Sunday, August 23, 2015

अक्षर घाट - 44

जैसे काशी में गंगातट के घाट , वैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में ऑथर्स कॉर्नर | यहाँ आत्माएँ अपना वसन त्याग कर मोक्ष को प्राप्त होती हैं तो वहाँ पुस्तकें उन्मोचित होकर मोक्ष को प्राप्त होती हैं | एक तरफ मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर कापालिकों  की तटस्थ लीला है तो दूसरी ओर साहित्य के कापालिकों की विमोचन लीला है | अभी अभी संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेला से मैं साहित्य की एक नई दुनिया देख कर लौटा हूँ जिसके बारे में कुछ बातें यहाँ रखने की अनुमति चाहता हूँ | सचमुच कुछ दिनों के लिए दिल्ली का यह मैदान साहित्यिकों की लीलाभूमि बना रहा |
दिल्ली पहुँचने से पहले ही सोशल मीडिया पर विश्व पुस्तक मेले की तसवीरें देख कर मन वैसे ही आधा हो गया था | हमारे अधिकांश लेखकों को कायदे से मंच पर बैठना भी नहीं आता | कोई कुर्सी पर ऐसे बैठा है कि एक पल के लिए कोई बादशाहत मिल गई हो - पैर पर पैर चढ़ाए हुए और वह भी कुछ इस तरह से कि अगर आप फोटो देख रहे हैं तो जूते आप के मुँह तक आ जाएँ | बहरहाल कविता में जामुन के पेड़ पर झूला डालने वाले एक कवि का ऐलान हो चुका था कि अगले दिन उनकी पुस्तक को समय के सबसे बड़े कवि के हाथों मोक्ष प्राप्त होने वाला है | यह मामला कुछ ऐसा था कि जैसे अगले दिन मेले में हम जुरासिक युग का कोई प्राणी देखने वाले हों |
ऑथर्स कॉर्नर का मंच सामूहिक विवाह के मण्डप जैसा था जहाँ चट मंगनी पट व्याह की तर्ज पर पुस्तकें लोकार्पित हो रही थीं | चार पाँच लोग मंच पर होते और पंद्रह बीस नीचे कुर्सियों पर | एक जोड़ा उतरता तो दूसरा चढ़ जाता | ध्यान देने की बात यह कि उधर से गुजर रहे लोगों के लिए यह सब ऐसा था जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो | लोग इन सब से बेपरवाह स्टालों पर टहल रहे थे | जिस भीड़ का अनुमान था वह नहीं दिखी हालांकि यह मेरा पहला ही तजुर्बा था इस शहर में जिसके बारे में बताया जाता है कि यह देश में हिन्दी साहित्य का केंद्र है |
किसी पुस्तक मेले में सेल्सगर्ल को काम करते देखना एक नया तजुर्बा था | टीवी ऐंकर से कथाकार बने एक लेखक की किताब के लिए माहौल बनाने के लिए एक बड़े प्रकाशक ने इनको तैनात कर रखा था | ये लड़कियाँ अठारह से बीस की उम्र की रही होंगी | लोगों को पकड़ पकड़ कर उन्हें किताब और लेखक के बारे में बताते हुए और उन्हें किताब खरीदने के लिए प्रेरित करते हुए | वहीं हिन्दी के एक अन्य बड़े प्रकाशक छपे मूल्य पर स्टिकर चिपका कर ऊँचे मूल्य पर किताबें बेचते पाए गए | एक कथाकार मित्र को इस बात से परेशानी हो रही थी कि एक ही दिन में मैं उनसे बार बार टकरा जा रहा था | एक कवि मित्र इसलिए कष्ट में थे कि नामचीन लेखक उनसे दुआ सलाम किये बिना ही आगे निकल जा रहे थे | इसी मेले में एक दिन फासीवाद और साम्प्रदायिकता के विरोध में एक प्रतिवाद सभा भी हुई जिसमें काफी लोग जुटे | जब यह सभा चल रही थी ऑथर्स कॉर्नर पर माइक्रोफ़ोन तेज था और कौन क्या कह रहा है किसी को साफ़ साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था | लेकिन इस शोर शराबे के बीच भी तमाम कवि अपनी कविताओं के साथ वहाँ अपनी बारी के इंतज़ार में बैठे या खड़े रहे |
दिल्ली के एक कवि-आलोचक ने मुझसे पूछा क्या आपकी कोई किताब आई है | मैंने कहा - जी , आई है | बोले कहाँ से आई है | मैंने कहा , मैंने खुद छापी है | वे विस्मित हुए | जैसे किसी अजूबे को देख रहे हों | उधर हर तरफ लोकार्पण और विमोचन जारी थे | कुछ लब्ध प्रतिष्ठ लेखक पसीने पसीने हो रहे थे | एक विमोचन से निकल कर वे दूसरे विमोचन की तरफ बढ़ जाते थे | कुल मिला कर यह मेला एक बड़ा ईवेंट था जिसकी इमेज वैल्यू थी | कहने का मतलब यहाँ ली जा रही तसवीरों का महत्व था | उनको लेखकों के अलबम में जमा होकर भविष्य के लिए सुन्दर याद की तरह सुरक्षित हो जाना था |
इन सब बातों से इतर मेले की खासियत यह रही कि बहुत सारे दोस्तो से मुलाक़ात संभव हो सकी | मेल से ही मेला शब्द बना होगा शायद | तो मेल मिलाप खूब हुआ | अपने कई प्रिय कवियों को एक साथ प्रत्यक्ष देखने सुनने का एक ऐसा अवसर जो अन्यथा दुर्लभ है | लेकिन प्रकाशक मित्रो के लिए यह मेला घाटे का सौदा रहा होगा ऐसा मेरा अनुमान है | प्रगति मैदान के भीतर हफ्ते भर स्टाल लगाने का किराया बहुत ज्यादा था , कई मामलों में लाखों में | उस अनुपात में किताबें शायद न बिकी हों | एक प्रकाशक मित्र का कहना था कि यहाँ सिर्फ एक्सपोज़र के लिए आना होता है अन्यथा बिक्री छोटे कस्बों में ज्यादा हो जाती है |
कलकत्ता पुस्तक मेले की तरह शताधिक लोगों का कतार में खड़े होकर किताबें खरीदने वाला दृश्य दिल्ली में मुझे नहीं दिखा | कम किराये वाला लिटिल मैगजीन का मण्डप भी कहीं नहीं नजर आया जो कलकत्ता पुस्तक मेले में अलग से ध्यान खींचता है | कुछ एक प्रकाशकों को छोड़ दें तो अधिकांश मामलों में किताबों की कीमत उनके लागत मूल्य से कईगुना अधिक पाई गई | दस से पच्चीस प्रतिशत तक का डिस्काउंट भी पाठकों को बहुत आकर्षित नहीं कर पा रहा था | इस कलकतिया लेखक के लिए इतना बहुत था कि मित्रो के सहयोग से स्वप्रकाशित किताब की लगभग दो दर्जन प्रतियाँ चार दिन में बिक गईं |
इस विश्व पुस्तक मेला में सर्वाधिक कविता पुस्तकें प्रकाश में आईं ऐसा अनुमान है | बड़ी संख्या में स्त्री कवियों की पुस्तकें प्रकाश में आई हैं | यूँ तो कुछ लोगों को नए प्रकाशकों के आने से तकलीफ भी थी | एक जमाने के मशहूर प्रकाशकों की मोनोपोली टूटती दिखी | देखा जाए तो देश की राजधानी में मेला से अधिक यह किताबों का एक मॉल था |



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