काव्य-संग्रह
याद दिलाता है कि हिन्दी कविता में स्त्री का मूल
स्वर वह नहीं है जो इन दिनों कविता में एक मुहावरा बन चुका है । यहाँ व्यक्ति के दुख
दर्द समष्टि के दुख दर्द बन कर प्रकट होते हैं । मौज़ूदा स्त्री-कविता में कोहरे की
तरह छाये भावोछ्वास को भेदती हुई ये
कविताएँ जीवन जगत के कार्य व्यापार को अपनी गहरी ईमानदारी और सघनता के साथ दर्ज़ करती
हैं । इस अर्थ में पाठक को यह यकीन दिलाने की ज़रूरत बाकी नहीं रह जाती है कि ये कविताएँ
बनाई गई कविताएँ नहीं हैं, बल्कि जीवन में गहरे धँस कर लिखी गई हैं ।
आकाश की हद तक,
संग्रह से
"कसक" कविता की ये पंक्तियाँ अपनी अद्भुत लयकारी और गेयता के लिए पाठक के
दिल में अपनी जगह बनाने में कामयाब हैं - कि पूछें रास्ता किससे / हमें पहुँचाये जो घर तक / यहाँ हर मोड़ पर तो / सिर्फ़ मुर्दों
की ही बस्ती है / समन्दर से अँधेरों के / लड़ें तो हम लड़ें कैसे / हमारे पास तो बस / डूबते सूरज की कश्ती है / सितारे चाँद तो वे / बाँध कर आँचल में चलते हैं / फ़रिश्तों की गली में / ज़िन्दगी ही सिर्फ़ सस्ती है । इसी संग्रह से एक भिन्न स्वर की कविता "माँ
जैसी रात" का यह अंश
देखें जहाँ कवि रात को उसके समस्त नकारात्मक अर्थ-भार से मुक्त करता
दिखाई देता है और रात के काले अँधेरे के बीच से ममता की कोमल किरणें झाँकने लगती हैं
- नहीं होती अगर / माँ जैसी रात / हम भटकते ही रहते / ख्वाहिशों के कँटीले जंगल में / कौन रखता / ज़िन्दगी की तपिश से / झुलसते माथे पर / अपना हिमालय जैसा हाथ । एक अन्य कविता
"ये कैसा जनतन्त्र है" की पंक्तियाँ कवि की राजनैतिक समझ के बारे
में आश्वस्त करती हैं जहाँ आत्म-निरीक्षण के लिए कविता में पर्याप्त स्पेस है - ये कैसी जनता है / जो शोर भरे जंगल में / नींद खरीदने जाती है / ये कैसी आँखें हैं / कि आइने के बीच / खड़े होने वाले भी / अपना चेहरा नहीं देख पाते हैं / ये कैसी प्यास है / कि हम गंगा को / समुद्र बना आते हैं । वहीं अपने लोक और
जमीन से कवि का जुड़ाव और उसके स्थानीयता बोध की पहचान कराती जनपदीयता बोध से लबरेज़ कविता "कोई
तो बोलो" का की ये पंक्तियाँ पाठक को अपनी जडें टटोलने को
मजबूर करती दिखाई देती हैं - जाँता ढेकी ओखल मूसर / नीम करौंदा जामुन गूलर / चिलबिल झरबेरी की बातें / ताड़ों की वो अनगिन पाँतें / कहाँ गईं कोई तो बोलो / सूनी हुई बावली कैसे / टूटा मन्दिर और शिवाला / पोखर के सब घाट खो गये / गाँवों की सब हाट बाट भी / कहाँ गई कोई तो बोलो ।
ऐसी ही विविधवर्णी कविताओं का समुच्चय
, आकाश की हद तक की कविताएँ अपनी सच्चाई के दम पर पाठकों को न सिर्फ़ आश्वस्त करती हैं बल्कि स्त्री कविता की विश्वसनीयत को एक बार फ़िर से प्रतिष्ठित कर पाने में
सफल हैं | ऐसे कवि के यहाँ
पाठक अपनत्व की गरमाहट पाता है | आलोचना की सिद्धांतिकी पर इन कविताओं को जाँचने से
पहले इनके भीतर से आती पुकार को सुनना होगा | ये वो आवाज़ें हैं जिन्हें एक मुद्दत से
सुना नहीं गया है कविता में | यहाँ हो सकता है अभ्यास की कमी नज़र आये , हो सकता है
कविता के चौकठ-बाजू जरा ढीले-ढाले हों , हो सकता है कि कसा हुआ सम्पादन न दिखाई दे
और हो यह भी सकता है कि यदा कदा भावुकता कविता का बड़ा हिस्सा घेरती हुई दिखाई दे ,
तथापि कविता में ऐसे स्त्री स्वर को सहृदय होकर सुने जाने की जरूरत है | ये वो आवाज़ें
हैं जिनके लिए दुष्यंत कुमार कहते हैं - मैं भी तो अपनी बात लिखूँ अपने हाथ से , मेरे
सफे पे छोड़ दे थोड़ा सा हाशिया |
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