Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-14



जीवन में ऐसे अवसर कम ही आते हैं कि जब किसी एक व्यक्ति या वस्तु के बारे में लोगों की राय एक जैसी हो । मत-भिन्नता बहुत स्वाभाविक है । लेकिन मत-भिन्नता होते हुए भी एक व्यक्ति या वस्तु के बारे में फर्क का जो व्यवधान है वह कभी उतना अधिक नहीं होता जितना साहित्य में एक कवि या कविता को लेकर होता आया है । एक गुलाब के फूल को लेकर लोगों की राय मालूम कीजिए । किसी को गुलाब बहुत पसंद होगा तो किसी दूसरे को ज़रा कम पसंद होगा । लेकिन ऐसा कम ही देखने में आएगा कि एक के लिए वह सुंदर और दूसरे के लिए असुंदर बन जाए । लेकिन कवि और कविता गुलाब नहीं होते, अनुभव यही बताता है । मुझे अज्ञेय की असाध्य-वीणा बहुत पसंद है । लेकिन मेरे एक साहित्यिक मित्र के लिए वह बेकार कविता है । आखिर ऐसा कैसे होता है । एक ही कवि के बारे में आकाश-पाताल जैसे अंतर वाली सम्मतियाँ क्यों मिलती हैं, इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि मनुष्य का मन एक हजार अनुकूल और प्रतिकूल धाराओं के संघर्ष के रूप ग्रहण करता है , उसे अगर प्रमाण मान लें तो मूल्य निर्धारण का कोई सामान्य मानदण्ड बन ही नहीं सकता । ग्राहक और विक्रेता के अपने अपने मन के अनुसार सेर बनाने को छोड़ दीजिए तो बाजार बंद हो जाएँगे । कवि का कारबार इसी मानसिक सेर से चलता है” । तो क्या पूरा मामला हमारे अलग-अलग मानसिक सेर का ही है । कैसे बनत है यह सेर । तब क्या हम इसे अपना-अपना चश्मा मानें । 
संभव है कि मनुष्य रूप में हमारी निर्मिति हमारी संवेदनशीलता को भी अलग-अलग स्तरों पर प्रभावित करती हो । ऐसा न होता तो एक ही कविता के बारे में आकाश-पाताल जैसे अंतर वाली सम्मतियाँ कैसे आतीं । अपने निबंध आलोचना का स्वतंत्र मान में आचार्य द्विवेदी कहते हैं कि निर्णायक समालोचना या जुडिसियल क्रिटिसिज़्म करने वाले आलोचक को अपने मनोभावों से प्रभावित न होकर किसी ऐसे मानदण्ड से फैसला करना चाहिए जो सबके लिए एक हो । वे कहते हैं कि साहित्य अगर हमारी आधुनिक समस्याओं के लिए उपयुक्त अध्ययन-सामग्री नहीं उपस्थित करता है तो वह बेकार है । इस तरह आचार्य द्विवेदी की दृष्टि में साहित्य के अध्ययन को साध्य रूप में नहीं बल्कि साधन रूप में देखे जाने की आवश्यकता है । साहित्य का क्रमबद्ध अध्ययन करके हम अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं का कारण और स्वरूप यदि नहीं समझ पाते तो उसकी उपयोगिता संदिग्ध है । हजारी प्रसाद द्विवेदी की इस स्थापना से हमें सहमत होना ही पड़ता है । लेकिन यह प्रश्न हमें बार-बार चुनौती देता है कि वह मानदण्ड क्या है जो सबके लिए एक हो सकता है । आलोचना में क्या हमारे पास ऐसे टूल्स मौजूद हैं जिनके सहारे निर्विवाद रूप से किसी कवि या कविता का सटीक मूल्यांकन-विश्लेषण किया जा सके । अवश्य ही मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाना एक कसौटी हो सकती है जिसके आधार पर तय किया जाए कि एक कविता कितने काम की है । देखना होगा कि उसका लक्ष्य क्या है । एक निबंध मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है में हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि साहित्य का साधक केवल कल्पना की दुनिया में विचरण करके, केवल हाय-हाय की या वाह-वाह की पुकार करके अपने सामने की कुत्सित कुरूपता को नहीं बदल सकता । साहित्य का कारोबार मनुष्य के समूचे को लेकर है । वह जीवन की उपेक्षा करके सजीव नहीं रह सकता । वे कहते हैं कि बिजली की बत्ती मुँह से फूँक कर नहीं बुझाई जा सकती । 
यह सचमुच विचारणीय है कि साहित्य में मनुष्य जीवन के समूचे की कितनी जगह आज है आज की तारीख में । जाहिर है कि मनुष्य के समूचे कार्य-व्यापार में महज कविता-कहानी-उपन्यास ही नहीं बल्कि ज्ञान-विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, कला आदि विधाएँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं । दुर्भाग्य से आज कविता-कहानी को ही साहित्य मान लिया गया है । लिहाजा मनुष्य की मानसिक भूख के लिए हम संतुलित भोजन नहीं दे पा रहे हैं । हमारे पास शिशु-साहित्य, किशोर-साहित्य के नाम पर क्या मौलिक अथवा अनूदित साहित्य है, इस प्रश्न पर विचार किया जा सकता है । आज के साहित्यकारों का दायित्व यह भी है कि वे अपने समाज के बच्चों और स्त्रियों के लिए उपयोगी साहित्य उपलब्ध कराएं । देश-विदेश के श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद रूप में उपलब्ध कराना साहित्यकारों, प्रकाशकों का दायित्व है । हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि हमारे लिए इसलिए भी प्रासंगिक है कि वह हमें जरूरी समझ देती है जिससे रचना का विश्लेषण करके ठीक-ठीक समझ लिया जाय कि प्रगतिशील वस्तुतः कौन सी है और केवल अधकचरे आधुनिक  विचारों को हवा में से पकड़ कर उन पर से अपना कारबार करने वाली रचनाएँ कौन सी हैं । वे हिन्दी को करोड़ों भारतीयों के हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने वाली भाषा के रूप में देखते हैं और चाहते हैं कि हिंदी में जो साहित्य लिखा जाए वह इस बड़े उद्देश्य को ध्यान में रख कर लिखा जाए । 
इस बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर जो साहित्य लिखा जाएगा उसका सहज होना भी आवश्यक होगा अन्यथा वह करोड़ों लोगों तक पहुंचेगा किस तरह । सहज भाषा पाने के लिए कठोर ताप की आवश्यकता है, ऐसा आचार्य द्विवेदी भी मानते हैं । जब आदमी सहज होगा तो उसकी भाषा भी सहज होगी । यहाँ हम द्विवेदी जी का वह कथन भी याद कर लें जहाँ वे कहते हैं कि सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है । सीधी लकीर खींचने का टेढ़ा काम करने वाला  अर्थात सहज सरल भाषा में साधारण पाठक की मानसिक भूख मिटाने वाला , उसे मनुष्य रूप में उन्नत बनाने वाला साहित्य ही लक्ष्य होना चाहिए । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक जगह लिखा है कि साहित्य से संबंध रखने वाले जीव पाँच प्रकार के होते हैं  लेखक, पाठक, संपादक, प्रकाशक और आलोचक । सबके क्षेत्र अलग-अलग हैं । पढ़ने वाला आलोचना नहीं करता । आलोचना करने वाला पढ़ता नहीं । यही तो उचित नाता है । एक ही आदमी पढे भी लिखे भी इत्यादि-इत्यादि तो साहित्य में अराजकता फैल जाए । निश्चय ही यह द्विवेदी जी की विनोदप्रियता ही है लेकिन इसके निहितार्थ कम गहरे नहीं हैं । वे स्पष्ट कहते हैं कि संसार को महनाश से बचाना है तो साहित्यिकों को विराट प्रयत्न करने होंगे । आचार्य द्विवेदी का यह स्वप्न तो तब पूरा होगा जब हिन्दी के साहित्यिक अपने विराट प्रयत्नों को पुरस्कार हथियाने से इतर कामों में निवेशित करें । 

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