बनारस शहर को लोग तरह-तरह के प्रतीकों से पहचानते हैं । किसी के लिए यह सीढ़ी और संन्यासी का शहर है । किसी दूसरे के लिए घाटों और गलियों का शहर । अन्य के लिए यह शहर राँड़ और साँड़ का शहर भी है । ठगों से भी कभी इस शहर की पहचान रही है । यह शहर जयशंकर प्रसाद और भारतेन्दु का भी तो है । एक लम्बी फ़ेहरिश्त बन सकती है ऐसे प्रतीकों की । पिछले दिनों यह शहर लोकसभा चुनाव के मुकाबले के लिए भी जाना गया । मेरे लिए शहर बनारस का मतलब है 'गंगातट' का कवि ज्ञानेन्द्रपति ।
कवि ज्ञानेन्द्रपति से पहली मुलाक़ात बनारस के ही चर्चित पत्रकार और मेरे गाँव भलेहटा के सुशील त्रिपाठी ने करवाई । हिन्दुस्तान अखबार के उनके दफ्तर में मैंने इच्छा प्रकट की कि मैं ज्ञानेन्द्रपति जी से मिलना चाहता हूँ । सुशील जी ने कहा कि यह इच्छा तो अभी पूरी की जा सकती है । उन्होंने ज्ञानेन्द्रपति जी को फोन लगाया । ज्ञानेन्द्रपति जी का शाम के वक्त टहलने का कार्यक्रम था । उन्होंने समय दिया । आजाद पार्क (या आजाद चौक) पर ज्ञानेन्द्रपति जी हमसे मिले । हम देर तक बातें करते रहे । यह लगभग दस साल पहले की बात होगी ।
अब सुशील जी नहीं रहे । ज्ञानेन्द्रपति जी से यदा-कदा फ़ोन से बात हो जाती है । कभी वे मेरी कोई कविता पढ़ कर फोन करते हैं । कभी मैं भी कहीं छपी कविता पढ़ कर मन हुआ तो फोन कर लेता हूँ । यह फोन अक्सर अपवाद हुआ करता है । मैं उन्हें विशिष्ट कवि मानता हूँ । एक दफे मैंने ज्ञानेन्द्रपति जी के सामने एक विचित्र सा प्रस्ताव रखा : ‘अपने शहर को आपकी नजर से देखना चाहता हूँ’ । बात तय हो गई । मैं बनारस में ही रुका था । यह मेरे अपने गाँव से लगभग तीस किलोमीटर है । गोदौलिया चौक पर ज्ञानेन्द्रपति जी मुझसे मिले । इसके बाद घंटों हम गलियों और घाटों पर घूमते बतियाते रहे । सच कहूँ तो बनारस को इस बारीकी से ज्ञानेन्द्रपति जैसा कवि ही देख सकता है ।
ज्ञानेन्द्रपति की आँखों से मैंने एक अन्य बनारस ही देखा उस रोज़ । उसकी बात फिर कभी । जो बात कहने की है वह यह कि मैने एक योजना के बारे में ज्ञानेन्द्रपति जी के साथ चर्चा की थी । क्या हम कविता को लेकर कोई आयोजन गाँवों में कर सकते हैं ? यह बिलकुल गैर-अकादमिक किस्म का आयोजन होगा । गाँवों के स्थानीय किसानों , खेतिहर मजदूरों , लोक गायकों , विद्यार्थियों , महिलाओं , लोक चिंतकों आदि के बीच कविता को लेकर कोई संवाद हो सकता हैं क्या ? साहित्य को उन तक ले जाया जाना चाहिए जिनके लिए वह लिखा जा रहा है । प्रयोगशालाओं में तैयार उन्नत किस्म का बीज भी तभी काम का साबित होता है जब खेतों में उसका सफल परीक्षण हो जाए और फसल आदमी के काम आए । कविता को भी लेखकों के ड्राइंग-रूम से बाहर लाने की ज़रूरत है । वह पुस्तकालयों की अल्मारियों के लिए नहीं बनी है । ज्ञानेन्द्रपति जी ने उत्साह दिखाया । रूचि ली । यथासमय भालेहटा में इस आयोजन को लेकर स्थानीय लोग आग्रही हुए । लेकिन यह आयोजन हो न सका । इसके कारणों पर फिर कभी ।
गाँव को आज भी कवि का इंतजार है । मुझे आज भी लगता है कि हम जो कविताएँ लिखते हैं उनको उस लोक के बीच लेकर जाना चाहिए जिसके निमित्त्त वह लिखी जाती है या ऐसा हम कहते और मानते हैं । यह जो लोक है वह बहुत पढ़ा-लिखा भले न हो वह तुलसी कबीर को आज भी गाता है । वह निर्बोध नहीं है । वह संवेदनशील है । हम ही उस तक पहुँच नहीं पाते । वह गोरख पाण्डेय को समझता है । वह यदि फूहड़ संस्कृति को अपना रहा है तो इसका एक कारण यह भी है कि हम उसके पास जा कर उसे विकल्प नहीं दे पा रहे । कमी हमारी तरफ से भी है ।
एक सवाल का उत्तर मैं आज भी ढूँढ़ रहा हूँ । क्या हम खुद को लेकर असुरक्षित महसूस करते हैं ? क्या अपनी कविताओं पर हमें भरोसा है ? क्या हम उसी उत्साह से एक प्रत्यन्त गाँव में जाने के लिए प्रस्तुत है जितने उत्साह के साथ एक महानगर या कस्बे के श्रोता पाठक के बीच जाते रहते हैं ।
गाँव देहात के लिए हमारी तड़प क्या नकली है ? एक कवि जो कलकत्ता दिल्ली लखनऊ के श्रोताओं के बीच पढ़ता है क्या वह इस बात से सुरक्षित महसूस करता होगा कि उसका बड़ा नाम ,पद , पुरस्कार एक आभामंडल तैयार करते हैं जिसके प्रभाव में शहरी पाठक सहज ही आ जाता है । शहरी श्रोता पाठक के लिए यह बात मायने रखती है कि कोई कवि साहित्य अकादमी , ज्ञानपीठ आदि से सम्मानित है । उसे सराहना ही पड़ता है । गाँव का आदमी इस आभामंडल से मुक्त है । वह आप को सुन कर आपको या तो सराहेगा या फिर ‘धत्त’ कह कर चल देगा ।
बनारस से भलेहटा का रास्ता बमुश्किल डेढ़ घंटे का है । अनायास ही गाँव से गाड़ी भिजवा कर शहर से किसी कवि को ससम्मान ले आया जा सकता है और शाम को वापस छुड़वाया जा सकता है । यातायात कोई मुश्किल नहीं है । लेकिन फर्क है यहाँ के श्रोता पाठक में । वह नहीं जानता कि आप कितने बड़े कवि हैं । इस समाज को अपने श्रेष्ठ साहित्य से परिचित करवाना क्या हमारा आपका दायित्व नहीं ? मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि ज्ञानेन्द्रपति जी को एक दिन भलेहटा जरुर ले जाऊँगा ।
कैसी प्रतिक्रया होगी बनारस के एक गाँव की जब बनारस का कवि अपनी कविता में ‘चेतना पारीख’ को याद करेगा । यह कवि जो खुद को 'खेसारी दाल की तरह निन्दित' कहता है । उस कवि का स्वागत खेसारी दाल खाने वाले कैसे करेंगे । कविता के एलिट समाज में ,खेसारी दाल की तरह निन्दित कवि , खुद को ‘भारतीय कविता के क्षेत्र से उखाड़ दिए जाने’ को लेकर चिंतित है । यह ‘संशयात्मा’ का कवि बनारस की पहचान है । जैसे काशी विश्वनाथ मंदिर का कंगूरा दसाश्वमेध पर । जैसे बी एच यू और लंका गेट । जैसे बनारसी पान का बीड़ा । बनारस के ठेठ देसी (देशज) शब्दों को ज्ञानेन्द्रपति ने अपनी कविता में खूब याद किया है । ‘गोड़तारी’ और ‘मुड़तारी’ जैसे शब्द तो अभी याद आ रहे हैं ।
धराँव इंटरमीडिएट कॉलेज के अवकाश-प्राप्त अध्यापक और साहित्य-कला-संस्कृति के अनुरागी , मेरे पड़ोसी गाँव प्रभुपुर के निवासी राधेश्याम त्रिपाठी जी अब भी मिलने पर पूछना नहीं भूलते, ‘ज्ञानेन्द्रपति आने वाले थे ,उसका क्या हुआ’ । क्या कवि ज्ञानेन्द्रपति सुन रहे हैं ?
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