स्टाइल और फैशन में फर्क होता है । सार्वजनिक जीवन में हम इस फर्क को हमेशा देखते आये हैं । एक दौर में युवाओं ने देव आनंद की तरह दिखना चाहा । उनकी चाल-ढाल, बोलने के तौर तरीके का अनुकरण किया । आगे राजेश खन्ना , अमिताभ बच्चन की अदाओं के दीवाने भी देखे गए । सिनेमा के इन नायकों की अपनी ख़ास अदा थी । एक ख़ास तरह का मैनरिज्म था इनके यहाँ जो बहुत पसंद किया गया । यह उनकी स्टाइल थी । लेकिन इनकी स्टाइल को पसंद करने वालों ने जब इनका अनुसरण किया तो यह फैशन की तरह सामने आया । अपनी स्टाइल बनाने वाले हमेशा ही बिरले ही हुआ करते है । फैशन की तरह किसी ख़ास स्टाइल को तात्कालिक प्रभाव में अपनाने के बाद अपने लिए एक स्टाइल बना पाना भी बिरलों के ही बस की बात रही है । कौन नहीं जानता कि एक दौर में कुंदन लाल सहगल की स्टाइल में गाने वाले मुकेश और किशोर कुमार ने बाद में अपनी खुद की स्टाइल पा ली थी । लेकिन मैं बात यहाँ सिनेमा से हटकर साहित्य की करना चाहता हूँ । साहित्य में भी , ख़ास तौर पर कविता की बात करूंगा । हिन्दी कविता के परिसर में अपनी स्टाइल वाले कवि कौन हैं । किसी स्टाइल के प्रभाव में लिखते हुए अपनी निजी स्टाइल अर्जित कर लेने वाले कवि कौन हैं । फैशन की तरह किसी ख़ास स्टाइल की कवितायें लिखने वाले कवि कौन हैं ।
स्टाइल कहने सुनने में उतना रुचिकर न लगता हो तो शैली कह लें । हम अक्सर ही कथ्य और शैली की बात करते हैं । कथ्य अर्थात कन्टेन्ट । शिल्प अर्थात फॉर्म । बहुत चलताऊ हो चले हैं आजकल ये दो शब्द । फिर भी इन पर चर्चा जरूरी है । क्या आप एक समकालीन हिन्दी कवि का नाम लेकर कह सकते हैं कि हाँ इस कवि की अपनी एक स्टाइल ऑफ़ राइटिंग है । इस बाबत सोचते हुए सबसे पहले जो नाम मेरे स्मरण में आता है वह है विनोद शुक्ल का । क्या कोई असहमत हो सकता है इस बात से कि कम से कम शिल्प के मामले में विनोद शुक्ल दूर से पहचाने जाने वाले कवि है । विनोद कुमार शुक्ल से थोड़ा पहले जाएँ तो मुक्तिबोध का नाम श्रद्धा के साथ स्मरण करना पड़ता है ।
कवि का भाषा व्यवहार उसके शिल्प की निर्मिति में अहम् भूमिका अदा करता है । अपने भाषा व्यवहार से वह अपने मुहावरों को अर्जित करता है । मुक्तिबोध इसके अन्यतम उदाहरण हैं । मुक्तिबोध से पहले उस तरह का भाषा व्यवहार सहज दृष्टि में नहीं आता ।
एक बात लगभग मिथ की तरह दोहराई जाती है कि हिन्दी में केदारनाथ सिंह के बाद की काव्य पीढ़ियाँ उनकी क्लोन हैं । यह मिथ ही एक मिथ्या है , सबसे बड़ा फरेब है हिन्दी कविता में । केदार नाथ सिंह की जो काव्य भाषा है वह हिन्दी कविता की निरंतरता में उत्तर छायावादी आधुनिक कविता की भाषा है जो केदार नाथ सिंह के दूसरे समकालीन कवियों में भी उसी तरह से अभिव्यक्ति पाती है । समकालीन हिन्दी कविता के अधिकांश कवि एक यूनिफ़ॉर्म भाषा के कवि हैं । यह जरूर है कि केदारनाथ सिंह एक सफल कवि हैं । उनकी कविता का रूमान नए कवियों को आकर्षित करता है । आज हिन्दी कविता में किसी के पास भाषा असरदार है तो कथ्य नहीं है । कहीं कथ्य असरदार है तो भाषा उसे वहन करने लायक नहीं है । कथ्य के अनुरूप भाषा वाले कवि जो हैं वे अधिकार फैशन वाली कविताएँ लिखते रहे । अपनी स्टाइल बनाने वाले कवि युगों बाद आते हैं और देर तक अपना प्रभाव छोड़ते हैं । हिन्दी कविता एक युग से ऐसे किसी कवि की प्रतीक्षा में हैं । हिन्दी कविता में एक लम्बे अरसे से नेता-बहुल किन्तु नायक-विहीन दौर चल रहा है । बहुत सारे अच्छे कवि सिर्फ अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं । कविता में किसी नायक का अकाल सा है ।
इसी कविता समय में बदलाव की आहटें और छटपटाहटें भी दर्ज हैं । नया-नया सा कुछ कहने की लालसा कवियों को विदेशी भाषा-साहित्य में भी भटकाती रही है । कभी निजी , बिलकुल निजी अनुभूतियों का उच्छ्वास कविता का एक वितान रचता रहा । लेकिन इन सबके बीच युगांतकारी कविता की सुदीर्घ प्रतीक्षा भी रही है । यह दो फसलों के बीच का परती समय है, जैसा कि निलय उपाध्याय बताते हैं । कविता की इस परती जमीन पर हल चलाने और उसे जोतने बोने वाले कवियों के लिए समय प्रतीक्षा में हैं ।
गौर करें तो सिनेमा , राजनीति और साहित्य में एक साधारण पैटर्न देखने में आता है । पिछले पच्चीस तीस वर्षों में इन क्षेत्रों में नायक उस तरह से उभर कर नहीं आये । इंदिरा गांधी , जयप्रकाश नारायण के बाद राजनीति का कद वही नहीं रहा । शाहरुख खान ,आमिर खान ,सलमान खान मिल कर भी अमिताभ बच्चन का कद नहीं पा सके । साहित्य में भी मुक्तिबोध धूमिल जैसी ऊंचाई समकालीन कविता में कोई कहाँ पा सका । क्या कारण हो सकते हैं ? मुझे लगता है कि यह हमारे सार्वजनिक जीवन की बहुत स्वाभाविक परिणति है । राजनीति में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं है । कोई बड़ा प्रतिरोध नहीं है । जोड़-तोड़ और गठबन्धन का लंबा दौर रहा है ,जहां येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना ही लक्ष्य है । सिनेमा में कला संस्कृति को नेपथ्य में धकेल कर बॉक्स ऑफिस निर्णायक भूमिका में आ चुका है । जो जितना पैसा बना ले वह उतना बड़ा स्टार है । बहुत स्वाभाविक है कि साहित्य , विशेषकर कविता में बहुत से सुघड़ कवियों की सक्रिय उपस्थिति के बावजूद कालजयी कवितायें हमारे पास अँगुलियों पर गिनने भर भी नहीं है । सच तो यह है कि कविता में पिछले कई दशकों से सफल कवियों का दौर चल रहा है । सफल कवियों से आच्छादित कविता के आकाश मे कविता का एक भी बड़ा सितारा नहीं है ।
अंग्रेजी के मुहावरे में कविता में लीडर तो बहुत से हैं किन्तु स्टेट्समैन कोई नहीं है । अपने स्तर पर कुछ कवियों ने हिन्दी कविता की संभावना को बनाए और बचाए रखा है । इस संभावना को आगे ले जाने की क्षमता आज कई युवाओं में है । नाम के फेर में न भी पड़ें तो इतना तो कह ही सकते हैं कि सामर्थ्यवान कवि हमारे बीच आज भी हैं । इनके बीच से कोई कविता के लिए अपना कितना कुछ दाव पर लगा सकता है इसा बात पर तय होगा भविष्य का बड़ा कवि । अन्यथा सफल कवियों और सफल कविताओं से ही संतोष करना होगा हमें ।
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