Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-18



कलकत्ता शहर कविता के मिजाज़ वाला शहर है । इसका अहसास आपको शहर में प्रवेश करते ही होने लगता है । पुलों से गुज़रिए तो पुलों के नाम में कविता नज़र आती है । रवीन्द्र सेतु, सुकान्त सेतु, विद्यापति सेतु । मेट्रो रेल के स्टेशनों में भी कविता नज़र आती है । कवि सुभाष स्टेशन, कवि नजरुल स्टेशन, गीतांजलि स्टेशन । सांस्कृतिक केन्द्रों की तो बात ही क्या है । रवीन्द्र सदन है, नजरुल मंच है, जीवनानन्द सभागार है । एक ज़माने में रवीन्द्र-सुकान्त-नजरुल संध्या के आयोजन भी होते थे शहर में । किसी शाम आप कॉलेज स्ट्रीट पर इण्डियन कॉफ़ी हाउस के आस पास टहल रहे हों तो जान लीजिए कि आपसे टकराने वाला हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति या तो स्वयं कवि है या फिर वह कविता को बेइन्तहा प्यार करने वाला है । आप इण्डियन कॉफ़ी हाउस में बैठे कॉफी सुड़क रहे हों तो इस बात कि प्रबल संभावना है कि आपकी बगल वाली टेबल पर बैठा शख्स जो लगातार सिगरेट के कश खींचता हुआ अपने साथियों के साथ गहन विचार विमर्श में मशगूल है वह किसी नई लिटिल मैगजीन का ब्लू-प्रिंट तैयार कर रहा होगा । हालांकि पहले वाली चमक अब इस कॉफी हाउस में भी कहाँ रह गई है । 
कॉलेज स्ट्रीट पर ही जिस जगह ट्राम लाइन सड़क को काटती है वहीं पातीराम बुक स्टॉल है । पातीराम की दुकान छोटी ज़रूर है लेकिन बांग्ला की शायद ही कोई साहित्यिक पत्रिका होगी जो हाँ उपलब्ध न हो । कॉलेज स्ट्रीट का पूरा इलाका साल भर चलने वाला पुस्तक मेला है । छोटे बड़े प्रकाशकों की दुकानों से सुसज्जित । हरदम गहमा गहमी और चहल पहल । पास ही बैठकखाना रोड और अम्हर्स्ट स्ट्रीट पर छापाखाना अर्थात छोटे-बड़े तमाम प्रेस । मिर्ज़ापुर स्ट्रीट पर कागज़ के थोक व्यापारी । कॉलेज स्ट्रीट नाम ही संभवतः इसीलिए पड़ा होगा कि इसपर कलकता विश्वविद्यालय और प्रेसिडेंसी कॉलेज समेत कई एक बड़े कॉलेज हैं । 
बांग्ला की प्रायः सभी पत्रिकाओं के पिछले आवरण पर प्राप्ति-स्थान पातीराम बुकस्टॉल, कॉलेज स्ट्रीट, कोलकाता अनिवार्यतः दर्ज़ हुआ करता है । अभी हाल के दिनों में यहीं पर रक्त मांस नाम की एक बांग्ला की साहित्यिक पत्रिका ने ध्यान खींचा जिसे अभी देख रहा हूँ । पातीराम बुक स्टॉल के कर्ता से एक बातचीत में मैंने प्रस्ताव रखा कि क्यों नहीं वे हिन्दी की कुछ पत्रिकाएँ और किताबें भी अपने यहाँ रखते । उनका उत्साह न बना । लेकिन हिन्दी की किताबें जहाँ बिकती हैं उन दुकानों पर भी हिन्दी की कोई साहित्यिक पत्रिका नहीं नज़र आती । हिन्दी के टेक्स्ट बुक थोक में ज़रूर मिलेंगे । सब कुछ सिलेबस के अनुसार । क्या मजाल कि किसी नए कवि का कविता-संग्रह ढूंढते हुए आप किसी हिन्दी पुस्तक विक्रेता के पास पहुँचें और वहाँ आपको वह संग्रह मिल जाए । आखिर कैसे भाषा बदलते ही बाजार अपना चेहरा बदल लेता है । हिन्दी में कोई पातीराम क्यों नहीं पैदा हुआ कलकत्ता में यह सवाल बना रहेगा । 
बांग्ला की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अड्डा रहा है कॉलेज स्ट्रीट । लेकिन दुःख की बात यह कि हिन्दी कविता और हिंदी साहित्य के लिए इस इलाके में बहुत कुछ उत्साहजनक नहीं मिलेगा आपको । कभी निराला की कर्मभूमि रहा यह शहर हिंदी के मामले में आज भी सेठाश्रयी ही है । उपलब्ध पब्लिक स्पेस का सदुपयोग करने का पूरा अवसर होते हुए भी हिन्दी वाले बंद कमरों की गोष्ठियां ही ज्यादा पसंद करते हैं । लोगों के पास जेबी संस्थाएं हैं । इनके अपने अपने एजेण्डे हैं । घरेलू गोष्ठियों की कोई नियमित श्रृंखला नहीं बन पाई । वैसे भी अब तक का अनुभव यह रहा है कि घरेलू गोष्ठियां बहुत जल्दी अपने साहित्यिक उद्देश्यों से पल्ला झाड़कर गपशप और चाय  नाश्ते का सिलसिला ही साबित हुईं और अपनी स्वाभाविक गति को प्राप्त हुईं । 
शहर में ऐसा कोई कोना भी होना ही चाहिए जहाँ बिना किसी रोक टोक एवं बिना औपचारिक निमंत्रण या सूचना के मिला जा सके । बहसें हों । रचनात्मक विकास के लिए परस्पर विचार विनिमय हो । नए लिखे जा रहे पर चर्चा हो । जगह ऐसी हो जो पब्लिक स्फीयर में हो । निजी स्वामित्व वाली जगहों पर जाने-आने में बहुतों को संकोच होता है । कलकत्ता फिल्म सेंटर अर्थात नंदन कॉम्लेक्स संलग्न बांगला अकादमी परिसर नियमित भेंट के लिहाज से एक मुफीद जगह है । यहाँ साहित्य, सिनेमा, कला और संगीत के नियमित आयोजन होते ही रहते हैं । क्यों न यहाँ खुले में कभी-कभार बैठ कर किसी साथी लेखक की नई रचना पर चर्चा की जाए । किसी ने नया कुछ रचा है तो उसे सुना जाए । बहस के लायक चीज़ है तो उसपर जम कर बहस की जाए । 
हम इस बात पर मुग्ध तो होते हैं कि बाबा नागार्जुन पैर में घुंघरू बाँध कर सार्वजनिक जगहों पर अपनी कविताएँ गा सकते थे । लेकिन खुद बंद कमरे में ही हवा में हाथ लहराना पसंद करते हैं । कमरा भी वातानुकूलित हो तो अच्छा । बाहर धूल और धूप बहुत है ।  आखिर समाज से कट कर हम कैसे अपनी रचना की प्रामाणिकता का दावा कर सकते हैं । हममें इतना रचनात्मक साहस तो होना ही चाहिए कि किसी चौराहे पर खड़े होकर उच्च-स्वर में अपनी कविता का पाठ कर सकें, उसे सस्वर गा सकें । किसी भीड़ भरी जगह पर अपनी किताब लेकर खड़े होने का साहस हममें होना चाहिए । जिस जन की बात हम कविता में करते हैं वह आखिर किस विधि से जुड़ेगा हमसे । हमारे पास आखिरकार बांग्ला भाषियों जैसा तैयार साहित्यिक समाज नहीं है । उसे तैयार किया जाना अभी बाकी है । हिन्दी का जो समाज हमें मिला है वह नन्दन, चम्पक, सरस सलिल, सरिता, मुक्ता, गृहशोभा, मनोरमा, अपराध कथाएँ आदि खरीद कर पढ़ रहा है । वह चमकदार फिल्मी पत्रिकाएँ खरीदता है और कुछ दिन बाद रद्दी में उन्हें तौल देता है । उसकी बौद्धिक जरूरतों के लिए क्या है जो उसतक सहज सुलभ उपलब्ध है । सोचने की आवश्यकता है । 
कॉलेज स्ट्रीट के इण्डियन कॉफी हाउस की सीढ़ियों से उतरते हुए हमें एक मध्य-वय का आदमी दिखता है जिसके हाथ में कुछ किताबें हैं । शायद किसी लघु पत्रिका का कोई नया अंक अथवा कोई नया कविता संग्रह जिसकी काया बहुत पतली है । वह किताबें हवा में लहरा रहा है । बीच-बीच में कुछ बोल कर उन किताबों के बारे में कुछ बताता है वह । हमारे साथ हिन्दी के कुछ लेखक हैं । एक मित्र कहते हैं देखिए न बांग्ला वाले ऐसे भी बेच लेते हैं किताबें । मैं कहता हूँ यही एक रास्ता है हिन्दी वालों, तुम्हारे लिए ! 

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