Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट -58


कुछ थे जो कवि थे /उनके निजी जीवन में /कोई उथल पुथल भी नहीं थी /सिवाय इसके कि वे कवि थे । कविता समय की शिनाख्त करती कविताओं से गुजरना उस एक्स-रे प्लेट से गुजरने की तरह है जिसमें फेफड़े का एक एक धब्बा साफ़ साफ़ दिखाई देता है । सुरेश सेन निशांत के दूसरे संग्रह में यह कविता है जिसका शीर्षक ही है -कुछ थे जो कवि थे । संग्रह का शीर्षक भी इसी नाम से है । कविता बहुत खुल कर कवि कर्म पर बहस के लिए एक प्रस्तावना तैयार करती है । यहाँ कवि के उद्देश्यों पर ही सवाल उठाती हुई कविता है । ये सवाल एक ऐसे समय में उठाये जा रहे हैं  जब कवि और कविता के आपसी रिश्तों के बीच की फाँक लगातार चौड़ी हो रही है । 
कविता से जुड़ा  नाभिकीय प्रश्न आज भी वही है कि क्या कविता कुछ कर सकती है । कवि त्रिलोचन के सामने भी यह प्रश्न था और वे इस निष्कर्ष तक आये थे कि जनपद के भूखे दूखे जन को कविता कुछ नहीं दे पाती । उस जनपद का कवि हूँ कविता देखी जा सकती है । कुछ थे जो कवि थे कविता में भी यह प्रश्न केंद्र में है कि कविता क्या दे सकती है । दूसरे शब्दों में यह कि कवि क्या अभीष्ट रखता है अपनी कविता से ।  कविता उन कवियों की बात करती है जो कुछ ऐसा कहना और लिख देना चाहते हैं कि जिससे समाज बदल जाए । कि जिससे सभी नदियों का रंग बदल जाए । कि जिससे धसकते पहाड़ और ग्लेसियर बच जाएँ । कि कटे हुए पेड़ फिर से हरे हो जाएँ और पृथ्वी के हरेपन के साथ आँखों की नमी बच जाए । कुल मिला कर कवि कर्म का जो अभीष्ट है वह यह कि कवि दुनिया में एक अमिट छाप छोड़ जाना चाहता है । एक बार आप रघुवीर सहाय की वह कविता याद करें जो सुकवि की मुश्किल के बारे में है । ये सारे बड़े काम कविता कर डाले तो बुरा क्या है लेकिन सुरेश सेन निशांत इसी बिंदु से आपको उस नेपथ्य में ले चलते हैं जहाँ इन महान उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कवि की चेष्टाएँ देखी और समझी जा सकती हैं । 
कविता के इस नेपथ्य में कॉफ़ी हाउस में बहसें करते कवि हैं । वे बड़े बड़े विचारों से भरे आलेख लिखते हैं जो कि उनकी नज़रों में बहुत महत्त्व रखती हैं । लेकिन बड़े बड़े विचारों से भरे आलेख लिखने वाले ये कवि उन रास्तों पर भी संभल संभल कर चल रहे हैं जहाँ दौड़ा जा सकता है । उनके एहतियात की इन्तहा यह कि जहाँ आतताइयों के खिलाफ एकाध शब्द बोला जाना जरुरी है वहाँ वे गुप चुप रहते हैं । इतना ही नहीं ये कवि आश्वस्त भी हैं कि जीवन का अंतिम सत्य उन्होंने अपनी कविताओं में पकड़ लिया है । वे गर्वित हैं अपने किए पर और इसके लिए पुरस्कार ,प्रशंसा और तालियों का इंतजाम भी कर लिया गया है । मजा यह कि सुखों के बीच सोते जागते हुए भी उनके पास दिखावटी दुखों की कमी नहीं । मैं इसे दुःख का अभिनय कहता हूँ जिसे इधर के कुछ कवियों ने साध लिया है एक नुस्खे की तरह । यहाँ इस कविता में भुने हुए काजू के साथ कीमती शराब पीता हुआ कवि भी कुछ ऐसा ही करता है और दिखलाता है कि वह दुःख ही खा पी रहा है । वे इतने चालाक हैं कि जब जब जहाज पर किसी दूर देश की यात्रा करते हैं तो सबको बताना नहीं भूलते लेकिन जब वे किसी से मिलते हैं तो थकान ओढ़ लेते हैं और जताते यह हैं कि सारी थकान उन्होंने पैदल चल कर पाई है ।      
यह कविता उन कवियों की बात करती है जो अच्छी रचनाओं की हत्या की सुपारी दिया और लिया करते हैं । और ऐसा करते हुए वे किसी भी तरह के अपराध बोध से मुक्त थे । वे साहित्य में अमर होने के लिए तमाम तरह के प्रयत्न कर रहे हैं । यहाँ तक कि वे खुद अपनी ही प्रशंसा में बड़े बड़े वक्तव्य भी दे डालते हैं । अपनी ही रचना को वे सदी की सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित करने में संकोच का अनुभव नहीं करते । खुद को साहित्य में स्थापित करने के लिए वे ऐसा करना आवश्यक भी मानते हैं । इन कवियों के मित्र और शत्रु भी कहने के लिए । मित्रों से मित्रता वे भले न निभा पा रहे हों किन्तु शत्रुओं से शत्रुता को वे दूर तक निभा रहे हैं । हैरानी की बात यह कि ऐसे कवियों का न तो कोई स्थायी मित्र था और न ही कोई स्थायी शत्रु ही । इस कविता को डिकोड करने के लिए आपको बस इतना ही करना है कि भूत को वर्त्तमान की तरह पढ़ना है । सुरेश सेन निशांत कविता के उस जादुई पिटारे से ढक्कन हटाने का काम करते हैं जिसके भीतर शैतान कीड़े कुलबुला रहे हैं । साफ़ साफ़ कहें तो यह कविता के अन्दरमहल की दास्तान है जिसके चर्चे अदब की महफिलों में किए नहीं जाते रहे हैं ।  

कभी-कभी  घिन आती है कविता के इस अंदरमहल से | नागार्जुन के शब्दों में कहूँ तो घिन आती है , जी कुढ़ता है यह सब देखते हुए | लेकिन विडम्बना यह की ये ट्राम के पिछले डिब्बे में दचके खाते देहाती नहीं बल्कि साहित्य के पहरुए हैं | बहुत कम साहित्यिक हैं जो इस प्रपंच और छद्म से दूर हाशिए पर पड़े हुए हैं | बाकी हाल हकीकत यह की कविता करते हुए साम-दाम-दण्ड-भेद सबकुछ आजमा लिया जा रहा है | अगर मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक है तो इन तथाकथित कवियों की दौड़ साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ तक है | वे हर जतन करके वहाँ पहुँचना चाहते हैं | सुरेश सेन निशांत की कविता की संगति में अगर कुछ बातें जोड़ूँ तो वे अपने घरों में सत्यनारायण की कथा बाँचते हुए भी मंच पर जनवादी बने रहने का जतन जानते हैं | वे आचरण में ब्राह्मणवादी होते हुए भी लेखन में साम्यवादी होने का जतन जानते हैं | वे हिन्दी के सफल कवि हैं | कविता में आने वाले ये जो कवि हैं वे मठ ढहाने की बात करते हुए मठ बनाने की अदा जानते हैं | जो बात यहाँ कह देनी चाहिए वह यह कि वे जो भी हैं यह जान लें कि कविता में उनका वक़्त अब पूरा हो चला है | अब उनके मुखौटे उतारने वाली पीढ़ी मैदान में आ चुकी है |

No comments:

Post a Comment