Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -55

अगर आप वनस्पतियों में रूचि रखते हैं तो आप जानते ही होंगे कि पौधों की एक किस्म होती है जिसे विज्ञानी वाइल्ड वेरायटी के नाम से जानते हैं | वाइल्ड वेरायटी की वनस्पतियाँ स्वतः ही उग आया करती हैं | कहने का तात्पर्य यह कि उनको परम्पागत कृषि के द्वारा नहीं तैयार किया जाता | ये प्रयोगशालाओं में तैयार किस्मों से इस मामले में ख़ास तौर पर अलग होती हैं कि परिस्थितियों के साथ इनका गहरा तादात्म्य और अनुकूलन स्वतःसिद्ध होता है | तापमान , आर्द्रता और अन्य जैविक परिस्थितियों की प्रतिकूलता में भी वाइल्ड वेरायटी की वनस्पतियाँ खूब फलती फूलती हैं | कविता के पर्यावरण में भी ऐसी वाइल्ड वेरायटी के कवि फलते फूलते रहे हैं |

पिछले कुछ वर्षों से इस कवि के लिखे को पढ़ते हुए उसके बारे में मेरी जो राय बनी है वह यह कि यह हिन्दी कविता में यह एक वाइल्ड वेरायटी का कवि है | नाम है शायक आलोक | अभी अभी अनुक्षण पत्रिका का दूसरा प्रकाशित अंक कूरियर से मिला तो इस कवि की कविताओं पर फिर निगाह ठहर गई | अनुक्षण के इस अंक में कई स्थापित नामों के बीच शायक की कविताओं का अपना एक ठाट है | स्त्री मनोविज्ञान पर केंदित शीर्षकहीन पाँच कविताएँ हैं | एक बानगी के तौर पर कवि के बारे में पता तो चलता ही है इन कविताओं से गुज़रते हुए | लेकिन मजे की बात यह कि कविताओं की संवेदना के साथ कवि के व्यवहार का मिलान करता हूँ तो संगति नहीं बैठा पाता | स्पष्ट कहूँ कि फेसबुक पर शायक को मैं एक ढीठ और बिगड़े हुए बच्चे के रूप में अधिक पहचानता रहा हूँ | मुझे खूब याद है कि शायक की किसी कविता की भाषा पर मैंने आपत्ति करते हुए एक बार अश्लीलता का प्रश्न उठाया था | तब शायक का उत्तर यह था कि यह तो कुछ भी नहीं | संकेत यह कि मुझे श्लील-अश्लील को लेकर अपनी धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए | इस मामले में सच कहूँ तो मैं अज्ञेय को सही पाता हूँ जिनका लिखा याद आता है कि देखना बुरा नहीं है , अधूरा देखना बुरा है | बहरहाल मैं अपनी उसी पुरानी समझ पर आज भी कायम हूँ कि कवि को अपनी भाषा में बेलगाम नहीं होना चाहिए | चाहे मामला कविता के अभ्यंतर का हो अथवा उसके बाहरी परिसर का | जीवन में जिस तरह आपका व्यवहार आपका परिचय हुआ करता है साहित्य में आपकी भाषा ही आपका परिचय होती है | जिस शायक आलोक को मैं एक अनुशाशनहीन भाषा का आदमी मानता रहा हूँ वह अपनी कविताओं में बेहद अनुशासित और संवेदनशील आदमी साबित होता है | इस तथ्य को जो है जैसा है के आधार पर स्वीकार करते हुए शायक की कविताओं पर कुछ बातें कहनी चाहिएँ |

स्त्री मनोविज्ञान की गहरी समझ है इस कवि के पास | अवश्य ही इस समझ के पीछे कवि के अपने जीवनानुभव भी होंगे | अपने जीवन में स्त्री को प्रथमतः हम अपनी माँ से समझते हैं | एक स्त्री को समझना कितना कठिन है यह भर्तृहरि से जानिए | देवो न जानति कहा है | माँ के बाद जीवन में आने वाली तमाम स्त्रियों का अवदान होता है हमारी समझ के निर्माण और उसके परिष्कार में जिनमें बहनें , दोस्त , प्रेमिका और पत्नी धीरे-धीरे जुड़ते जाते हैं | एक लड़की जो कैरी है और जिसे शायक का कवि इस तरह समझता है कि कविता में उसे लाकर उसकी हत्या पर भी विचार करता है , वास्तव में उस लड़की को बचाने की चिंता ही कविता के केंद्र में रहती है | कवि की चिंता यह है कि एक लड़की जो कैरी है उसे गुनगुनाने दिया जाए | इसके पहले कविता में जो तथ्य आते हैं उनका विवरण देते हुए उस लड़की पर जारी बंदिशों और साजिशों की बात तफसील से पेश की गई है | बिना किसी विमर्शगत भारीपन के कविता में यह कवि स्त्री के पक्ष में चुपचाप आ खड़ा होता है |

एक अन्य कविता में शायक का अपना कहन नज़र आता है जहाँ इन पंक्तियों को बार-बार पढ़ना पड़ता है - स्मृतियाँ उसका शिकार नहीं करती अब / वह पड़ी रहती है करवटों की पीठ पर टेक लगाए / उसे याद तक नहीं कौन सा था उसकी सलवटों को तोड़ता लम्हा | यहाँ स्त्री के मानसिक कंडिशनिंग की बात करता हुआ कवि स्त्री जीवन के उस पहलू की बात करता है जहाँ एक अत्यंत सामान्य से दिखने वाले संबंध में भी वह इतने समझौते करती है कि एक सहज जीवन के बीच ही उसकी स्मृतियों का लोप हो चूका होता है | स्मृतियाँ जो जीवन का संबल होती हैं उनका जीवन से लोप एक ऐसी त्रासदी है जिसे बिना एक संवेदनशील मन के कवि के लिए अपनी सह-अनुभूति का हिस्सा बना पाना असंभव सी बात है | शायक आलोक का कवि ऐसे मौकों पर आपको चौंकाता है |
एक तरफ छोटी बहन को हिदायतें देती बड़ी बहन है जो हाथ भी इतने जोर से पकड़ती है कि मोड़ देगी बहन की कलाई | उसकी हिदायें क्या हैं यह देखना दिलचस्प है - जब मुस्कुराती हो तो रखा करो अपनी आँखों का भी ख्याल / आँखों को उठाना ठीक वहीँ तक ऊपर जहाँ तक / दुनिया को देख सको तुम / रखना ख्याल कि दुनिया न देख सके तुम्हारा देखना | वहीं दूसरी तरफ - एक प्रेम जो / किसी आड़ी तिरछी पगडंडी पर लड़खड़ाते साईकिल सा / धम्म गिर पड़ा |

कथ्य के स्तर पर शायक आलोक की ये कविताएँ इधर बीच युवा हिन्दी कविता में क्रमशः आरोपित- प्रत्यारोपित बहुत से कवियों से अधिक परिपक्व और तैयार कविताएँ हैं यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं | भाषा और शैली के मामले में भी इन कविताओं से उम्मीद सी बंधती है | अगर यह कवि अपने को सँभाल सका तो आगे तक जाएगा | कविता की राह पर चलने का निर्णय अपने लिए दुश्वारियों को बुलावा भेजने जैसा है | यूँ तो कविता की राह पर चलने में जो आनंद है , वह कहीं पहुँचने में कहाँ | अंत में इस कवि के बारे में ग़ालिब को याद करते हुए कहना चाहूँगा - शायर तो ये अच्छा है पर बदनाम बहुत है |



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