Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -54


दिन जाय / रात जाय / सब जाय / आमि बोसे हाय / देहे बल नाई चोखे घूम नाई / सुकाये गियाछे आंखि जल / एके एके सब आशा झरे झरे पोड़े जाय” (दिन बीता , रात बीती , सब कुछ बीता और मैं बैठा ही रहा , हाय देह से दुर्बल , आंखों में नींद नहीं एक-एक कर सब आशाएं झरती रहती हैं , गिरती रहती हैं) रवीन्द्रनाथ ठाकुर यूँ तो प्रेम और विरह को वाणी देते हैं इन पंक्तियों में लेकिन देखा जाए तो इन पंक्तियों में यह समय भी कौंध जाता है | आँख के पानी का सूखना (मरना नहीं) और आशाओं का झर जाना इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी है | समय की आँख का पानी सूख रहा है | आशाओं के वृन्त झर रहे हैं | रवीन्द्रनाथ की कविता के विरही की आँखें सूखी हैं | उसकी आशाएँ झर-झर कर गिर रही हैं , जैसे सूखे पत्ते झरते हैं | यह विरही अशक्त भी है | वह देह से दुर्बल है | वह अनिद्रा से पीड़ित है | उसे आराम चाहिए | कैसे मिलेगा इस विरही नायक को आराम |
सिनेमा के परदे का दबंग फुटपाथ पर थक कर सोये कुछ बेसहारा लोगों को अपनी कार से कुचल कर भी अपने प्रशंसकों के बीच नायक बना रहता है | साहित्य की दुनिया का दबंग भाषा के फुटपाथ पर थक कर सोये शब्दों को रौंद कर भी अपने पाठकों के बीच समादृत बना रहता है | और राजनीति का दबंग हाशिये पर पड़े आमजन की आकांक्षाओं को कुचल कर भी बहुमत से सरकार बना कर अपनी मनमानी करता है | आमजन को आराम किस तरह हासिल होगा दबंगई के इस दौर में यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए | जब देश के किसान तबाह और बर्बाद हो रहे हों , उनकी जमीनों के अधिग्रहण को आसान बनाने वाले कानून संसद में बहस के लिए पेश हो चुके हों तब बहुमत से चुनी सरकार की दबंगई के पीछे का जो सच है उसे सामने लाना लेखक की जिम्मेदारी बन जाती है | पिछले दिनों टाइम्स ऑफ़ इण्डिया अखबार में बेस्ट-सेलर किताबों के लेखक चेतन भगत (इस लेखक की ‘चेतना’ और इसकी ‘भक्ति’ पर भी विचार करना चाहिए) का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें वे सीधे सीधे नए भूमि अधिग्रहण को जायज ठहराने की बेशर्म कोशिश करते दिखते हैं | केंद्र में सत्ता में आई सरकार के ‘मेक इन इण्डिया’ के तर्ज़ पर चेतन भगत का नया जुमला है - ‘बेक इन इण्डिया’ !
चेतन भगत का तर्क है कि ‘कार्पोरेट फार्मिंग’ ही भारत को खुशहाली दे सकता है और इसके लिए बड़ी बड़ी कंपनियों को भारत में आकर अपनी अपनी ‘रोटियाँ सेंकने’ (बेक इन इण्डिया) की खुली छूट दे दी जानी चाहिए | बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानों की जमीन मिलेगी और वे उसपर अपनी पूँजी से न सिर्फ अनाज उगायेंगे बल्कि विश्व-बाजार के लिए प्रोसेस्ड फ़ूड यहीं तैयार होगा | चेतन भगतों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि भारत जैसे देश में को-ऑपरेटिव फार्मिग की बात न करके कार्पोरेट फार्मिंग की वकालत का क्या मतलब होता है |
दिल्ली की रैली में दिन की रोशनी में एक व्यक्ति (उसे किसान कहना गलत होगा) के द्वारा आत्महत्या के सनसनीखेज लाइव कवरेज और फिर नेपाल सहित देश के कई हिस्सों में भूकम्प के झटकों की मीडिया बाईट से उकता चुके मनोरंजन-पसंद लोगों के लिए देश का हर समाचार चैनल हिट-एण्ड-रन केस में सजायाफ्ता मुम्बईया हीरो की कवरेज के साथ हाज़िर है | एक अपराधी के लिए ऐसी सहानुभूति की लहर भारतीय मीडिया में क्यों है इसके कारणों पर विचार करेंगे तो आप सहज ही यह उपलब्धि कर पायेंगे कि भारतीय मानस में दरअसल ‘पावरफुल’ वही होता है जो पावर को ‘एब्यूज़’  करना जानता है | हमारी न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि वह अपराधी को बच निकलने के हर संभव रास्ते मुहैया कराती है | क़ानून गरीब और लाचार के लिए जितना कठोर है अमीर और मजबूत आदमी के लिए उतना ही लचीला भी है | भ्रष्टाचार का आरोपी मुकद्दमा लड़ते हुए अपनी पूरी उम्र गुजार कर स्वाभाविक मौत मरता है और अदालत में उसके मुकद्दमे की सुनवाई मुकम्मल नहीं हो पाती | ऐसे उदाहरण आप सहज ही पा जायेंगे | आजादी के ठीक बाद जिस संसद में सबसे बड़ी संख्या बैरिस्टरों की थी उसमें आज की तारीख में सबसे बड़ी आबादी आपराधिक छवि वाले सांसदों की है | यह महज सिस्टम की गड़बड़ी नहीं है साहब | गड़बड़ी आदमी में भी है |
शब्द क्रीड़ा को ही साहित्य का स्थानापन्न साबित करता बाजार भी इसी समय की उपलब्धि है | गीतों से खदेड़ दी गई कविताओं ने विज्ञापन के नारों में शरण ले लिया है | कौतुक और अभिनय को कविता में साधते बाजीगर साहित्य में चहुँ ओर पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं | बाजार का तर्क है ठण्डा मतलब कोकाकोला | साहित्य का तर्क है श्रेष्ठ मतलब पुरस्कृत रचना | और इस तर्क के साथ साहित्य के पाठक को भरमा लेने में बाजार आज कामयाब है | लिहाजा साहित्यिक अभिजन पुरस्कार के सीजन में ऐसे परेशान दिखाई देते हैं जैसे लगन के मौसम में विवाह-योग्य कन्या का पिता घर-जमीन बेच कर भी एक वर का जुगाड़ कर लेने के लिए उत्सुक दिखाई देता है | आत्महत्याओं और प्राकृतिक आपदाओं से निष्प्रभावित लेखक समाज का एकांश पूरे जोश के साथ कविता-उत्सव और कविता-शिविर जैसे आयोजनों के लिए तत्पर है और वे इसके निमित्त चंदे की रकम की उगाही भी करने को तैयार हैं | ऐसे तमाम साहित्यिकों के लिए इतना ही कहना है कि राजनीति का मोर्चा जहाँ जन-संघर्ष का होता है , वहीं साहित्य का मोर्चा आत्म-संघर्ष का होता है | समाज में किसी भी बदलाव का मुहाना उस जन-संघर्ष में खुलता है जहाँ आत्म-संघर्ष की नदियाँ आकर गिरती हैं |
बहरहाल यह समय ऐसा है कि बदलाव की उम्मीद में टकटकी लगाए आँखों का पानी सूख चुका है , देह थक कर अशक्त हो चुकी है , आँखों में नींद नहीं है | आमजन की आशाएँ कब तक यूँ ही झरती रहेंगी पतझड़ के पत्तों कि तरह | कवि गुरु का यह विरही नायक कौन है जिसके लिए कहना पड़ता है - सूख चुका आँखों का जल, झरतीं आशाएँ पल पल |


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