Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -56

हिन्दी में गुरु के महात्म्य पर कविताएँ कम नहीं हैं | कबीर कहते हैं – गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँव | कबीर गुरु को गोविंद से भी ऊँचा स्थान देते हैं | भारतीय परम्परा में गुरु के बिना ज्ञान की कल्पना कठिन है | यहाँ शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था का एक नाम गुरुकुल भी है | गोविंद से भी उच्च आसन पर विराजने वाले गुरु पर गणेश पाण्डेय की कविताएँ प्रसंगवश याद आती हैं | गणेश पाण्डेय हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिन्हें प्रकृत अर्थों में हम प्रतिष्ठान विरोधी कवि कह सकते हैं | “अटा पड़ा था दुख का हाट” कवि का पहला संग्रह है जिसमें गुरु शीर्षक से दस कविताओं की एक पूरी सिरीज प्रकाशित है | गुरु शीर्षक इन कविताओं का पाठ आपको हिन्दी कविता के उस मिजाज का आस्वाद कराता है जिसके आप अभ्यस्त नहीं रहे हैं |  इसी सिरीज की एक कविता आप देखें –
“गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है” ।
जाहिर सी बात है कि नाम बड़ा रख लेने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता | कविता जिस तथ्य की तरफ संकेत करती है वह यह कि इस कविता में जो गुरु है वह अपने धारण किए नाम से बहुत छोटा व्यक्ति है | कविता का प्रथम पुरुष अपने इस गुरु से बड़े नाम का आकांक्षी है |  गुरु से बड़े नाम के आकांक्षी इस शिष्य के लिए गुरु के हाथ में मोदक का एक  टुकड़ा है | मोदक के एक टुकड़े की बुनियाद पर टिकी गुरु-शिष्य में यह संभव नहीं है कि शिष्य का नाम गुरु के नाम से बड़ा हो | मुझे यह कविता पढ़ते हुए अपने शहर के एक ऐसे ही गुरु की याद सहज ही हो आई | गुरु के आगे पीछे शिष्यों की भीड़ देखता हूँ | गुरु हर साल मेला लगाते हैं | शिष्य बेचारे इस मेले के स्वयंसेवी बन जाते हैं | वे दरी बिछाते हैं , मंच सजाते हैं , यहाँ से वहाँ , इधर से उधर दौड़ते रहते हैं कि जिस भी तरीके से संभव हो गुरु को प्रसन्न रखना है | उन्हें गुरु से यही मोदक का टुकड़ा चाहिए | बड़ा रहस्यमय है यह मोदक का टुकड़ा | यह शिष्य के स्वाभिमान और स्वविवेक को हर लेता है | और ज्ञान का आकांक्षी कृतदास में बादल जाता है | तो स्वाभाविक है कि जब कविता में कोई शिष्य गुरु से बड़ा नाम रखने कि इच्छा रखने वाला हो तब गुरु के तर्क में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध तक सबकुछ फिसड्डी साबित होता है | यह गुरु कहता है – तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है | ऊपर-ऊपर हास्य और व्यंग्य का बोध कराने वाली इन पंक्तियों के भीतर भयंकर त्रासद स्थितियों के संकेत हैं |
हमारे मिथकों में आचार्य द्रोण जैसे गुरुओं के उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ एकलव्यों को अपना अँगूठा काट कर गुरु को दक्षिणा देने का रिवाज है | यहाँ तो शिष्य की हत्या को अंजाम देता हुआ एक गुरु है जिसकी खीज कविता में इस तरह प्रकट होती है -
“खीजे गुरु/पहला बाण/जो मारा मुख पर/आंख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु/मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू”
शिष्य ने गुरु से बड़ा नाम पाने का जो सपना देखा उसकी सजा इस तरह मुकर्रर होती है कि गुरु के बाण क्रमशः उसके मुख , सीने और पेट को बेधते हैं | मुख को बेधता वाण शिष्य के वाक-स्वातंत्र्य का निषेध है | सीने को बेधता वाण उसके आवेगों का निषेध है | पेट को बेधता वाण उसके अस्तित्व का ही निषेध करता है | और ये तमाम निषेध एक गुरु की तरफ से जारी किए जाते हैं | यह हिन्दी की दुनिया है | गुरु से ऊँचा उठने की सजा तय है | गुरु के चरणों में शीश नवाते रहिए तो आपके लिए गुरु का प्रसाद सहज उपलब्ध है | आप विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों से लेकर अकादमियों की मानद सदस्यता तक पा सकते हैं | सम्मान और पुरस्कार आपके लिए आरक्षित रहेंगे | गणेश पाण्डेय की गुरु सिरीज की कविताएँ प्रकारांतर से हिन्दी की अकादमिक दुनिया का एक आलोचनात्मक दस्तावेज़ भी हैं | ये गुरुडम पर आघात करती जरूरी कविताएँ हैं जिनका साहित्यिक महत्व भले ही स्वीकार न किया जाए लेकिन जो साहित्य की लंबी जिरह में एक मुकम्मल बयान की हैसियत रखती हैं |
गणेश पाण्डेय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करते हैं | उनकी कविताओं और लेखों ने कई बार अपनी तरफ देखने को विवश किया है | वे अपनी कविताओं में जितने भावप्रवण हैं , अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों में उतने ही निर्मम भी हैं | और उनकी यही विशेषता मन में उनके प्रति आदर और सम्मान के भाव से भर देती है | वे नए से नए कवि को सराहना जानते हैं तो बड़े से बड़े कवि की निर्भीक आलोचना भी करते हैं | हिन्दी के साहित्यिक पर्यावरण में ऐसे सजग नागरिक की खास जरूरत है | स्थापित गुरु-शिष्य परम्परा में एक हस्तक्षेप की तरह है गणेश पाण्डेय जैसे शिक्षकों का होना | विपुल लेखन के बावजूद हिन्दी के तथाकथित आलोचक यदि ऐसे लेखक की उपेक्षा करते हैं तो इसके स्पष्ट कारण हैं | दिल्ली और उससे जुड़े सत्ता केन्द्रों का एक विपरीत ध्रुव ऐसे लेखकों से बनता है |
अंत में हिन्दी के तमाम गुरुओं से यह अपील तो की ही जा सकती है कि वे गुरुदक्षिणा में मुद्रा , वस्त्र , अन्न , अंगूठा आदि जो चाहे ले लें पर किसी शिष्य से उसके शब्द न लें | भविष्य में किसी गणेश पाण्डेय को फिर कभी न लिखना पड़े -
चलो अच्छा हुआ/मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न/न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन/गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ/सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में/मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द” ।



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