कविता मूलतः मितकथन
की विधा है | खतो-किताबत
की जुबान में जिसको कहते हैं – थोड़ा कहा, ज्यादा समझना | एक अच्छी कविता में बहुत कुछ सांकेतिक होता है |
यही एक कारण है जिससे पाठक के पास एक खास कविता नये-नये अभिप्रायों के साथ पहुँचती
है | एक बार कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली ने बातचीत में मुझे
कहा था कि एक बढ़िया कविता में कई अर्थ-ध्वनियाँ होती हैं |
जैसे प्याज के छिलके को एक के बाद एक उतारते जाते हैं वैसे ही एक के बाद एक अर्थ
खुलते जायें इस बात की संभावना एक अच्छी कविता में मौजूद हुआ करती है | एक अच्छी कविता में पाठक के लिए इसका पर्याप्त अवसर होता है कि वह अपने
पाठ को हासिल कर सके | इधर शंकरानंद की कविताओं से गुजरते
हुए कविता में मितकथन की विशिष्टता को याद करना स्वाभाविक था | यह मितकथन का कवि है जिसके पास प्रचुरता में कौंध पैदा करने वाली
काव्य-भंगिमाएँ हैं | हालांकि अभी इस कवि ने अपना सफर शुरू
ही किया है और उसे कविता के इस सफर में शिल्प के स्तर पर अभी काफी कुछ अर्जित करना
है, फिर भी इतना जरूर है मैं इस कवि में संभावनाएँ देख रहा
हूँ | ‘पदचाप के साथ’ संग्रह में लोहा, पंख, अंततः, घर, किसान और अगर जैसी कविताएँ मेरे यकीन को पुख्ता
करती हैं | एक सूक्ष्म दृष्टि का कवि ही कह सकता है -जो भी
बेकार था रखा हुआ किसी कोने में वह खत्म हो रहा था धीरे-धीरे चुपचाप ; यह न सिर्फ लामार्क के विकास के सिद्धान्त की पुष्टि करता हुआ वाक्य है
बल्कि एक चेतावनी भी है कि बढ़िया से बढ़िया चीजें इस्तेमाल में ही सार्थक हो सकती
हैं, फिर वह विचार हो, वस्तु हो या कोई
दर्शन | कविता में सिर्फ अच्छी-अच्छी बातों से काम नहीं
चलेगा |
शंकरानंद की दृष्टि
साफ है और पैर जमीन पर टिके हैं | अपनी
बात कहने के लिए वे पाठक को वाग्जाल में कभी नहीं उलझाते बल्कि जो कहना है उसे
बहुत स्पष्ट और नुकीले तरीके से कह जाते हैं | जबकि इधर कई
नवागतों में लंबी कविताओं के प्रति आग्रह फैशन की हद तक बना हुआ है वे छोटी कविताओं
में सरलता के साथ बात रखते हैं | कुछ जरूरी मुद्दे जो आज
कविता के एजेण्डे में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं ऐसे मुद्दे भी शंकरानंद की
कविताओं में प्रमुखता से आते हैं | आप याद करें तो महँगाई पर
कविताएँ मुश्किल से याद आयेंगी | यह आम जन के दैनंदिन जीवन
संघर्षों से जुड़ा मुद्दा है जिसे राजनेताओं ने हाईजैक कर लिया है और पता नहीं कब
और कैसे यह कविता में हाशिये का मुद्दा बना दिया गया है | ‘कीमत’ शीर्षक एक कविता में यह कवि कहता है – ‘बढ़ती जा रही है हर चीज की कीमत और /उसे रोकने वाला कोई नहीं / गेहूँ के
बिना कैसे बनेगी वह रोटी /जिसकी खुशबू जान में जान डाल देती है / कैसे छौंकी जाएगी
दाल जिससे तृप्त होता है मन / चावल के बिना कैसे खौलेगा अदहन और / नमक के बिना
कैसा होगा सब्जी का स्वाद’ |
मूल्य-वृद्धि की मार से आज कौन नहीं परेशान होगा | लेकिन कवि
की चिंता उनसे जुड़ती है ‘जिनकी दिनभर की कमाई से एक शाम
चूल्हा जलता है और भरता है आधा पेट’ | अर्थात
दिहाड़ी करने वाले मजदूर | इनमें रिक्शा और ठेला खींचने वाले
शहरी मजदूर से लेकर सौ दिन के रोजगार गारंटी योजना वाले ग्रामीण मजदूर शामिल हैं | जो दाल रोटी खाकर किसी तरह जी
रहे थे उनके निवाले पर भी इस महँगाई की मार है | इसके लिए
जिम्मेदार लोग कवि की नजर में हैं | आगे वह प्रश्न करता है –‘कहीं यह उन लोगों को मारने की साजिश तो नहीं है /कहीं उन्हें जीवन से
हारने के लिए मजबूर तो नहीं किया जा रहा है /और कहीं सरकार भी तो इस साजिश में
शामिल नहीं है’ | न तो शंकरानंद का यह
संदेह नया है और न ही उनका सवाल नया है | यह सब कहा-सुना
जाता रहा है | अखबारों से लेकर खबरिया चैनलों की बाइट्स तक
यह मुद्दा चर्चे में रहा आया है | लेकिन नया है इस मुद्दे का
इस तरह कविता में विषय बन कर आना | महँगाई ही नहीं बजट भी
शंकरानंद की कविता का विषय है | वही आम बजट जिसके संसद में
पेश होने के बाद आम आदमी की मुश्किलें हर साल बढ़ जाया करती हैं | बहुत सारे आंकड़े पेश किये जाते हैं | कागज पर देश
तरक्की करता है लेकिन जमीन पर जीने की शर्तें और कठिन हो जाती हैं | शंकरानंद अपनी इस कविता में बजट की असलियत बताते हुए कहते हैं –‘हम देखते हैं कि नये बजट सत्र में / हमारी थाली की चार रोटी में से / एक
रोटी और घट गई है’ | इस बजट में आंकड़ों
के खेल में पीछे छूट गई भूख है और आत्महत्या करने वालों का बार-बार अपनी सीमा को
पार करता आँकड़ा है | इस बजट को पेश करने वाला इस देश का
वित्त मंत्री है जो इस सबसे बिलकुल भी उदास नहीं है | बल्कि
वह तो इसे देश हित में बताता है |
शंकरानंद को मालूम
है कि इस जनतंत्र में जन वह कबूतर जिसे राजा का पिंजरा रास आ गया है | राजा कबूतर को अपनी थाली में सजा देखना
चाहता है फिर भी कबूतत्र है कि कभी भागता नहीं | राजा ने ऐसा
क्या जादू कर दिया है कि गुलामी कबूतरों के स्वाद में बस चुकी है | कहने के लिए सारे कबूतर आजाद हैं लेकिन राजा को कबूतरों का मांस पसंद है | वह कबूतरों के आगे दाना बिखेरता है और कबूतर एक साथ उन दानों पर टूट पड़ते
हैं | फिर राजा किसी एक कबूतर को हाथ में लेकर उसका गला रेत
देता है | एक तरफ कबूतर को गिरता हुआ खून है तो दूसरी तरफ दाना
चुगने में मशगूल बाकी कबूतर हैं | कबूतरों के बहाने कवि ने
चुनावी लोकतन्त्र का सच बयान किया है | काशीनाथ सिंह के
उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में एक ऐसे ही
राजा का प्रसंग आता है जिसे नर-मांस पसंद है |
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