Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-4



एक-ध्रुवीय विश्व में विकल्पहीनता (‘टिना’- देयर इज़ नो आल्टरनेटिव) और विकल्प की खोज (‘सिटा’- सोशियलिज़्म इज़ द आल्टरनेटिव) का द्वंद्व अभी बहुत पुरानी बात नहीं हुई है । जब-जब दुनिया को विकल्पहीनता की स्थिति के सामने आना पड़ा है तब-तब विकल्प की ज़रूरत बड़ी तड़प के साथ महसूस की गई है । साहित्य में यह विकल्पहीनता कई तरह से उपस्थित होती है । जाहिर है कि विकल्प के लिए तड़प भी होनी चाहिए । वह तड़प कहाँ है । 
हाल ही में एक मित्र से संवाद हुआ । जब उन्हें पता चला कि मित्र की नई किताब आई है तो कहा कि फौरन किताब की दस प्रतियाँ उन्हें भेज दी जाएँ । उन्होंने बताया कि उनके यहाँ मित्रों का एक ऐसा समूह है जो किताबें न सिर्फ खरीद कर पढ़ता है बल्कि अपनी पहचान के लोगों को उपहार-स्वरूप भेंट भी किया करता है । वे किताबें खरीदते हैं और पढ़ते हैं । ऐसे में मुझे वे तमाम लोग याद आए जो मित्र की किताब को मुफ्त में पढ़ना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं । मुझे वे तमाम प्रकाशक याद आए जो कहते हैं कविता की किताबें कौन पढ़ता है । इसी के साथ मुझे वे तमाम साहित्यिक भी याद आए जो पाठक के न होने की रूदाली करते रहते हैं । मुझे विकल्प का वह एक सूत्र मिल गया । 
असंभव विचार नहीं है कि देश के सभी छोटे-बड़े शहरों या कस्बों में ऐसे कुछ मित्र आपके हों । गांवों को शामिल कर लें तो यह बहुत बड़ा आधार है मित्रों-पाठको का । देश भर में पंद्रह से बीस ऐसे समूहों की कल्पना अवास्तविक नहीं लगती । आपको करना यह है कि इन्हें लागत-मूल्य पर (अव्यवहारिक लगता हो तो न्यूनतम लाभ भी जोड़ लें) किताबें उपलब्ध करवा दें । बढ़िया किताबें होंगी तो डेढ़-दो सौ प्रतियाँ सीधे-सीधे एक व्यापक पाठक-वर्ग तक पहुँच जाएंगी । इसके लिए प्रकाशन में हस्तक्षेप करने की ज़रूरत है । 
ऊपर जिस मित्र की चर्चा कर रहा था वे सोशल मीडिया पर नहीं हैं । बड़े प्यारे लेखक हैं । और अच्छे मित्र भी । फेसबुक ट्विटर की हलचलों से दूर एक पहाड़ी इलाके में रहते हैं । चुपचाप लिखते पढ़ते हैं । चर्चा से दूर रहना पसंद करते हैं । उनका नाम नहीं लूँगा । लेकिन यह एक सबक है उनके लिए जो अपनी किताबों को तमाम वेबसाइट्स पर विक्रय के लिए दे रहे हैं यह जानते हुए भी कि मुद्रित मूल्य का औसतन चालीस से पचास प्रतिशत उस बिचौलिये के पास जाता है जिसका साहित्य से कोई सरोकार नहीं ।  
प्रश्न सहज ही मन में आता है कि एक किताब छापने में क्या और कितना खर्च होता है । अनुभव बताता है कि सौ पृष्ठों की एक किताब की तीन सौ प्रतियाँ तैयार करने में दस से बारह हजार रुपए का खर्च बैठता है । डेढ़ से दो सौ प्रतियों से ही किताब की लागत निकल आती है । ऐसे में किताबों की कीमतों को देखकर यकीन नहीं होता । मुझे बार-बार यह महसूस होता है कि कम से कम हिन्दी के नए और युवा लेखकों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए । 
बहुत पहले एक पत्रिका में विज्ञापन आता था जिसमें प्रश्न इस तरह हुआ करता था  क्या आप मांग कर खाते हैं ; मांग कर कपड़े पहनते हैं ; तो फिर मांग कर किताब क्यों  मांग कर नहीं, खरीद कर पढ़िये । हिन्दी में यह चलन कम है , यह रिवाज कम है । इसका कारण जो मेरी समझ में आता है वह यह कि साहित्य का जीवन में वह स्थान ही नहीं है । जीवन में साहित्य के लिए सम्मान नहीं होगा तो किताबों के लिए घर में जगह भी नहीं होगी । बड़ी हो रही पीढ़ी का अपनी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य से परिचय नहीं होगा । साधारण जन की बात तो जाने ही दीजिए, मैं ऐसे लेखकों को जानता हूँ जो पत्रिका के किसी अंक में सिर्फ अपना लिखा-छपा देख कर ही उसे ताक पर रख देते हैं । अन्य साथी लेखकों को पढ़ने का धैर्य उनमें नहीं । ऐसे संपादक भी देखे हैं जो लेखक के नाम से पूर्व-परिचित न हों तो उसकी रचना वाला लिफाफा भी नहीं खोलते हैं ; या खोलते भी हैं तो एक सरसरी निगाह डालकर ताक पर रख देते हैं । एक जमा-जमाया प्रकाशक ऐसे में भला नए लेखक को क्यों छापना चाहेगा । उसकी किताब पाठकों तक कैसे पहुंचेगी । 
मुझे इस बात का संतोष है कि आज और इस समय हिन्दी में कई प्रतिभावन कवि-कथाकार लिख-पढ़ रहे हैं । साहित्यिक बिरादरी का होने के नाते उनके लिए एक सुंदर माहौल तैयार करके देना सभी साथी लेखकों का नैतिक दायित्व है । विकल्प एक ही है । हर छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में लेखकों को प्रकाशन का काम शुरू करना होगा । समूह बनाने होंगे । किताबें खरीदने और पढ़ने के संस्कार विकसित करने होंगे । बाजार की चमक और बाजार के छल से लड़ना होगा । इसके लिए समझदार और विवेकवान आलोचकों की बड़ी ज़रूरत है । अपनी भाषा में लिखे जा रहे साहित्यिक कचरे के ढेर से उन्हें श्रेष्ठ लेखन को खंगाल कर निकाल लाना होगा । 
मैं उस दिन के बारे में सोच रहा हूँ जब नए-नए प्रकाशन लघु-पत्रिका आंदोलन की तर्ज़ पर काम करने लगेंगे । नए लेखक उस दिन बड़े प्रकाशक के पीछे नहीं दौड़ेंगे । उन्हें यह कहने में शर्म नहीं महसूस होगी कि अपनी यह किताब मैंने खुद छापी है । एक किताब की डेढ़-दो सौ प्रतियाँ बेच लेना कोई आकाश-कुसुम तोड़ने वाली बात नहीं है । बात यह है कि किताब की बाजार में जो जगह है वह क्या है और कितनी है । हिन्दी का लेखक बेस्ट-सेलर का सपना तो देखता है पर क्या वह बेस्ट-राइटिंग भी कर रहा है, इस प्रश्न से टकराए बिना उसकी मुक्ति संभव नहीं है । 
हिन्दी के साहित्य के लिए एक बेहतर माहौल बनाने का काम हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने वाले महाविद्यालय-विश्वविद्यालय के अध्यापक कर सकते थे । दुख का विषय है कि अपवाद छोड़ कर उन्हें चेले तैयार करने और नोट्स लिखवाने से ही फुर्सत नहीं मिलती । अपनी भाषा के साहित्य से उनका अद्यतन संपर्क कितना है इसको लेकर मेरे मन में शंकाएँ हैं । ऐसे में लेखकों को बाजार के हिसाब से खुद को अनुशासित करने की बजाय बाजार के छल को बेनकाब करना होगा । क्या आप तैयार हैं किसी दिन एक व्यस्त चौराहे पर उच्च-स्वर में कविता-पाठ के लिए । क्या आप किसी कॉलेज-यूनिवर्सिटी के गेट पर खड़े होकर अपनी किताब बेचने के लिए प्रस्तुत हैं । 

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