Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -50


कहीं हत्या होती तो वे कविताएँ पढ़ते | कहीं बाढ़ आती तो वे कविताएँ पढ़ते | कहीं बलात्कार की घटना होती तो वे कविताएँ पढ़ते | कोई सरकार अल्पमत में आ जाती तो वे कविताएँ पढ़ते | कोई सरकार विशाल बहुमत से सत्ता में आती तो भी उन्हें कविताएँ पढ़ने के अतिरिक्त कुछ न सूझता | वे हिन्दी के कवि थे | उनकी जेबों में कविताएँ होतीं और मौके-बेमौके वे कविता को पिस्तौल की तरह प्रयोग में लेते | कविताएँ पढ़ना उन्हें इतना प्रिय था कि वे इसके लिए लम्बी यात्राएँ करते | जब जीवन में उत्सव नहीं था तब वे कविता को उत्सव में बदल रहे थे | जब जीवन में प्रेम नहीं था तब वे कविता में प्रेम को जी रहे थे | और सबसे बड़ी बात यह कि जब समय सड़कों पर उतरने का था वे शिविरों में जा रहे थे |
उच्च स्वर में कोई ये पंक्तियाँ दोहरा रहा था | नींद खुल जाती है | अभी भोर है | सुबह होने में कुछ देर है | वह चेहरा जाना पहचाना है | उसे देखा है | एक बार नहीं बार-बार देखा है | पर कहाँ | नाक उसकी नुकीली है , भव्य ललाट और दृढ़ हनु | ठहरिये , यह तो वही चेहरा है जो मुक्तिबोध की कविता में दीवारों की पपड़ियों के गिरने से बन जाता है | कही गई बातों में कुछ भी तो ऐसा नहीं कि एक लम्बी साँस भरी जाए और सब कुछ भूल जाने की कोशिश की जाए | एक गिलास पानी पीकर घंटे भर सो लेने की इच्छा को छुट्टी दे देनी चाहिए फिलहाल | चादर तान कर खुद को नींद के हवाले कर देने का मुनासिब वक़्त नहीं है यह |  हिन्दी कविता पर कुछ काम की बात की जाए अब |  इस बात में आपकी भागीदारी भी बनती है | मोटे तौर पर अपनी मोटी समझ के मुताबिक मैं कुछ बातें रख रहा हूँ |
पहली बात - कविता में यह दौर संक्रमण का है | इसकी स्पष्ट और सुनिर्दिष्ट छवि नहीं बनती | हिन्दी कविता में नई कविता के उभार के बाद का जो समय है वह बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद तटवर्ती मैदान का वह दृश्य है जिसमें नैतिकता और मूल्यों के शव पड़े हुए हैं | जैव पदार्थ की प्रचुरता परिवेश को संक्रमित करती है | बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद बाढ़ की विभीषिका शुरू होती है | बीमारी और महामारी फैलती है | हिन्दी कविता का यह दौर इस अर्थ में भीषण रूप से संक्रमित है |
दूसरी बात - कविता में यह दौर किसी महास्वप्न के बिना जिया जा रहा है | किसी बड़ी यूटोपियन दृष्टि के अभाव में छोटे-छोटे सपनों और छुद्रताओं ने इस शून्य को भर दिया है | एक कारण यह भी है कि बड़ी कविताएँ अब संभव नहीं हो पा रही हैं |
तीसरी बात- बाजार के दबाव के आगे कविता सरेंडर कर चुकी है | एक लम्बे समय तक आलोचना की मुखापेक्षी कविता अब आलोचना को प्रायोजित करना सीख चुकी है | कविताएँ विज्ञापन फिल्मों की तरह क्षणिक महत्त्व की वस्तु में बदल चुकी हैं | बाजार से लड़ने की बजाय कविता ने बाजार को साधने के उपक्रम किये हैं | स्वाभाविक रूप से कविता की विश्वसनीयता का क्षरण इस दौर की एक प्रमुख घटना रही है |
चौथी बात- इस दौर में कविता के भीतर बड़बोलापन चरित्र की तरह ढलता गया है | उसमें बनावटी मुद्राओं और लुभावनी भंगिमाओं का निरंतर समावेश किया जाता रहा है | नतीजतन कविता क्रमशः मनोरंजन में बदलती गई है |
पांचवीं बात- कविता का यह दौर प्रतिनिधित्व की लड़ाई को मुखर करता है जिसके कारण राजनीति के बदलते रिश्तों में देखे जा सकते हैं | इस दौर में स्त्री अस्मिता और दलित अस्मिता के अपने भाष्य उभर कर सामने आते हैं | बड़ी संख्या में स्त्री और दलित की आवाज़ें कविता में सुनी जा सकती हैं |
छठी बात- आदर्श इस दौर की कविता में एन्टीक में बदल गए हैं | राजनैतिक मतादर्शों को कविता नुस्खे की तरह आजमाती है और उसे ताबीज की तरह धारण करने वाले कवि भी देखे जाते हैं | जमीनी संघर्षों में वैचारिकता की आँच लगातार मद्धम होती गई है |
सातवीं बात- पहचान का संकट इस दौर की कविता में रेखांकित करने लायक है | कविता में यह निम्न और औसत मेधा के विस्फोट का समय है | विपुल संख्यक कवियों में स्वाभाविक कारणों से पहचान के लिए पुरस्कारों और सम्मानों को पाने की अनियंत्रित ललक इस दौर की एक खासियत रही है |
आठवीं बात- इस दौर की कविता समय की जटिलताओं को समग्रता में नहीं रखती है बल्कि उन्हें टुकड़ों में रखती है | इसलिए एक व्यापक युग दृष्टि का अभाव कविता के परिसर में है | 
ये कुछ बातें बहुत स्थूल रूप से इस दौर की कविता की पड़ताल के लिहाज से विचारणीय हो सकती हैं | आप इनके साथ अपनी बातें जोड़ सकते हैं | आप इनसे असहमत हो सकते हैं | लेकिन एक लम्बे समय से जिस कविता को हम देखते पढ़ते रहे हैं उसके बारे में सूत्र रूप में कुछ बिन्दुओं को चिन्हित किये जाने की दिशा में इसे एक प्रस्तावना के रूप में आप देख सकते हैं | ये कुछ सामान्य सी बातें हैं | सामान्य प्रवृत्तियों की तरह | अवश्य ही कविता का एक कोना ऐसा भी है जहाँ युगीन दबावों से मुक्त कविता संभव होती है |  यह जो कोना है वह कविता के परिसर का उपेक्षित कोना है | यहाँ कविता के प्राण बसते हैं | इस उपेक्षित कोने में जो कविता है उसमें जीवन के दुःख सुख , जीवन का खोना पाना , जीवन की छोटी छोटी लड़ाइयों का अपना संसार है | यहाँ न तो बाजार का आतिशी मजमा है और न ही एक तय पैटर्न की भावाभिव्यक्ति का कदमताल है | यह जीवनमुखी कविता का अपना संसार है - कविता का जीवनोन्मुख संसार | कहना चाहिए कि यह कविता का वह दौर है जहाँ कविता अपने युग की सामान्य प्रवृत्तियों में नहीं बल्कि अपवादों में सुरक्षित है | यकीनन यह कविता का कठिन दौर है |

No comments:

Post a Comment