Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-6



संगठित अपराध में तब्दील होती राजनीति और संगठित गिरोह में तब्दील होते सत्ता प्रतिष्ठानों के समय में साहित्य के संकाय में शुचिता और पारदर्शिता जैसे मूल्यों की बात करना साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करने जैसा है और मुक्तिबोध के शब्दों को दोहराएँ तो ऐसा करना मूर्खता है । लेकिन साहित्य जिनके लिए भरोसे की आखिरी जगह है वे इसपर आवश्यकता से अधिक न सही, आवश्यकता-भर भरोसा भी न करें यह मुश्किल है । भरोसा करना पड़ता है । संकट तब पैदा होता है जब आवश्यकता-भर भरोसा भी बचाया नहीं जा सकता है । अपने सार्वजनिक जीवन में हम इससे अधिक विपन्न पहले कभी न थे । हिन्दी में सम्मानों और पुरस्कारों की विश्वसनीयता आज अपने निम्नतम मान पर आकर ठिठकी हुई है । 
एक मित्र से चर्चा हो रही थी । बोले जब किसी को पुरस्कृत किया जाता है तो उसके संकेत यह होते हैं कि वह व्यक्ति अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाये । दिक्कत यहीं से शुरू होती है। माना जाये कि कविता के लिए कोई पुरस्कार श्रीमान क को दिया जाना तय हुआ है । अब अगला प्रश्न इस पुरस्कार समिति की तरफ जाता है कि क्या इस दौर में लिखी जा रही तमाम कविताओं से वे गुज़र चुके हैं । अगर ऐसा नहीं है तो फिर ऐसे किसी भी प्रयास के लिए सार्वजनिक स्वीकृति पा लेना असंभव होगा । मामला कुछ-कुछ सौंदर्य प्रतियोगिताओं की तरह का है । मिस इंडिया चुनी गई सुंदरी प्रतिद्वंद्विता कर रही कुछ सुंदरियों के बीच से ही चुनी जाती है । लेकिन इतना तो हम भी जानते हैं कि किसी प्रत्यंत ग्राम की एक सुंदरी जो कि इन सबपर भारी पड़ सकती थी वह तो इस प्रतियोगिता के बारे में जानती तक नहीं । फिर भी इतना तो है कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता कर रही सुंदरियों के बारे में पहले से लोग जानते हैं । कई दौर की प्रतिद्वंद्विता के बाद इनमें से एक को चुना जाता है । लेकिन साहित्य में तो सुंदरियाँ सीधे किसी आयोजक-संयोजक के स्वप्न में आती हैं और तत्पश्चात उन्हें हूर का खिताब दे दिया जाता है । पिछले पाँच वर्षों में न जाने कितनी सुंदरियाँ साहित्य के रैम्प पर इतराती बलखाती हुई अवतरित होती रही हैं । 
साहित्य की हूरें ढूँढने के मामले में शिमला से लेकर जोधपुर तक की आबोहवा एक जैसी है । कुछ वर्ष पहले एक संपादक मित्र ने एक सम्मान की घोषणा अपनी पत्रिका में की । मित्र हैं इसलिए मैंने भी पूछ लिया कि अच्छा यह तो बताइये कि इस सम्मान के लिए जो विशेषज्ञ समिति बनाई है आपने उसमें कौन लोग हैं । आपके पाठकों को इतना तो जानना ही चाहिए । उनका जवाब यह रहा कि नेम ऑफ ज्यूरी कैन नॉट बी डिस्क्लोज्ड । जब सम्मानों कि घोषणा उन्होने की तब जिन लेखकों के नाम सामने आए उनमें सभी एक क्षेत्र-विशेष से थे । इनमें एक को छोड़कर कोई ठीक-ठाक लेखक कहलाने लायक नहीं था । किसी सम्मान के निर्णायकों के बारे में पूर्व सूचना दे देने से निर्णय की ग्रहण-योग्यता बनती है । विचारार्थ स्वीकृत रचनाओं के बारे में जानकारी देने से उसकी पारदर्शिता बनती है । निर्णय की प्रक्रिया से संबन्धित विवरण दे देने से उसकी शुचिता तय होती है । लेकिन हिन्दी में तो पाठक को मदारी का खेल देखने आया तमाशबीन मान लिया जाता है । उसे सिर्फ ताली बजाने के लिए उपयोगी माना गया है । मदारी चाहे जो करे । मदारी का जमूरा चाहे जो करे । मदारी के बंदर-बंदरिया चाहे जो करें । तमाशबीन के लिए यह सब जानना भला क्यों ज़रूरी है । उसे तो सिर्फ ताली बजाना चाहिए । वह सवाल कैसे पूछ सकता है । 
हम हिन्दी वाले साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा नहीं करते । हमने मुक्तिबोध की बात को गाँठ में बांध लिया है । लेकिन हम साहित्य पर आवश्यकता-भर भरोसा करना चाहते हैं । भरोसा करना चाहते हैं इसीलिए बार-बार सवाल पूछ बैठते हैं । हाल ही में फिर एक बार एक संपादक मित्र ने एक नए सम्मान का आग़ाज़ किया । सम्मान की घोषणा हुई तो सम्मानित कवि को बधाई देते हुए एक बार फिर मैं पूछ बैठा कि भाई यह बताइये कि सम्मानित कवि के अलावा और किन कवियों की रचनाएँ विचारार्थ आई थीं । इस बार तो मित्र खफा ही हो गए । उन्होने कहा आपकी नहीं आई थी इतना सार्वजनिक करना पर्याप्त होगा, आपके पास दूसरे ज़रूरी काम भी होंगे आप अपनी ऊर्जा वहाँ लगाएँ । हम कैसे समझाएँ अपने इस मित्र को कि इस तरह के सवाल पूछना भी हमारे लिए ज़रूरी कामों में शुमार है । 
मित्रो, हम साहित्य का तमाशा देखने वाले लोग नहीं हैं । हम सिर्फ ताली बजाने के लिए तमाशे के सामने नहीं खड़े हुए हैं । सवाल भी करेंगे । वे जवाब दें या न दें उनकी मर्ज़ी । सवाल पूछते रहेंगे । साहित्य की उनकी जमींदारी में हमारी कोई हैसियत न सही अगर वे हमें इसी दुनिया का नागरिक मानते हैं तो वे हमारे सवालों से बच नहीं सकते । 
आप जिसे चाहें ताज पहनाएँ । आप जिसको चाहें जागीरें सौंप दें । ताज आपका । जागीर आपकी । लेकिन इज्जत, वह तो सिर्फ हम ही देते हैं । और वह हम उसे ही दे सकते हैं जो सचमुच इसके योग्य होगा । वह नहीं जिसे आप हमारे सामने लाकर खड़ा कर देंगे । वह देश के किसी छोटे से कस्बे में बैठ कर कवितायें लिख रहा होगा । वह किसी गाँव में बैठ कर कहानियाँ लिख रहा होगा । वह किसी महानगर की गुमनाम किसी बस्ती में बैठकर नया कुछ रच रहा होगा । हमारे सरोकार उसीसे जुडते हैं । हम उसके हक की बात करते हैं । 
आने वाले दिनों में हमारा नागरिक मन ऐसे किसी साहित्यिक प्रयास की तरफ उत्सुकता के साथ देख रहा होगा जिसमें शुचिता और पारदर्शिता के लिए पर्याप्त जगह होगी । ऐसे सद्प्रयासों में लोक-लोक का तोता-रटंत नहीं चाहिए हमको । हम तो सचमुच के लोकतान्त्रिक तौर-तरीकों के तलबगार है । अन्यथा आप चमकीले सिक्के उछालते रहेंगे और एक हल्की सी रगड़ में ही उसका रंग उतार दिया जाएगा । हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं हुआ करती । चमक का बाजार जब-जब गर्म होगा कोई वीरेन डंगवाल आयेगा और कहेगा, जो चमक रहा है वही शर्तिया काला है । अवश्य ही आने वाले दिनों में हिन्दी में सबसे सम्मानित वही होगा जो सम्मान पाने से बचा रह जाएगा । 

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