मिथकों का बाजार गर्म है । मिथकों को लेकर राजनीति की बातें हो रही हैं । इतिहास और मिथकों का मर्म बताया समझाया जा रहा है । इतिहास और मिथक का भेद बताया जा रहा है । कैसे बनते हैं मिथक ? कौन बनाता और गढ़ता है मिथकों को ? मेरी अपनी समझ में मिथकों का बनना लोक व्यवहार का मामला है । जो इतिहास से छूट जाता है वह मिथकों में जीवित रह जाता है । यह बहुत संभव है । संभव यह भी है कि लोक पर शासन करने वाला प्रभु वर्ग अपने मिथक गढ़ ले और उसे प्रचारित कर दे । निराला ने हिन्दू मिथकों पर कविता लिखी । यह आख्यानात्मक कविता है - राम की शक्ति पूजा । कविता में राम दुर्गा की स्त्तुति करते हैं और दुर्गा राम की आराधना से प्रसन्न होकर शक्ति प्रदान करती हैं । रावण का वध होता है । राम की शक्ति पूजा हिंदी की एक कालजयी कविता मानी जाती है । मैं नहीं जानता यदि आज की तारीख में निराला यह कविता लिख रहे होते तो उसपर किस तरह की प्रतिक्रियाएं होतीं । बंगाल में जो दुर्गोत्सव मनाया जाता है दशहरे के अवसर पर उसके पीछे भी दुर्गा द्वारा महिषासुर वध की कथा है । दुर्गा और महिषासुर दोनों ही मिथकीय चरित्र हैं । किसी इतिहास में इनका उल्लेख नहीं है । इतिहास और विज्ञान इन चरित्रों को किस रूप में देखता है यह सहज अनुमान का विषय है ।
लेकिन विचारणीय यह भी है कि लोक और समाज इन मिथकों को किस तरह ग्रहण करता है । इधर दुर्गा और महिषासुर के मिथकीय चरित्रों को जिस रोशनी में देखने की कोशिशें हो रही हैं उस रोशनी में इन मिथकों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है । आवश्यकता इस बात की भी है की निराला और राम की शक्ति पूजा को भी इस रोशनी में देखा जाए । हिंदी का बुद्धिजीवी इस मामले में अभिव्यक्ति की आजादी का मामला उठाता है तो उसके मतलबों को भी समझना होगा । लोक में दुर्गा और महिषासुर की स्पष्ट छवियाँ हैं । इससे पहले महिषासुर को दलित शहीद की नजर से किसी ने नहीं देखा । आज देखा जा रहा है । शायद ही कोई इनकार करे कि यह इतिहास और मिथक के टकराव से बढ़कर राजनीति का मामला है । मुक्तिबोध की एक कविता में ब्रह्मराक्षस का काव्यात्मक बिम्ब आता है । यह ब्रह्मराक्षस किसी इतिहास का चरित्र नहीं है । यह भी मिथकों से आया है । लोक के पास ब्रह्मराक्षस की अवधारणा है । मिथक कई बार कविता में प्राण भर देते हैं । इसके कई प्रमाण हिंदी कविता के पास मौजूद हैं । मिथकों की राजनीति लोक के बीच आपसी टकराव की स्थितियां पैदा करती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी हिन्दू मिथकों और प्रतीकों को लेकर स्पर्शकातर रहे हैं । त्रिलोचन को लेखक संगठन के जिम्मेदार पद से हटाये जाने का प्रकरण बहुत पुराना नहीं हुआ है । ये हिंदी बुद्धिजीवी यदि बंगाल की दुर्गा पूजा देखने आयें तो बहुत संभव है कि बंगाल को सबसे पिछड़ा राज्य घोषित कर दें । वे हर चौराहे पर पूजा मंडपों में दुर्गा को महिषासुर वध करते देखकर पता नहीं क्या सोचेंगे । क्या मुझे याद दिलाना चाहिए कि यह वही बंगाल है जहाँ चौंतीस साल तक कम्युनिस्ट शासन रहा है । बड़े बड़े कम्युनिस्ट यहाँ पूजा पंडालों के बगल में लेनिन मार्क्स का साहित्य अपने स्टालों में बेचते मिल जायें तो हिंदी का जे एन यू मार्का बुद्धिजीवी क्या सोचेगा । क्या वह इन लोगों को मिथकों का पोषक नहीं कहेगा । तब शायद वह इन हिन्दू मिथकों पर संस्कृत्ति का आवरण डाल दे और इसे विशुद्ध उत्सव और लोक से जोड़ कर इसे जायज भी ठहरा दे । किन्तु आधा-पौने लाख रूपए प्रतिमाह घर ले जाने वाला यह बुद्धिजीवी जो अपने लेखों और भाषणों में सर्वहारा के लिए आँसू बहाता फिरता है वह क्या इनके जीवन व्यवहार को समझता भी है ? मुझे शक है ।
जिसे गाँधी सबसे अंतिम पायदान पर खड़ा आदमी कहते हैं वह भी दुर्गा और महिषासुर के द्वंद्व और एक के द्वारा दूसरे के वध को समझता है । दुर्गा और महिषासुर से इतर लोक के अपने मिथक हैं । वह उन्हें किसी दूसरे तीसरे नामों से जानते हुए उनपर अपनी आस्था प्रकट करता है । मिथक लोक व्यवहार में रहते आये हैं । आगे भी रहेंगे । बैजू बावरा भी संगीत की दुनिया का मिथक है । शायद ही किसी संगीत प्रेमी ने बैजू बावरा को दलित या सवर्ण की नजर से देखा हो ।
मैं जानता हूँ यह मुद्दा कितना संवेदनशील है । महिषासुर के दलित होने को लेकर क्या कोई इतिहास सम्मत शोध है ? इतिहास में आर्यों के आगमन और वैदिक संस्कृति की बात मिलती है । बहुत संभव है कि भारत के मूल निवासियों के साथ आर्यों के संघर्ष हुए हों और वहाँ से ये कथाएँ चल निकली हों । वर्ण विभाजित समाज में आपसी संघर्ष की कहानियों से मिथकीय चरित्रों का जन्म होता है । ये चरित्र बहुधा इतिहास से बाहर ही जिन्दा रहते आये हैं । मुझे व्यक्तिगत रूप से इन मिथकीय चरित्रों के लोक में स्वीकर को लेकर कभी संशय नहीं रहा । इतिहास बताता है कि हिन्दुस्तान अठारह सौ सत्तावन के पहले तक साम्प्रदायिक नहीं था । लोक में तथापि धर्म की रक्षा के लिए लड़ी गई लड़ाइयों की कहानियों में एक मजहब दूसरे से लड़ता हुआ दिखाई देता है । जबरिया धर्मांतरण की कथाएं हैं । भगत सिंह सिर्फ इतिहास ही नहीं वह थोड़ा मिथक भी है । इतिहास जिसे आतंकी कहता है लोक कई बार उसमें अपने नायक की छवि देखता है । इतिहास और मिथक का टकराव नया नहीं है । नया है उसका राजनीतिकरण । अगर फॉरवर्ड प्रेस के विवादित अंक के बारे में आ रही खबरें सही हैं तो यह एक दलित शहीद के साथ ही एक धर्मीय उन्माद भड़काने का भी मामला है । पिछले दिनों पवन करण की एक कविता देखने में आई । यौन कर्मियों पर यह बेहद औसत और सपाट कविता दसवीं देवी का एक नया मिथक प्रस्तुत करती है । इस मिथक को लेकर प्रशंसा में पंचमुख बुद्धिजीवियों को एक भिन्न मिथक पर दलित राग गाते देख कर दुःख होता है । मिथकों के बिना हिंदी कविता का संसार कैसा होगा !
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