‘कोइ उत्सव नहीं मनाये गए / तुम्हारे जन्म की खुशी में / उन
लोगों के बीच / जो दुखी हुए थे तुम्हें देखकर / तुम्हारा बचपन बीता / सिर्फ अभावों
के बीच / क्योंकि तुम्हारा भाई सदा ही / ज्यादा दुलारा था / तुम्हारा यौवन खिला मनचलों
से जूझते हुए / तुमने शिकायत भी की तो उच्छृंखल नाम पाया / इकट्ठे हैं आज हम / तुम्हें
विदा करने पति के साथ वहाँ / जहाँ की तुम अमानत हो / जाओ मेरी बच्ची जाओ / मेरे पास
कुछ भी नहीं / एक आशीष के अतिरिक्त / कि तुम्हारी चिता / खुले आसमान के नीचे हो / रसोईघर
में कभी नहीं’ |
ये पंक्तियाँ दरअसल एक अंग्रेजी कविता का अनुवाद हैं | बरसों
पहले, शायद नवासी-नब्बे के आस-पास, वह कविता द टेलीग्राफ अखबार में छपी थी जिसका अनुवाद
मैंने खुद किया था और उसे तब अलीक पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित भी किया था |
मूल कवि का नाम है देवदत्त दास | कई कारणों से कविता स्मृतियों में स्थायी रूप से दर्ज
हो गई है | इसका प्रमुख कारण कविता के अंत में एक पिता की वह करुण प्रार्थना है जिसे
वह आशीष के रूप में व्यक्त करता है - कि तुम्हारी चिता खुले आसमान के नीचे हो, रसोईघर
में कभी नहीं | स्त्री के अपने अधिकारों और उसके संघर्षों की गाथा पर हिन्दी में भी
कविताएँ कम नहीं हैं | लेकिन ऐसा करुण बिम्ब मुझे सहसा याद नहीं आता जो अन्यत्र पढ़ा-सुना
हो | खुले आसमान के नीचे मरना ही स्वाभाविक जीवन को जीना है | रसोईघर में मरना एक अस्वाभाविक
, यंत्रणादायक स्थिति है जिसकी तरफ देवदत्त दास का संकेत है |
आप आधुनिक उत्पादों के विज्ञापन देखें तो आपको बाजार यह बताता
हुआ दिखेगा कि रसोईघर ही स्त्री का स्वर्ग है | विविध उपकरणों ने स्त्री के जीवन को
कितना सुखमय बना दिया है और रसोईघर के भीतर वह मुस्कुरा रही है | उसे कोई दुःख नहीं
| यह बाजार का नजरिया है | और रसोईघर को चिता में बदलता देखता एक पिता या एक कवि बाजार
के इस नजरिये के खिलाफ खड़ा दिखता है | इस स्वर्ग और चिता के द्वंद्व को समझे बिना स्त्री
अधिकारों पर बात नहीं हो सकती | मुझे लगता है स्त्री के अधिकारों की लड़ाई का पहला मोर्चा
पिता का घर होता है | वह बाहरी किसी मोर्चे पर पर तब तक नहीं जीत सकती जब तक इस घरेलू
मोर्चे पर आर-पार की लड़ाई नहीं लड़ लेती | इस मोर्चे को समझने की जरूरत है |
आखिर क्या वजहें हैं कि अपवाद छोड़कर बेटी के जन्म पर परिवार
शोक में डूब जाया करता है | मुझे लगता है कि इसके मूल कारण आर्थिक हैं | पिता की संपत्ति
में पुत्र संतान के अधिकार जहाँ स्वतः सिद्ध हो जाया करते हैं वहीं पुत्री के अधिकारों
को तमाम कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए अस्वीकार कर दिया जाता है | अधिकारों के इस अस्वीकार
का बहिःप्रकाश दहेज की सार्वभौम अनिवार्यता के रूप में होता है | यह वह ‘सोशल अरेंजमेंट’ है जो ‘वन टाइम सेटलमेंट’ का शार्ट कट अपनाते
हुए दहेज को आज कोढ़ की तरह अपने बदन पर ढोने का विकल्प चुनता रहा है | अवश्य ही इनमें
एक कार्य-कारण सम्बन्ध है | यदि तर्क को उलट दें तो स्थिति यह बनती है कि दहेज की अनिवार्यता
के कारण ही पैतृक संपत्ति में कन्या संतान को समान अधिकार नहीं दिए गए | यदि पुत्र
संतान की ही तरह कन्या संतान के अधिकार भी स्वतः सिद्ध हो जाया करें तो उसकी बहुत सारी
लड़ाइयाँ आसान हो सकती हैं |
स्त्री को प्रेमी के साथ , पति के साथ , सहकर्मी के साथ बराबरी
की लड़ाई से पहले अपनी लड़ाई पिता के साथ लड़नी है , भाई के साथ लड़नी है | यह सामाजिकता
का वह संवेदनशील मोर्चा है जहाँ भावनाएँ प्रबल और वास्तविकताएँ गौड़ हो जाया करती हैं
| मैं स्त्री अधिकारों पर लम्बी-लम्बी बातें करूँ , कविताएँ लिखता रहूँ यह सब तब तक
बेमानी है जब तक मैं एक भाई के रूप में अपनी बहन के अधिकारों को स्वीकार नहीं करता
या एक पिता के रूप में अपनी बेटी के अधिकारों को स्वीकार नहीं करता | हंस-मार्का स्त्री
विमर्श दरअसल स्त्री की लड़ाई को उसकी यौनिकता में भटकाने का काम करते रहे हैं | देह
का विमर्श स्त्री को उसके अधिकार नहीं दिला सकता | हमारी कविताओं ने स्त्री को करुणा
की मूर्ति , त्याग की देवी आदि आदि साबित करने में कोई कसर भी कहाँ छोड़ी है | इस मामले
में स्त्री और पुरुष कवि कमोबेश यकसां नजरिया रखते आये हैं | और यही वह ‘सोशल कंडिशनिंग’
है जिसको आज तोड़ने की जरूरत है |
दुनिया के आधुनिक विचारों का अनुशीलन करते हुए जीवन को अधिकाधिक
तर्कसंगत बनाना किसी भी विमर्श को सार्थकता प्रदान करता है | स्त्री विमर्श को भी भावुकता
से बाहर तार्किक और ठोस धरातल पर देखे जाने की आवश्यकता है | जब लड़ाई ‘स्टेक’ की हो
तब उसे ‘सेक्स’ में रिड्यूस किया जाना एक साजिश ही होगी | स्त्री प्रथमतः एक मनुष्य
है | और कई मामलों में वह पुरुषों से श्रेष्ठ भी है | प्रकृति ने स्त्री को जो संवेदनात्मक
दृढ़ता दी है वह अद्भुत है | मैंने बहुधा अपनी माँ को पिता से अधिक दृढ़ पाया है | कई
जरूरी फैसलों में माँ की राय पिता से अधिक व्यवहारिक और तार्किक रही है | स्त्री की
जैविक भिन्नता उसे श्रेष्ठ मनुष्य साबित करती है | मैं इस सत्य को हृदय से स्वीकार
करता हूँ | मुझे इस बात का गहरा दुःख भी होता है कि स्त्री की लड़ाई को अक्सर बुद्धिजीवियों
ने हुस्न और इश्क की कव्वाली की तरह मनोरंजक और एकरस बना दिया है |
चाहे वह कात्यायनी की कविता , इस स्त्री से डरो, हो अथवा बोधिसत्व
की कमलादासी का दुःखतंत्र हो, स्त्री के संघर्षों का उनवान सही नहीं रहा है | कविताओं
में स्त्री के चित्र उसके वास्तविक और जरूरी संघर्षों के साथ नहीं दिखाते हैं | यूँ
तो मुक्तिबोध ने बहुत पहले कहा ही है कि कविता पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना मूर्खता
है | लेकिन कविताओं पर जरूरत भर भरोसा बना रहे इसके लिए हमें स्त्री के संघर्षों को
देखने का अंदाज़ बदलना होगा |
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