महामारी की तरह संक्रामक हो रही किसान-आत्महत्या की खबरों के
बीच देश में राजनीति का सेंसेक्स जब उछाल पर है समय की माँग है कि किसान की जमीनी हकीकतों
पर नये सिरे से मीमांसा हो | मृत्यु चाहे किसी की भी हो वह दु:खदायी होती है | दुःख
की वेला में सामयिक विमर्शों में संवेदना, करुणा और भावुकता की मात्रा का आधिक्य स्वाभाविक
है | किन्तु सत्य के अन्वेषण में भावुकता एक बाधा हुआ करती है और इससे परिस्थिति के
वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में कठिनाई पेश आती है | यह किसान कौन है | वह कैसा है | उसकी
जरूरतें कैसी हैं | उसके संघर्ष कैसे हैं | उसकी सीमाएँ क्या हैं | उसके अंतर्विरोध
क्या हैं | किसान मोटे तौर पर समाज का वह वर्ग है जिसने अपनी आजीविका के लिए कृषि-कार्य
को चुना है | उपलब्ध कृषि-योग्य जमीन के आधार पर इनमें बड़े किसान, मँझोले और छोटे किसान
तथा भूमिहीन किसान भी शामिल है | इनमें सबसे बड़ी संख्या छोटे और भूमिहीन किसानों की
है | भूमिहीन कृषक वह है जिसके पास अपनी जमीन तो नहीं है किन्तु किसी अन्य की जमीन
पर वह समझौते के आधार पर अन्न उपजाता है | यह देश के परम्परागत कृषि क्षेत्र की वास्तविकता
है | आमतौर पर कृषि के लिए बीज, उर्वरक, सिंचाई आदि के लिए जो खर्च आता है उसकी लागत
दिनोंदिन बढ़ती गई है | किसान इसके लिए ऋण लेता है | किसान की त्रासदी यहीं से शुरू
होती है |
एक कविता में निराला कहते हैं - अमीरों की हवेली बनेगी आज किसानों
की पाठशाला (जल्द जल्द कदम बढ़ाओ) | वह साम्यवाद तो कभी नहीं आया | लेकिन निराला अपनी
इस कविता में यह आह्वान करते दिखते हैं कि समाज के तमाम पिछड़े लोग अँधेरे का ताला तोड़
डालेंगे | समय समय पर कविता मर्मज्ञों ने और आलोचकों ने इन पंक्तियों को दलित चेतना
के साथ जोड़ कर भी देखा है | इसी कविता में निराला एक जगह कहते हैं - किसानों का बैंक
खुलवाओ | आप जानते ही हैं कि निराला के समकालीन बांग्ला कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तत्कालीन
बंगाल में किसानों का बैंक अर्थात सहकारी समिति के माध्यम से सहकारिता या समवाय आन्दोलन
को न सिर्फ समर्थन और प्रोत्साहन दिया था बल्कि उससे स्वयं ओतप्रोत जुड़े भी रहे थे
| किसानों के द्वारा, किसानों के लिए किसानों का समवाय रवीन्द्रनाथ की चिंता के केंद्र
में भी रहा | आप यह भी जानते हैं कि नोबेल पुरस्कार की राशि भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
ठाकुर ने इसी उद्देश्य से दान में दे दिया था | बहुत मुमकिन है कि निराला की चिंता
में भी ये बातें रही होंगी | समवाय एक ऐसे वैकल्पिक अर्थनीति का मामला है जिससे किसानों
और पिछड़ों के आर्थिक स्वावलंबन का सवाल जुड़ा है | दुर्भाग्य से व्यापक स्तर पर यह आन्दोलन
खड़ा न हो सका | इसके बहुत सारे कारण हैं जिनमें एक बड़ा कारण राजनैतिक सदिच्छा का अभाव
भी रहा है | बहरहाल अमीरों की हवेली किसानों की पाठशाला जब बनेगी तब बनेगी अभी तो हाल
यह है कि अमीरों की तिजोरियाँ भरने की दिशा में आर्थिक नीतियों को लागू करती सरकारें
किसान को पाठशाला अर्थात ज्ञान के प्रकाश से ही दूर रखने को तत्पर दिख रही हैं |
किसान हिन्दी कविताओं में किस तरह आ रहे हैं या आते रहे हैं
यह गंभीर अध्ययन की माँग करता हुआ विषय है | तथापि इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कुल
मिला कर भारतीय किसान हिन्दी कविता में रूमानियत और रेटरिक के बीच संतुलन साधता हुआ
नज़र आता है | उसका वस्तुपरक आकलन कविता में कम ही हुआ है ऐसा मेरा मानना है | किसानों
का एक बड़ा हिस्सा न तो कायदे से मार्क्सवादी सर्वहारा की श्रेणी में आ पाया और न ही
वह भू-स्वामियों के सामंती ढाँचे में फिट हो सका | इसलिए उसपर व्यवस्था की मार दोहरी
है | वह श्रेणीगत दृष्टि से मजदूर से अलग पहचाना जाता है | उसमें वे तमाम दुर्बलताएँ
रही हैं जिनके लिए आमतौर पर भारतीय समाज अभिशप्त रहा है | कहना चाहिए कि उसके भीतर
ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, जातिवाद, उपभोक्तावाद ये सभी बीमारियाँ भी बराबर पलती रही हैं
| कई बार वह क़र्ज़ तो खेती करने के लिए लेता है लेकिन उसे खर्च किसी शादी-व्याह या दूसरे
सामाजिक जरूरतों की पूर्ति के लिए करता है | वह अपने जीवन को तमाम सामाजिक विसंगतियों
के साथ जीते हुए खुद को महाजन और बैंक के कर्ज़ के फंदों में कैद पाता है | एक बात बहुत
स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि आत्महत्या का शार्टकट भारतीय किसान की फितरत में नहीं
है | प्रश्न है कि महामारी की तरह जो किसान आत्महत्या की खबरें आ रही हैं उनके संकेत
क्या हैं | प्रेमचंद का किसान यहाँ तक आते आते पेड़ पर लटकाना कैसे और कहाँ से सीख गया
| हमारे तमाम जनवादी लेखकों के अवदान की परीक्षा का समय है यह | हम कहाँ चूक गए |
आधी रात घर से निकल कर चुपचाप मौत की तरफ कदम बढ़ाता किसान हमारे
लिए अविश्वसनीय है | लांग नाइंटीज़ वाले कवि पवन करण क्षमा करेंगे, हम उस किसान के रास्ते
में हाथ जोड़ कर खड़े नहीं हो सकते | रेल की पटरियाँ किसान को मंडी तक ले जायेंगी हम
यही उम्मीद करते रहेंगे | जीवन से भागे हुए योद्धा को हम अपनी थाली में खाने के लिए
नहीं बैठायेंगे | वह हमारी आँखों के सामने रहेगा जरूर लेकिन अपने दिमाग के फंदे उसे
खुद ही खोलने होंगे | सहानुभूति तभी तक सही है जब तक वह व्यक्ति को कमजोर नहीं बनाती
| किसान के साथ हमारी सहानुभूति वहीं तक है, हमारा उसका साथ वहीं तक है जहाँ तक वह
लड़ाई के मोर्चे पर है | जीवन को जुए में हार चुके किसान के लिए सहानुभूति का मतलब है
तमाम संघर्षशील किसानों की लड़ाई को कमजोर करना | हम ऐसा नहीं कर सकते | जीवन की लड़ाइयों
में प्रॉक्सी नहीं चला करती | खुद मेरे गाँव में पिछले पैंतीस चालीस वर्षों में किसी
किसान ने आत्महत्या की हो ऐसी कोई भी घटना मुझे याद नहीं आती | वह अपने अभाव और अभियोग
के साथ जी रहा है और लड़ रहा है |
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