Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-22



हिन्दी में सत्ता केन्द्रों का अपना महत्व है । इस पर अलग से कहने कि आवश्यकता नहीं है । यह अकारण नहीं है कि आज हिन्दी कविता में एकाधिक युवा दिल्ली जा बसने को सफलता का एक फार्मूला मान बैठे हैं । कुछ तो दिल्ली जाने को एक अभियान की तरह ले रहे हैं । मैं अक्सर सोचता हूँ कि दिल्ली हिन्दी का काबा कैसे बन गई । कुछ मित्र समझाते हैं कि दिल्ली में बड़े प्रकाशक हैं , बड़ी पत्रिकाएँ हैं , बड़े लेखक हैं , बड़ी अकादमियाँ हैं । यह सब मिलाकर एक सत्ता बनती है । सत्ता से नजदीकियों के अपने स्वाभाविक परिणाम होते हैं । मैं इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं देख रहा हूँ । बांग्ला साहित्य में यही मुकाम कलकत्ता को भी हासिल है । मेरा ख्याल है कि सफलता का शार्टकट पकड़ने वाले हर समय में होते हैं । लेकिन हर समय में यह नहीं होता आया है जो अब बहुत आम-सा हो गया है । जरूरी समझा जाये तो कह देना चाहिए कि बेहद औसत लिख कर भी आप चर्चा में आ सकते हैं अगर आप किसी सत्ता केंद्र से नजदीकी रिश्ता गाँठ लेने में कामयाब हो जाएँ । एक दो उदाहरण तो मैं नाम लेकर यहाँ सामने रख सकता हूँ । बहरहाल बात जो कहनी है वह इससे वाबस्ता होते हुए भी थोड़ी अलग है । माना कि दिल्ली में बड़े लोग हैं । हैं तो हुआ करें । हिन्दी का बेहतरीन साहित्य इस वक्त दिल्ली के बाहर लिखा जा रहा है । और यह बात मैं पूरे होशोहवास में कह रहा हूँ । छोटे छोटे शहरों और कस्बों से बेहतरीन पत्रिकाएँ निकल रही हैं । बेहतरीन लोग लिख रहे हैं । दिक्कत यह है कि हम इनपर चर्चा नहीं कर रहे । इसे सामने नहीं ला रहे । इस चुप्पी का मतलब मेरे लिए एक पहेली है । अभी दिल्ली के बरक्स मैं दुमका की बात करूँगा । कोई तुलना नहीं है दोनों जगहों के परस्पर अवस्थान में । दुमका में हिन्दी का एक बेहतरीन कवि है । नाम का प्रथमार्द्ध उसका अशोक जरूर है किन्तु आगे (वाजपेयी नहीं) सिंह है । एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अशोक सिंह ने अपने समय और समाज का जीवंत दस्तावेज़ अपनी कविताओं में दर्ज़ किया है । ऐसा भी नहीं कि अशोक पत्र-पत्रिकाओं में छप नहीं रहे हैं । बल्कि कहना चाहिए कि ठीक ठाक छप रहे हैं । तथापि किसी समीक्षक-आलोचक को पिछले दस वर्षों में उस तरह से अशोक सिंह का नाम लेते मैंने नहीं देखा जिस तरह से वे अपने चहेते कवियों का नाम लेते रहते हैं । मैं इसे हिन्दी के व्यापक लेखक समाज के विवेक और उसकी अपनी राजनीति से जुड़ा मुद्दा मानता हूँ । हमारे पास निरपेक्ष समीक्षकों-आलोचकों का अकाल-सा है । कुछ हद तक यह मामला उनके साहस से भी जुड़ा है, ऐसा न मानने का कोई कारण नहीं है । आगे मैं अशोक सिंह की एक कविता (मां की रसोई) पर बात करना चाहूँगा । कविता में छोटी-छोटी आठ पंक्तियाँ हैं महज । कुल चार वाक्यों की इस कविता को देखा जाना चाहिए । 
 
वक़्त के चूल्हे पर चढ़ी है 
जीवन की हांड़ी 
 
खौल रहा है उसमें 
आंसू का अदहन 
 
अभी-अभी मां डालेगी 
सूप भर दुख 
और झोंकती अपनी उम्र 
डबकाएगी घर-भर की भूख ! 
 
हिन्दी में मां पर लिखी कविताओं की यूं तो कमी नहीं  लगभग एक मिथक की तरह मां के बिम्ब कविताओं में देखे जा सकते हैं  इन कविताओं का स्थायी भाव यह कि मां त्याग का ही पर्याय बन जाती है  कविता की दुनिया में मांएं जिस तरह से याद की जाती हैं उसमें भावुकता ज़्यादा स्थान घेरती है  मुझे कई बार ऐसा लगता है कि कविता में हम जिनका महिमा-मण्डन कर रहे होते हैं , इनके प्रति कहीं  कहीं एक अपराध-बोध हमारे भीतर काम कर रहा होता है  मुझे इस वक़्त ऐसी कोई कविता किसी महत्वपूर्ण कवि के नाम के साथ नहीं याद  रही है जिसमें मां एक स्त्री और एक मनुष्य की तमाम दुर्बलताओं के साथ  दिखाई देती हो  ऐसा शायद इसलिए होता होगा कि एक सर्वमान्य छवि या इमेज मां के बारे में हमारे मनोजगत में गहरे अंकित हुआ करती है  शास्त्र भी कहते हैं कि मां के ऋण से मुक्त नहीं हुआ जा सकता   वह जन्म देने वाली सत्ता है इसलिए स्तुत्य है , पूजनीय है  
 
खैर , यहां सवाल यह है कि मां पर देखी सुनी कविताओं में इस एक छोटी सी कविता में ऐसा क्या है जो उसे बहुत सच और विश्वसनीय बनाता है  मुझे ऐसा लगता है कि चंद पंक्तियों मे एक "जीवन-दर्शनबड़े ही प्रभावी ढंग से कविता में उपस्थित होता है जो स्त्री के समग्र जीवन का एक हाई-डेफ़िनिशन  चित्र खींचता है  इतने कम शब्दों में एक मां और एक स्त्री के समूचे जीवन-व्यापार को कह पाना अशोक सिंह को एक बेहतर कवि साबित करता है  मां से भी बढ़कर यह एक स्त्री की कविता है  उसका जीवन ही एक हांड़ी है जो चूल्हे पर चढ़ी हुई है  वह हर हाल में एक इस्तेमाल की वस्तु में बदल जाती है  और स्पष्ट करूं तो वह एक उपकरण मात्र है  जिस तरह किसान कभी अपने हल और कुदाल का दुख नहीं पूछता , एक रसोइया भी उस हांड़ी का दुख नहीं पूछता और उसकी आपबीती कोई नहीं सुनता  वह आग पर चढ़ती है , तपती है तब घर के लिए अन्न पकते हैं  उसे थकने की इज़ाजत नहीं है  अगले ही जून उसे धो-मांज कर फिर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाएगा  अदहन की जगह आंसू , जो कि उसके हिस्से में ही आते हैं  अनाज की जगह दुख जो उसी के हैं  जलावन की जगह अदद उम्र जो उसी की है  उफ़्फ़ ..इतना कारुणिक चित्र ! 
 
यह कैसी रसोई है कि जिसमें सूप भर अन्न के बदले सूप भर दुख पकाए जा रहे हैं  यह कौन सा चूल्हा है जिसमें काठ और कोयले की जगह मां की उम्र झोंकी जा रही है  यह मां की कैसी रसोई है जहां अदहन में पानी की जगह आंसू उबल रहे हैं  वक़्त के चूल्हे पर जीवन की हांड़ी चढ़ाने वाला यह  कवि  हिन्दी कविता में अभिव्यक्ति का एक ईमानदार हस्ताक्षर है  कहते हैं, ढाई आखर  प्रेम के  एक सुन्दर कविता भी सिर्फ़ चार पंक्तियों मे संभव है  
 
कहना चाहिए कि सत्ता केन्द्रों से दूर लिखी जा रही कविताओं पर बात करना हमारे जरूरी एजेण्डे में शामिल होना चाहिए । न्याय का मौलिक सिद्धान्त कहता है कि हजार कमजोर कवियों का पुरस्कृत और सम्मानित होना उतना बड़ा अन्याय नहीं है जितना कि एक जेनुइन कवि को उपेक्षित छोड़ देना । 
 

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