Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट – 57


अपनी एक कविता में नागार्जुन कहते हैं -प्रतिबद्ध हूँ जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ । प्रतिबद्ध होने के साथ साथ वे इसी कविता में आबद्ध और सम्बद्ध होने की बात भी करते हैं । प्रतिबद्धता हिन्दी कविता में बड़ा ही चर्चित पद है ।ज़रा सी बात पर लोग लेखक की प्रतिबद्धता को लेकर सशंकित हो उठते हैं । लेखक सवालों से घिर जाता है । उससे बार बार उसकी प्रतिबद्धता के सबूत माँगे जाते हैं । 
यह प्रतिबद्धता आखिर क्या है ? आम समझ इस मामले में यह है कि लेखक को वाम वैचारिकी के साथ होना चाहिए । दूसरे शब्दों में कहें तो लेखक को उन ताकतों के विरोध में खड़ा होना चाहिए जिनसे वाम आदर्शों का सीधा विरोध है । उदाहरण के लिए हम यह कह सकते हैं कि एक लेखक के लिए आवश्यक है कि वह शोषित वंचित जन के साथ तो हो ही वह अपरिहार्य रूप से पूँजीवादी शक्तियों से टकराव का नीतिगत अवस्थान ग्रहण करे ।  जमीनी स्तर पर इस टकराव की जो स्थितियाँ बनती हैं वे कुछ उलझन पैदा करती हैं । एक लेखक सीधे सीधे राजनैतिक दल का कार्यकर्ता हो यह जरूरी नहीं है । एक हकीकत यह भी है कि वाम राजनीति का अभिमुख सैद्धांतिक दृष्टि से स्पष्ट और नुकीला होते हुए भी व्यवहार में वह भी समझौतावादी रवैया अपनाता रहा है । 
अगर आप याद करें तो पायेंगे कि संसदीय प्रतिनिधित्व की जनतांत्रिक लड़ाई में कई मंचों पर वाम ताकतें उन ताकतों के साथ खड़ी हुई हैं जिनके साथ जमीनी स्तर पर उनका तीक्ष्ण विरोध रहा है । आप याद करेंगे तो आपको यह भी याद आयेगा कि एक राजनैतिक शत्रु को साधने के लिए वाम ने अपने किसी अन्य शत्रु के साथ रणनीतिक कौशल के तर्क के साथ हमबिस्तर होने का रास्ता चुना है । बोफोर्स दलाली प्रकरण के बाद भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार का एक मुद्दे के रूप में उभर कर आना और उसके ठीक बाद के राजनैतिक ध्रुवीकरण आपको याद होंगे । कहने का तात्पर्य यहाँ इतना ही है कि जो शुद्ध वाम राजनीति करते हैं वे भी यदा कदा कौशल के बहाने ही सही शुद्धतावाद को दरकिनार करते हैं । व्यावहारिक राजनीति में वैचारिक भेद तो होता है लेकिन वह वैचारिक अस्पृश्यता में रूपायित नहीं होता । यह संसदीय लोकतंत्र का सौंदर्य है यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए । लेकिन लेखकों और लेखक संगठनों की वैचारिकी बड़ी जड़ और ठस्स किस्म की है । 
वैचारिक आग्रह जब दुराग्रह में बदलता है तो लेखकीय प्रतिबद्धता मंगलसूत्र में बदल जाती है । उसका होना या न होना बड़ा स्थूल मामला बन जाता है ऐसी स्थिति में । तब आप किसी भी लेखक की प्रतिबद्धता को प्रश्नांकित करने लगते हैं । बहुत पुरानी बात नहीं है । आपातकाल के दौरान लेखकीय प्रतिबद्धता के स्खलन का समय हिन्दी ने देखा है । मेरा अपना मानना तो यह है कि लेखकीय प्रतिबद्धता दिखाने की चीज़ ही नहीं है । वह लेखक के जीवन व्यवहार और उसके कार्य व्यापार में स्वतः दिखती है । 
चाहे वह नामवर सिंह के नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा करने का वाकया हो या उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के साथ एक मंच पर बैठने का मामला हो हिन्दी समाज की प्रतिक्रया लगभग एक सी रही है ।  एक हाल की घटना का जिक्र करूँ । कवि निलय उपाध्याय ने बाँदा की यात्रा से लौटकर केदारनाथ अग्रवाल के मकान के रख-रखाव में उपेक्षा का प्रसंग उठाते हुए यह आशंका व्यक्त की थी कि केदारनाथ अग्रवाल का मकान किसी बिल्डर के कब्जे में है और उसे किसी भी समय ध्वस्त करके वहाँ कोई निर्माण कार्य हो सकता है । मैंने उनसे उस मकान के मालिकाना हक से सम्बंधित दस्तावेज भेजने को कहा जिससे मुद्दे को लेकर कोई ठोस पहल की जा सके । निलय उपाध्याय ने बाँदा के ही उमाशंकर सिंह परमार को मेरा नंबर देकर मुझे जानकारी उपलब्ध करवाने का आश्वासन दिया ।इस बीच मुझे मेरे अत्यंत घनिष्ट मित्र राजशरण शाही का स्मरण हो आया जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रांतीय अध्यक्ष हैं । उन्होंने मुझसे विषय जानने के बाद पहला सवाल यह किया कि क्या केदारनाथ अग्रवाल कम्युनिस्ट थे । यह सवाल मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं था । जवाब में मैंने यह कहा कि लेखक है तो कम्युनिस्ट होगा ही । इससे क्या फर्क पड़ता है । देश के बहुत से लोग जो कवि से प्यार करते हैं उनकी हार्दिक इच्छा है कि इस धरोहर को  बचाया जाए । वहाँ कोई बिल्डर कैसे आ सकता है । मैंने निवेदन यह किया कि अपने स्तर पर वे इस मुद्दे को जिला प्रशासन तक पहुँचायें । बाद इसके उमाशंकर परमार का फोन आया । बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि केदारनाथ अग्रवाल के मकान के मालिकाना हक पर दावा कर सके ऐसा कोई वारिस मौजूद नहीं है । और मालूम यह भी हुआ कि नरेन्द्र पुण्डरीक नाम के एक कवि उस मकान से कोई संस्था चलाते हैं जो केदारनाथ अग्रवाल ही के नाम पर है । नरेन्द्र पुण्डरीक के बारे में मैं तब तक कुछ विशेष नहीं जानता था । बातचीत के दौरान यह धारणा बनी कि वे वाम वैचारिकी के विपरीत मत वाले व्यक्ति हैं । अब मामला मेरे सामने ज्यादा साफ़ हो चुका था । पूरा मामला केदारनाथ अग्रवाल की विरासत पर कब्जे को लेकर था । और दो विरोधी संगठनों के बीच इसको लेकर लड़ाई थी । मैं जिस मामले को प्रशासनिक हस्तक्षेप से वैधानिक तरीके से सुलझाना चाहता था उसकी गुंजाइश बहुत कम नजर आ रही थी । सच कहूँ तो इस मामले में विद्यार्थी परिषद् के प्रांतीय अध्यक्ष से बात करते वक़्त मेरे ध्यान में यह बात नहीं आई थी कि इससे मेरी प्रतिबद्धता का  क्या बनता बिगड़ता है । जरुरत पड़ी तो मैं इस मामले पर पैरवी करूँगा । क्योंकि मामला एक सच्चे कवि का है ।     
अभी इस वाकये को गुजरे बहुत दिन हुए भी नहीं कि फिर एक नया मामला हिन्दी मानस में प्रतिबद्धता को लेकर उभर आया । इस बार भी बात निलय उपाध्याय के हवाले से । गंगा यात्रा पर उनकी संस्मरणात्मक किताब का विमोचन गोविन्दाचार्य के हाथों होना तय हुआ है । एक बार फिर सवाल प्रतिबद्धता को लेकर उठाये जा रहे हैं । और मैं एक बार फिर उसी सवाल से रु- बरु हूँ कि क्या वैचारिक प्रतिबद्धता का मतलब व्यवहार में वैचारिक अश्पृश्यता  भी हुआ करता है ? अगर है तो क्या यह साहित्य में एक नए किस्म का अपार्थेड नहीं है ? बतौर कवि क्या आप मनुष्य को कम्युनिस्ट मनुष्य ,कांग्रेसी मनुष्य ,भाजपाई मनुष्य और समाजवादी मनुष्य के रूप में देखना चाहते हैं ? हम यह न भूलें कि लंका पर चढ़ाई से पहले सेतु निर्माण करते हुए राम ने रावण को अपने समय के विद्वान ब्राह्मण के रूप में न सिर्फ बुलाया बल्कि उसका आशीर्वाद भी प्राप्त किया | इससे राम-रावण के बीच एक दूसरे की प्रतिबद्धता कहीं आड़े नहीं आई |



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