Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-11



हमारे समय के श्रेष्ठ कवि कौन हैं , और उनकी श्रेष्ठ कविताएँ कौन सी हैं यह सवाल रह रह कर उठता रहता है  उल्लेखनीय है कि बांग्ला साहित्य में कवियों की ‘श्रेष्ठ कविताओं’ का संचयन निकालने का चलन बहुत पुराना है  यहाँ श्रेष्ठ कविताओं का अभिप्राय वही है जो हिन्दी में ‘प्रतिनिधि कविताओं’ का हुआ करता है  लेकिन हिन्दी में हम श्रेष्ठ कविताओं से एक भिन्न अर्थ ध्वनि भी ग्रहण करते हैं  कलकत्ते का सुपरिचित प्रकाशन घराना है देज़ पब्लिशिंग  बांग्ला के लगभग सभी स्थापित कवियों की श्रेष्ठ कविताओं का संकलन ये निकालते रहे हैं  हिन्दी में भी राजकमल ने बहुत से कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन प्रकाशित किया है  वह भी पेपरबैक संस्करण में  इन प्रतिनिधि कविताओं का नियमतः एक सम्पादक भी होता है जिसकी एक भूमिका प्रतिनिधि कविताओं के साथ छपती है  बांग्ला में श्रेष्ठ कविताओं का चयन कवि स्वयं ही किया करते हैं  यहाँ  तो कोई सम्पादक होता है और  ही कोई भूमिका होती है  ऐसे संकलन ‘कविता प्रेमियों’ के बड़े काम के साबित होते हैं  यहाँ ‘पाठक’ शब्द का इस्तेमाल मैं जान बूझकर नहीं कर रहा हूँ  ‘कविता प्रेमी’ कहना बेहतर है  कविता प्रेमी का जो वृत्त है उसमें लेखक पाठक समीक्षक आलोचक सभी  जाते हैं  कहना चाहिए कि बांग्ला में इन श्रेष्ठ कविताओं के संचयन से कहीं भी श्रेष्ठता का बोध नहीं होता  श्रेष्ठता का अहम् नहीं है  श्रेष्ठ यहाँ चुनिन्दा के अर्थ में काम में लिया जाता है। अर्थात इस तरह के संचयन कवि के विपुल काव्य से कुछ चुनिन्दा कविताओं के संकलन के रूप में छपे जाते रहे हैं  लेकिन हिन्दी में जब हम श्रेष्ठ की बात करते हैं तो यहाँ हम उसे बेहतर कहने बताने का उपक्रम कर रहे होते हैं 
बांग्ला कवि शंख घोष की श्रेष्ठ कविताएँ पढ़ते हुए मैंने उनकी कुछ कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी किया था  इसी क्रम में कवि शंख घोष से एक मुलाक़ात उनके घर पर हुई  बातचीत के क्रम में मैंने उन्हें बताया कि मैंने तो अपनी व्यक्तिगत रुचि के मुताबिक़ कविताओं को अनुवाद के लिए चुना लेकिन स्वयं कवि की वे प्रिय कविताएँ कौन सी हैं जो कि श्रेष्ठ कविताओं के इस संचयन में शामिल है  आप यकीन नहीं करेंगे कि शंख घोष ने बताया कि उनको अपनी लिखी कोई कविता प्रिय नहीं है  संभव है कि यह कवि का अतिरिक्त विनय भाव हो 
अभी हिन्दी की एक पत्रिका का कविता केन्द्रित अंक देखते हुए एक बार फिर यह सवाल जेहन में ताजा हो गया  आरा से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका सृजन लोक’ का विशेष अंक ‘काव्य कलश’ के टैग के साथ छप कर आया है  एक सौ दस कवियों की शिरकत है  सम्पादक संतोष श्रेयांश का दावा भी है कि हमारे दौर में भी कई श्रेष्ठ कवि हैं  दुखद यह है कि सृजन लोक के इस महत्वाकांक्षी अंक में कुछ अच्छे और चमकदार नामों के बावजूद कुल मिला कर यह अंक हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं का पता नहीं देता  क्या ही अच्छा हो कि अगले किसी अंक में यह पत्रिका गहन चिंतन और कड़ी कसौटियों से गुजर कर ऐसा कोई संकलन तैयार कर पाए  यह एक जरूरी कदम होगा  इसके लिए मानक होने चाहिएं  हिंदीतर भाषाओं में जब ये कविताएँ जाएँ तो हमारी भाषा का रुतबा वहां बुलंद रहे इसके लिए यह बहुत जरूरी है । 
समय के श्रेष्ठ कवि तक पहुँचने का रास्ता श्रेष्ठ कविताओं से होकर जाता है । इसका उलट हमें गलत दिशा में भी ले जा सकता है । कभी कभी यह विचार भी मन में आता है कि हिन्दी में पुरस्कृत न हुए हों , सम्मानित न हुए हों ऐसे कवियों की कविताओं का एक अध्ययन किया जाए । यह एक नए तरह का काम होगा । बहुत कुछ जो हमारे समय में महत्वपूर्ण लिखा गया है और श्रेष्ठ है उसके यहाँ पाये जाने की संभावना प्रबल है । इस काम में संकट यह है कि यह भीड़ में एक निर्दोष निष्पाप निष्कलुष आदमी ढूँढने जितना कठिन काम होगा । हिन्दी कविता का बहुलांश तो अपनी मेरिट को लेकर तब तक कुछ सोचने की स्थिति में ही नहीं होगा जब तक उसके सिर पर पुरस्कारों सम्मानों के मुकुट सजते रहेंगे या सजाए जाते रहेंगे । सम्मानित कवि अपनी श्रेष्ठता का दावा तो करते हैं लेकिन उनके दावे अक्सर उस पिता की तरह होते हैं जो भारी दहेज देकर अपनी बेटी के लिए अच्छा वर ढूंढ तो लेता है पर जाहिर यही करता है कि दहेज लेना और देना बहुत बड़ी सामाजिक बुराई है । हिन्दी के कविता प्रेमियों को भी कुछ मेहनत तो करनी ही होगी अपनी श्रेष्ठ कविताओं के आविष्कार के लिए । उन्हें न्यूटन और आर्किमिडीज़ कि तरह के प्रयत्न भले ही न करने पड़ें लेकिन वास्कोडिगामा कि तरह यात्राएं अवश्य करनी पड़ेंगी , वह भी हिन्दी कविता के बीहड़ों में । मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि हम अपने समय की श्रेष्ठ कविताओं का भूगोल ढूंढ निकालने में कामयाब होंगे । 
हमारे समय की श्रेष्ठ कविताओं का एकांश आज सोशल मीडिया / फ़ेसबुक / ब्लॉग आदि पर भी खोजा जा सकता है । बहुत सी ऐसी कविताएं यहाँ अप्रत्याशित रूप से आपको चौंकायेंगी और गहरे विश्वास से भर देंगी । इधर कुछ बिलकुल नए नए उदीयमान कवियों ने इस माध्यम से साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी जगह बनाई है । एक अपेक्षाकृत कठिन लेकिन भरोसेमंद रास्ता अपने समय की श्रेष्ठ कविताओं तक पहुँचने का यह भी है कि छोटे छोटे कस्बों , उपनगरों , और प्रत्यंत गांवों में लिख पढ़ रहे कवियों तक पहुँचने का उपक्रम किया जाए । अकादमियों , संस्थानों , विश्वविद्यालयों में बहुत कुछ हाथ नहीं आने वाला , अब हम यह बात स्वीकार कर लें तो अच्छा । ईमानदार समीक्षा आलोचना का तो काम ही यही है कि वह हमें हमारे श्रेष्ठ साहित्य से परिचित कराये । न सिर्फ परिचित कराये बल्कि उसकी ताकत और उसकी सीमाओं का संकेत भी उसे ही देना होता है । लेकिन समीक्षा आलोचना का वर्तमान घटाटोप से भरा है । यहाँ आप यकीन करेंगे तो धोखा खाने की संभावना प्रबल होगी । इस दुनिया में सब कुछ न सही उसका अधिकांश आयोजित-प्रायोजित हुआ करता है यह सभी देख और समझ रहे हैं । बाबा नागार्जुन के लहजे में कहें तो कोढ़ी कुढ़ब तन वाली कविताओं को मणिमय आभूषण पहनाती समीक्षा आलोचना अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो चुकी है । 

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