ग़ालिब ने कभी अपनी शायरी के बारे में कहने वालों के हवाले से अर्ज़ किया था – कहते हैं कि ग़ालिब का है
अंदाज़े-बयां और | आज हिन्दी
के कवियों के संग्रहों के ब्लर्ब लिखने वाले कवियों-समीक्षकों की मानें तो हिन्दी
कविता की हर गली में दो-चार ग़ालिब मिल जाने चाहिए | एक अलग
पहचान बनाती कविता ; कविता की नई जमीन तोड़ते और हिन्दी की
काव्य-भूमि को विस्तृत करने में सफल कवि ; एक अलग तरह की
काव्य-भाषा – ये कुछ ऐसे जुमले हैं जो आम तौर पर किसी नए कवि के संग्रह के ब्लर्ब
पर किसी स्थापित कवि/समीक्षक के हवाले से जब-तब दर्ज़ किए जाते रहे हैं |
निदा नवाज़ का नया
संग्रह है – बर्फ़ और आग | बीती
फरवरी में जब दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जाना हुआ तो यह किताब भी मैं अपने
साथ ले आया | यह कवि कश्मीर से है | यह
मेरे लिए अतिरिक्त आग्रह का विषय था | मैं नहीं जानता कि मदन
कश्यप ने किन मनःस्थितियों के बीच किताब के ब्लर्ब में उन जुमलों को दोहराया होगा
जिनका जिक्र मैं अभी-अभी ऊपर कर आया हूँ | लेकिन अपनी सीमाओं
को अत्यंत विनम्रता के साथ स्वीकार करते हुए कहना चाहता हूँ कि निदा नवाज़ की
कविताओं की भाषा में वह जमीन तोड़ने वाली बात मुझे नज़र नहीं आती | सच कहूँ तो हर दूसरे कवि से ऐसी कोई उम्मीद भी मैं नहीं रखता | जमीन तोड़ने वाले कवि के लिए किसी भी भाषा को लंबा इंतज़ार करना होता है | हमें इन जुमलों से बाज आना चाहिए और हो सके तो कवि के कहे को बहुत ध्यान
से सुनना और गुनना चाहिए |
आइए उसी कविता की
बात करते हैं जिसका उनवान है – बर्फ़ और आग | किसी
भी संग्रह की शीर्षक कविता को मैं आदतन बहुत आग्रह के साथ देखता हूँ | कवि ने बहुत सोच-विचार के बाद अपनी किताब के लिए इस शीर्षक को चुना होगा | हो न हो इस कविता की चिंता कवि की दूसरी तमाम चिंताओं से प्रबल रही होगी | निदा नवाज़ की यह कविता आकार में छोटी है | पूरी
कविता ऊद्धृत की जा सकती है यहाँ – “बर्फ़ के घरों में रहते
थे / वे लोग / ठंडक बसती थी / उनकी सभ्यता में / बर्फ़ के सपने उगते थे / उनकी
आँखों में / और आज पहली बार / वे घर लाए थे आग / इतिहास में केवल / इतना ही लिखा
है” |
कविता में वे कहकर
संबोधित किए गाए लोग जाहिर है कि कश्मीर घाटी में बसने वाले लोग हैं | कैसे हैं वे लोग | उनका
जीवन कैसा है | उनके संघर्ष कैसे हैं |
उनकी लड़ाइयाँ कैसी हैं | मैं स्वीकार करूँ कि कश्मीर का
जिक्र आते ही मुझे हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर खूबसूरत वादियों की पृष्ठभूमि पर
तैयार फिल्में याद आती हैं | मुझे ‘कश्मीर
की कली’ से लेकर ‘रोज़ा’ जैसी फिल्में याद आती हैं | मैं यह भी स्वीकार करूँ
कि मैं कभी कश्मीर नहीं गया | लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कश्मीर
के बारे में सिनेमा के अलावा जो जानकारियों के दूसरे स्रोत रहे वे अधिक ठोस और
प्रामाणिक थे | इनमें विभिन्न माध्यमों पर आ रही खबरें और
लिखे जा रहे लेख और विश्लेषण आदि शामिल हैं | हम जिस कश्मीर
को जानते हैं वह भारत के राजनैतिक नक्शे का वह हिस्सा है जिसे धरती का स्वर्ग कहा
गया | लेकिन यह हमारे लिए उतनी ही उत्कंठा का विषय है कि
धरती का स्वर्ग कैसे आतंक के साये में चला गया | वह आतंक जो
निदा नवाज़ की कविताओं के केंद्र में भी बना हुआ है | हमारे
लिए कुछ सर्वथा अपरिचित शब्द कैसे रोज़मर्रा के चर्चे में शामिल होते चले गए और
जवान होते हुए हमारी स्मृतियों में उग्रवादी , चरमपंथी , खाड़कू और आतंकवादी जैसे पद दर्ज होते गए | सन
सैंतालीस के भारत से लेकर सन दो हजार पंद्रह तक के भारत में कश्मीर ने कई करवटें
बदली हैं | निदा नवाज़ जिसे ‘सभ्यता में
बसने वाली ठंडक’ कहते हैं वह आज की चालू भाषा में ‘कूल’ कश्मीर नहीं है | मैं
यकीन करना चाहूँगा कि उनका इशारा कविता में घाटी के अमन-पसंद लोगों की उस तहजीब की
तरफ है जिसमें इनसान और इनसान के बीच कोई फर्क नहीं था और जहाँ सचमुच की कोई जन्नत
हुआ करती थी जिसकी खूबसूरती दिलों से लेकर दरीचों तक देखी जा सकती थी | फिर यह कैसे हुआ कि जहाँ के नज़ारे भर से इंसान को मुहब्बत हो जाए वहाँ
इतनी नफरत जहर की तरह फिजाँ में तारी हो गई | कश्मीर के अंदर
आज़ादी के लिए लामबंद एक दूसरा कश्मीर और अपने ही देश की सेना के साथ जंग लड़ते घाटी
के नौजवान , यह एक ऐसी उलझी हुई तसवीर है जिसको सुलझाने के
बजाय सियासत करने वाले उसे और ज्यादा उलझाते गए हैं | निदा
नवाज़ बर्फ़ और आग कविता में जिस ‘आग’ का
जिक्र अपने मुहावरे में करते हैं वह आग क्या दहशत की आग है ,
यह सवाल मेरे जेहन में इस कविता को पढ़ते हुए आता है | यह आग
बगावत की आग भी तो हो सकती है | कवि इस आग के ‘पहली बार घर ले आने’ की बात कहते हुए जिस इतिहास के
अधूरेपन की बात करता है उसका पूरा अध्याय पाठक के लिए कौतूहल का विषय जरूर है पर
इतिहास के इस अधूरेपन का अनुमान उतना असंभव भी नहीं है | कवि
अपनी पक्षधरता को रखने में एक परदे की ओट ले लेता है | पाठक
को इतिहास के अधूरे पाठ को अपने तर्कों से हासिल करना है | इस
छोटी सी कविता में कवि हमें आँखों में उगने वाले बर्फ़ के सपनों वाले लोगों के घर
पहली बार आई आग तक लाकर इतिहास के संदिग्ध होने के सवालों से बड़ी सावधानी के साथ
जोड़ता है | मैं इस एक कविता के कई पाठों के बाद भी इस सवाल
के साथ खड़ा हूँ कि क्या यहाँ कवि की संवेदना उस राष्ट्र के विरोध में खड़ी है जिसकी अखंडता और संप्रभुता की बातें हर
भारतीय दोहराता है | संग्रह की कविताओं पर इतना ही कहूँगा कि
ये रेटरिक में विन्यस्त भाषा की कविताएं अधिक प्रतीत होती हैं |
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