Saturday, November 22, 2014

अक्षर घाट-30

 


बात पुरानी है | दस्तावेज नामक पत्रिका के सौवें अंक का लोकार्पण होना था | दस्तावेज गोरखपुर से विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका का नाम है | संयोग से उस दौरान गोरखपुर में ही था | मित्र अरविंद त्रिपाठी के आमंत्रण पर उस आयोजन में जाने का अवसर बना | बड़ा ही भव्य आयोजन था | गोरखपुर विश्वविद्यालय के सभागार में दर्शक और श्रोता बड़ी संख्या में उपस्थित थे | इसका एक बड़ा कारण यह था कि दस्तावेज के इस सौवें अंक का लोकार्पण उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल और कलकत्ता विश्वविद्यालय के आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की उपस्थिति में होना था | अपने ताम झाम में यह एक सरकारी आयोजन से किसी तरह कमतर नहीं था | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बोलने आये तो गुस्से में तमतमाए हुए से थे | गुस्से का कारण जल्द ही समझ में आ गया | शहर के किसी अखबार में परमानंद श्रीवास्तव का एक बयान छपा था जिसमें दस्तावेज के बारे में उन्होंने यह कहा था कि यह एक निकलती रहने वाली पत्रिका है | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने परमानंद श्रीवास्तव के इस बयान को प्रलाप और विलाप बताते हुए चुटकी ली | यह वाकया अब इसलिए भी याद रह गया है कि हल्के फुल्के अंदाज़ में कही गई परमानंद श्रीवास्तव की बात के साथ गहरे निहितार्थ भी जुड़ते गए हैं | एक बारगी ऐसी तमाम पत्रिकाएँ याद आती हैं जिनके  निकलते रहने का कोई ख़ास मकसद न होते हुए भी वे निकलती जा रही हैं | 
ऐसी ही एक पत्रिका है - वैचारिकी ; भारतीय विद्या मंदिर शोध प्रतिष्ठान की द्वैमासिक पत्रिका है यह जो बीकानेर राजस्थान से मुद्रित और प्रकाशित होती है और जिसका सम्पादकीय और प्रबंधकीय कार्यालय कलकत्ता में है | बाबूलाल शर्मा इसके सम्पादक हैं | पिछले दिनों इसके कुछ अंक देखने के बाद चरम हताशा का अनुभव होता रहा | वे मुझे निःशुल्क प्रति भेजकर मेरा कष्ट और भी बढ़ा रहे हैं | और उनसे यह कहने में भी संकोच होता है कि मुझे पत्रिका भेजना बंद कर दें | इस पत्रिका के एक अंक के कुछ लेखों के शीर्षक आप देखें : मारवाड़ राजघराने की बहियों में इत्र के सन्दर्भ ; स्वामी प्राणनाथ रचित कुलजम स्वरूप में सिन्धी वाणी ; भारत की पुष्प माल्य संस्कृति आदि आदि | घोषित रूप से यह पत्रिका धर्म दर्शन , विज्ञान , साहित्य , लोकसाहित्य , इतिहास पुरातत्व , कला , लोक कला को समर्पित है | यह महज एक उदाहरण के लिए है कि बिना किसी स्पष्ट दृष्टि के निकलती रहने वाली पत्रिकाएँ बहुत हैं | आपके पास पैसे हैं , संसाधन हैं तो आप कुछ भी छाप लीजिए | सम्पादक बन जाइए | हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आते हैं कि साहित्य यदि समकालीन चुनौतियों को समझने में मदद नहीं करता तो उसका कोई मोल नहीं | 
ध्यान से देखिये तो साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाओं की भीड़ में आज नियमित निकलने वाली पत्रिकाओं की संख्या काफी बड़ी है | मुझे लगता है कि सौ - डेढ़ सौ पत्रिकाएँ तो आज हिन्दी में निकल ही रही हैं | बल्कि अधिक भी होंगी | इधर कई नई पत्रिकाओं का आग़ाज़ भी हुआ है | क्या दृष्टि है इन पत्रिकाओं में | उनके होने का मतलब क्या है | समय में इन पत्रिकाओं का हस्तक्षेप कितना और क्या है | यह हमारे लिए विचारणीय होना चाहिए | एक जमाने में मैंने भी अलीक नाम की एक लघु पत्रिका निकालने का दुस्साहस किया था | शुरू के दो अंक के बाद पत्रिका बंद करनी पड़ी | अब भी मित्र कहते हैं कि पत्रिका को शुरू करना चाहिए | कभी कभी उत्साह भी बनता है | लेकिन फिर देखता हूँ कि कितनी तो पत्रिकाएँ निकल ही रही हैं | क्या फर्क पड़ता है अगर एक और पत्रिका न निकले तो | या दूसरे शब्दों में कहें तो एक और नई पत्रिका के निकलने से ऐसा कौन सा फर्क पड़ जाएगा | अगर कुछ कविताएँ कहानियाँ छाप लेने से या कुछ समीक्षाएँ लेख आदि छाप लेने से साहित्यिक पत्रकारिता का काम हो जाता है तो वह काम बहुत से लोग कर ही रहे हैं | हमें इसमें क्या करना है | जब तक कोई मकसद न हो , साफ़ दृष्टि न हो , साहित्यिक पत्रिका निकालने का कोई अर्थ नहीं होता | 
एक पत्रिका का अवदान इस तरह भी समझा जा सकता है कि उसने कितने नए लेखक तैयार किये | इसे मैं एक बड़ी कसौटी मानता हूँ | और इस कसौटी पर खरी उतरने वाली पत्रिकाएँ हिन्दी में मेरी नज़र में तो बहुत विरल हैं | आपके ध्यान में हों तो जरूर बताएँ | एक बनते हुए लेखक की प्रतिभा की पहचान करना और उसे बनने का अवसर प्रदान करना एक पत्रिका का सबसे गुरु दायित्व होना चाहिए | एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादक होने के लिए यह काबिलियत जरूरी है | आज ऐसी पत्रिकाएँ कितनी हैं और ऐसे सम्पादक कितने हैं यह आपसे छुपा नहीं है | 
बनते हुए लेखकों के टैलेंट-हंट का काम अब पुरस्कार समितियों के हाथ में है | इसके नतीजे जैसे भी हैं आपके सामने हैं | आज वास्तव में प्रकृत अर्थों में लघु पत्रिकाओं के पुराने तेवर की जरूरत सबसे बढ़कर है | पत्रिकाओं को समय की पड़ताल करनी है | नए लेखकों की आवाज़ को मंच देना है | एक सार्थक प्रतिरोध तैयार करना है | संस्थानों से मिलने वाली खैरात को ठुकरा कर बुलंद आवाज में सच बयान करने वाली पत्रिकाएँ बेहद जरूरी हैं | अफसोस कि मौजूदा परिदृश्य में इन बातों की गुंजाइश बहुत बहुत कम है | कई लेखक अपनी अपनी पत्रिकाओं को अपनी पीठ पर कुछ इस अंदाज़ में ढोते हुए नज़र आते हैं जैसे पहाड़ की चढ़ाई पर कोई पर्वतारोही ऑक्सीजन का सिलिण्डर ढोता है | इधर कुछ बंद पड़ी पत्रिकाएँ दुबारा शुरू हुई हैं | कुछ ऐतिहासिक महत्व की पत्रिकाओं के पुनः प्रकाश में आने की सुगबुगाहटें सुनाई दे रही हैं | देश और दुनिया की जो परिस्थितियाँ बन रही हैं उनमें आज शब्द की सत्ता की पुनर्स्थापना बेहद जरूरी है | साहित्यिक पत्रकारिता का यह दौर हर उस सम्पादक का ऋणी होगा जो बिगाड़ के डर और ईमान , इन दोनों में से चुनाव के वक़्त अपना हाथ ईमान के पक्ष में ऊपर करेगा | 

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